भारत का वो अनोखा गाँव जहाँ आज भी सिर्फ संस्कृत ही बोली जाती है !

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Photo of भारत का वो अनोखा गाँव जहाँ आज भी सिर्फ संस्कृत ही बोली जाती है ! by Saransh Ramavat

संस्कृत भाषा, जिसे विश्व की सभी भाषाओं की जननी कहाँ जाता है, भारत की प्राचीन भाषा रही है। संस्कृत भाषा को दैवीय भाषा का दर्जा भी मिला है और इसे दुनिया की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक माना जाता है । इतना पूराना और गौरवपूर्ण इतिहास होने के बाद भी संस्कृत अब लुप्त होती जा रही है, और इसे समझने वाले और पढ़ने वाले लोग भी कम ही हैं। ऐसे में ये हैरानी की ही बात है कि भारत में आज भी कुछ गाँव ऐसे है जहाँ संस्कृत का इस्तेमाल रोज़ की बोलचाल में होता है और यहाँ का हर कोई, यहाँ तक की बच्चा-बच्चा भी संस्कृत बोलना जनता है। तो चलिये जानते है उनमें से एक गाँव मत्तुर के बारे में।

कहाँ है यह अनोखा गाँव ?

मत्तुर गाँव, कर्नाटक राज्य में स्थित है। ये राज्य की राजधानी बैंगलोर से 300 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। मत्तुर पहुँचने का सबसे आसान तरीका कर्नाटक के प्रमुख शहरों में से एक शिमोगा तक पहुँचना है और वहाँ से मत्तुर सिर्फ 8 कि.मी. दूर है ।

यहाँ कैसे पहुँचे ?

हवाई यात्रा- अगर आपको फ्लाइट से ट्रैवल कर यहाँ पहुँचना है तो शिमोगा का सबसे निकटतम एयरपोर्ट मंगलोर में स्थित है जो कि शिमोगा से 195 कि.मी. की दूरी पर है। आप चाहे तो एयरपोर्ट से शिमोगा तक प्राइवेट टैक्सी या राज्य परिवहन कि बसों से भी जा सकते हैं।

रेल यात्रा- शिमोगा का अपना रेल्वे स्टेशन है। पर्येटक शिमोगा तक पहुँचने के लिए कर्नाटक के प्रमुख शहरों से ट्रेन पकड़ सकते हैं। मत्तुर पहुँचने के लिए रेलवे स्टेशन से प्राइवेट टैक्सी किराए पर ली जा सकती है और यहाँ से मत्तुर सिर्फ 8 कि.मी. दूर है ।

सड़क यात्रा- अगर आप सड़क के रास्तों से मत्तुर पहुँचना चाहते हैं तो आपको सबसे पहले बैंगलोर पहुँचना होगा और वहाँ से आप शिमोगा के रास्ते मत्तुर पहुँच सकते हैं। बैंगलोर से मत्तुर की दूरी आपको लगभग 315 कि.मी. है जिसे आप 6 घंटे में आसानी से कवर कर सकते है ।

Photo of मत्तुर मेस, Vidyagiri, Dharwad, Karnataka, India by Saransh Ramavat

ये गाँव साल भर बहने वाली नदी, तुंगा के तट पर बसा हुआ है। अपने वैदिक संस्कारों से जुड़ने की ये यात्रा 1981 में शुरू हुई जब शास्त्रीय भाषा को बढ़ावा देने वाली संस्था संस्कृत भारती ने मत्तुर में 10 दिवसीय संस्कृत कार्यशाला आयोजित की। इस कार्यशाला का लोगों पर इतना असर पड़ा कि गाँव की प्राथमिक भाषा संस्कृत ही बन गयी ।

मत्तुर एक कृषि प्रधान गाँव है जिसमें ज़्यादातक अरेका नट और धान की खेती होती है। ये गाँव संकिथियों, एक प्राचीन ब्राह्मण समुदाय द्वारा बसाया हुआ है, जो 600 साल पहले केरल से पलायन कर मत्तुर में बस गए थे। संस्कृत के अलावा, वे संकेथी नाम की एक दुर्लभ बोली भी बोलते हैं, जो संस्कृत, तमिल, कन्नड़ और तेलुगु का मिश्रण है। संकेथी बोली की कोई लिखित लिपि नहीं है और इसे देवनागरी लिपि में पढ़ा जाता है।

मत्तुर का पूरा गाँव एक वर्ग के रूप में बनाया गया है । यहाँ एक केंद्रीय मंदिर और एक पाठशाला है जहाँ पारंपरिक तरीके से वेदों का पाठ किया और पढ़ाया जाता है। यहाँ पर शिक्षक गाँव के बुजुर्ग है जिनकी निगरानी में छात्र अपने पांच वर्षीय पाठ्यक्रम में संस्कृत और वेदों की शिक्षा लेते है ।

इस पाठशाला में छात्र पुराने ताड़ के पत्तों पर लिखे हुए संस्कृत लेखों से कंप्यूटर पर इस स्क्रिप्ट को लिखते हैं और सभी व्यक्तियों के लिए पब्लिश किया जाता है ताकी सभी लोग इसका लाभ ले सकें। यहाँ विदेश के कई छात्र भी रहते है जो भाषा सीखने के लिए पाठशाला में क्रैश कोर्स कर रहे होते हैं।

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मत्तुर में सब्जीवाले से लेकर पुजारी तक हर कोई संस्कृत समझता है और फर्राटे से बोलते भी हैं। यहाँ पर बुजुर्गों के एक समूह को नदी किनारे वैदिक भजनों का पाठ करते हुए देखना काफी नॉर्मल है, यहाँ तक कि छोटे बच्चे जो जमीन पर बैठकर क्रिकेट खेलते हैं और संस्कृत में ही बात करते हैं।

मत्तुर में घरों की दीवारों पर काफी अलग तरह की पेंटिंग्स और लाइन्स लिखी रहती है । जैसे दीवार पर लिखा रहता है, मारगे स्वचेताया विराजते, ग्राम सुजानहा विराजंते (स्वच्छता एक सड़क के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण है जितना अच्छे लोग गाँव के लिए हैं)।

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मत्तुर के स्कूलों से कुछ शानदार रिकॉर्ड निकले हैं। शिक्षकों के अनुसार, संस्कृत सीखने से छात्रों को गणित और तर्क के लिए एक योग्यता विकसित करने में मदद मिलती है। मत्तुर के कई युवा इंजीनियरिंग या डॉक्टरी पढ़ने के लिए विदेश गए हैं और गाँव में हर परिवार में कम से कम एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर है!

मत्तुर ने 30 से ज्यादा संस्कृत प्रोफेसर निकले है जो कुवेम्पु, बेंगलुरु, मैसूर और मैंगलोर के विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे हैं। मत्तूर कई शानदार व्यक्तित्वों का घर भी है, जिसमें भारतीय विद्या भवन- बेंगलुरु के माथुर कृष्णमूर्ति, वायलिन वादक वेंकटरम, और गामाका विस्तारक एच.आर. केशवमूर्ति शामिल हैं।

मत्तुर और उसके पड़ोसी गाँव, होसहल्ली को कर्नाटक में गायन और कहानी कहने के एक अनोखे रूप, गमक की प्राचीन परंपरा को बढ़ावा देने के लिए भी जाने जाते हैं।

गमक

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गमक में, जिसे काव्य वचना के नाम से भी जाना जाता है, एक गमकी (गायिका) कविता का एक श्लोक पढ़ती है, एक अन्य व्यक्ति उदाहरणों और उपाख्यानों के जरिये श्लोक का अर्थ बताता है। रागों मे पारंपरिक कन्नड़ लोक धुनों और कर्नाटक संगीत का उपयोग किया जाता है, जबकि कविताएँ ज्यादातर पुराने कन्नड़ महाकाव्य जैसे कि जैमिनी भरत, हरिश्चंद्र काव्य, अजीता पुराण, देवी-भागवत और तोरवे रामायण से होती हैं।

मत्तुर इसीलिए भी खास है कि जब देश की 1% से भी कम आबादी द्वारा संस्कृत बोली जाती है, वही यहाँ के ग्रामीण ना सिर्फ इसे अपनी रोज़ कि बोलचाल मे इसका इस्तेमाल करते हैं, बल्कि वे इसे सीखने में रुचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति को पढ़ाने के लिए तैयार हैं। । उनका सराहनीय प्रयास आने वाले सालों में इस प्राचीन और वैज्ञानिक भाषा के ज्ञान को ज़िंदा रखने की दिशा में एक लंबा रास्ता तय करेगा।

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