
"हद हद तपे सो औलिया, बेहद तपे सो पीर,
हद अनहद दोनों तपे, वाको नाम फकीर।"
जो सीमा लांघता है वह रक्षक है, जो असीम से परे है वह आध्यात्मिक मार्गदर्शक है, जो सीमा और असीम दोनों को पार कर जाता है, फकीर कहा जाता है.

संत कबीर के बारे में कौन नहीं जानता, जो 15 वीं शताब्दी में हुए थे. संत कबीर अंधविश्वास, व्यक्ति पूजा , पाखंड और ढोंग के विरोधी थे। उन्होने भारतीय समाज में जाति और धर्मों के बंधनों को गिराने का काम किया। वे भक्तिकाल के निर्गुण शाखा के ज्ञानमार्गी उपशाखा के महानतम कवि थे।
संत कबीर ने यूं तो पूरा जीवन काशी / बनारस या आज का वाराणसी में ही जिया था लेकिन अपने अंतिम समय में वो मगहर आ गए थे. उनके मगहर आने की भी एक रोचक कहानी है जो बहुत से लोगो को पता है लेकिन फिर भी हम यहाँ बता देते है. मगहर को लोग संत कबीर के समाधि स्थल या परिनिर्वाण स्थली के रूप में जानते है.

जिन लोगो ने कबीर को पढ़ा है और समझा है वो जानते है कि कबीर पाखंड, अन्धविश्वास के विरोधी थे एवं अपनी कविताओ, दोहों आदि में इसका उल्लेख भी करते थे. इसी तरह काशी के बारे में ये मान्यता है कि वहां शरीर छोड़ने से मोक्ष की प्राप्ति होती है. इसी तरह की एक मान्यता मगहर के बारे में भी उस समय प्रचलित थी कि जो मगहर में अपना शरीर छोड़ता है वो अगले जन्म में गधे के रूप में जन्म लेता है या दुर्भाग्यशाली होता है

संत कबीर ने काशी के ऊपर मगहर को चुन लिया क्योंकि एक प्रबुद्ध आत्मा के रूप में वह इस मिथक को दूर करना चाहते थे कि कोई भी अपने जीवन के अंतिम समय मगहर मे होने से उसका जन्म उसके अगले जीवन में एक गधे के रुप मे होता है ।

कबीर ने जनवरी 1518 में , हिंदू कैलेंडर के अनुसार विक्रम संवत 1575 में माघ शुक्ल एकादशी में अपने शरीर को छोड़ दिया। वह मुसलमानों और हिंदुओं द्वारा समान रूप से प्रिय थे. कबीरदास जी एक महान संत, कवि और समाज सुधारक थे। उन्होंने तत्कालीन समय में हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्मों में व्याप्त रूढ़ियों, आडम्बरों एवं कुप्रथाओं पर अपने दोहों तथा कविताओं के माध्यम से कुठाराघात कर धर्म सुधार का प्रयास किया।

जब संत कबीर ने शरीर छोड़ा तो उनके अनुयायी जिनमे हिन्दू और मुसलमान दोनों थे आपस में विवाद करने लगे कि उनकी पद्धति से संत कबीर का अंतिम संस्कार किया जाये. ऐसी मान्यता है कि उनका पार्थिव शरीर फूलों में परिवर्तित हो गया. तब दोनों पक्षों ने वो फूल आधे आधे बाँट लिए और एक ही जगह पर हिन्दुओ ने उन फूलो से संत कबीर के समाधि का निर्माण किया और मुसलमानों ने उन फूलों से मजार बनाई.

संत कबीरदास जी की समाधि का निर्माण मगहर के राजा वीर सिंह बघेल एवं मज़ार का निर्माण मुस्लिम सरदार बिजली खाँ ने कराया था। इस स्मारक का सम्बन्ध संत कबीरदास जी से होने के कारण यह स्थल हिन्दू- मुस्लिम दोनों के लिये धार्मिक व सांस्कृतिक दृष्टि से पवित्र एवं महत्वपूर्ण है। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर मगहर में बहुत बड़ा मेला लगता है जिसमे उत्तर भारत के दूर दूर से लोग आते है.

संत कबीर के जन्म के विषय में ऐसा कहा जाता है कि नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति को एक नवजात बालक वाराणसी स्थित लहरतारा तालाब के किनारे सन् 1398 ई० में मिला था, जिसका नाम बाद में उन्होंने कबीर रखा। कर्म आधारित मोक्ष की अवधारणा को सिद्ध करने के लिए संत कबीरदास जी अपने जीवन के अन्तिम समय में वाराणसी छोड़कर मगहर आ गये और यहीं पर सन् 1518 ई० में उनका परिनिर्वाण हुआ।

मत कर माया को अहंकार , मत कर काया को अभिमान
काया गार से काची, काया गार से काची, जैसे ओस रा मोती
झोंका पवन का लग जाये, झपका पवन का लग जाए
काया धूल हो जासी... कबीर दस के इस भजन से हमें जिंदगी जीने की नई दिशा मिलती है.

समाधि स्थल के पास ही नदी किनारे शिव मंदिर और घाट भी बना हुआ है.





- कपिल कुमार
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