मुर्दा जाग उठेगा तब ...!
उस दिन शाम में करीब साढे पांच बज रहे होंगे । सूरज ने तब तक हमारा साथ नहीं छोङा था । महीना अप्रैल और साल था 2017 । मैं, अपनी पत्नी माधुरी आनंद, साली सुष्मिता आनंद, दोनों बच्चों और पत्नी के भांजा आशुतोष प्रकाश के साथ कब्र परिसर में दाखिल हो चुका था । छोटी दरगाह परिसर में गिने-चुने की उपस्थिति थी जिसमें हम भी शामिल हो गए । कब्र में लेटा व्यक्ति शाही नहीं था । मतलब यह कि दरगाह कोई ताजमहल नहीं था वर्ना हमारी उपस्थिति भीङ में कहीं गुम हो जाती । हमारे खङा होने की जगह योगी और भोगी का फर्क बता रहा था ।
मनेर शरीफ पटना से लगभग 25 किलोमीटर दूर है । बिहार में मुगलकालीन वास्तुकला के जो इक्के-दुक्के नमूने दिखते हैं, उनमें छोटी दरगाह सबसे शानदार है । यह चुनार के लाल बलुआ पत्थर से बना है । पत्थरों पर नक्काशी ऐसी कि लकङी के नक्काशनवीस शर्मा जाएं । फिरदौसी सिलसिला के सूफियों को राजनीतिक सत्ता की नजदीकी से गुरेज नहीं होता था । सरकार के भारतीय पुरातत्व विभाग ने अब उन्हेें अपनी पनाह मेें रखा है । जीवन के साथ भी जीवन के बाद भी... यह है शाह की कमाई हुई दौलत ! जानकारी के अनुसार, मुगल बादशाह जहांगीर का बंगाल-बिहार के सूबेदार इब्राहिम खां फतेहगंज ने छोटी दरगाह को सत्रहवीं सदी के पूर्वाद्ध में बनवाया था ।
मनेर शरीफ मेें दो दरगााहें हैैं । बड़ी दरगाह मेें फिरदौसी सूूूफी संत हजरत मखदूम यहिया मनेरी 1291 ई० से लेेेटे हुुुए हैं जबकि छोटी दरगाह जो कि बेहद खूबसूरत है, मेें शाह दौलत का मकबरा है । छोटी दरगाह की इमारत एक नीची चबूतरे पर बना है । चबूतरे के कब्र वाले कक्ष के चारों तरफ दीवारें हैं और उसके चारों ओर 12 स्तंभों पर टिका लगभग 3.5 मीटर का एक खुला बरामदा है । इस्लाम में मानव चित्र बनाने की जो पाबंदी है उसका पालन बखूबी यहां दिखता है । हाङ मांस के मानव को साकार सामने देखिए , दिमाग से देखिए , कल्पना में देखिए लेकिन चित्र में मत देखिए ! जब खुदा ही निराकार हो तब उसका बंदा आकार वाला दिख कर खुदा से बढत लेने की कैसे सोच सकता है ! छोटी दरगाह में मानव चित्र न सही उसकी जगह हम यहां कुरान शरीफ की आयतों की कैलियोग्राफी को तो उत्कीर्ण देख ही सकते हैं । फूल -पत्ती तो उकेरे गए हैं ही ।
कब्र को घेरते कक्ष की दीवारों में ताखे भी बने हुए हैं । ताखों के मेहराब में पत्थर की जालियां लगायी गयी हैं । कोने पर खुले कक्ष है जिनके ऊपर छोटे गुम्बद बने हुए हैं । मुख्य गुम्बद जो कि बङा है, कक्ष के बीचोबीच है । बरामदा से चारों ओर बाहर छज्जा निकला हुआ है । ऊपर में चारों दिशाओं में पत्थर की जालीदार रेलिंग लगाई गयी है । बाहर से देखने पर इमारत दो मंजिला दिखाई पङता है । कक्ष के बीच में शाह दौलत की समाधि है । शाह दौलत की बीवी ने अब भी उनका साथ नहीं छोङा है । तीन तलाक की नौबत नहीं आयी थी । वह अपने शौहर के पूरब लेटी हुई हैं । शाह दौलत का चेला दरगाह निर्माता इब्राहिम खां भला अब कहां जाता ! उसने अपनी कब्र के लिए शाह की कब्र के पांव के नीचे की जमीन मुकर्रर की है ।
मेरी बेटी इधर-उधर भागती हुई जब एक रेलिंग के पास पहुंची तो जोर से कहा , ''ममा देखो पानी ।'' हमने झांका तो एक जलाशय नजर आया जिसका जल गंदला था । बाद में पता चला कि लगभग पांच एकङ में फैले इस तालाब को कभी सोन नदी पानी देती थी । सोन नदी गंगा से मनेर में ही मिलती है । अत: तालाब में एक सुरंग के द्वारा सोन नदी का पानी लाने की व्यवस्था थी । सोन नदी अब दूर भाग चुकी है । इमारत की संरचना की योजना में जलाशय का वैसा कोई जोङ नजर नहीं आता जो शेरशाह की दरगाह में दिखता है । मुख्य भवन के बाहर खुले में कई दूसरे कब्रे भी बने हुए हैं जिनके ऊपर भी चादरें चढी हुई थीं । यह बाहरी कब्र किनका है , पता नहीं । यह तो तय है कि ये बाद में बनवाये गए हैं जो इमारत की संरचना में भद्दे जोङ लगते हैं । भारत में पेबन साटने (पैबंद) की पुरानी मजबूरी रही है । वैसे भी सबको छत आज तक सरकार नहीं दे पाई है । भूदान के दिनों में भी इन खुले कब्रियों को जमीन नहीं मिला ।
खैर, छोटी दरगाह परिसर में प्रवेश द्वार से लगा हुआ एक लंबा आयताकार कक्ष दिखता है जिसे एक ओर से खुला रखा गया है । दरगाह परिसर में बिना गुम्बद की मेहराबदार छत वाली एक मस्जिद भी है । परिसर में एक तहखाना भी है जिसे दिखाकर हमने अपने बच्चों को डराया भी । कहते हैं कि शाह दौलत खुदा की इबादत इसी कोठरी में किया करते थे । दरगाह के उत्तर में मुगल शैली का दरवाजा है जिसकी छत गुम्बदनुमा है । दरवाजा के दोनों ओर बाहर की ओर खिङकियां बनी हुई हैं ।
कुछ तस्वीरें खींची तो वहां मौजूद ताबेदार ने मना किया लेकिन जिसे अब तक इतिहास की कई किताबों में पढते आया था, उसका साक्षात्कार अधूरी कैसे छोङ सकता था ! चोर निगाही के साथ फिर क्लिक-क्लिक करने पर गुस्साते हुए ताबेदार ने चेतावनी दी कि यह कब्र है । इन्हें मत जगाइये । जगाइये मत ... से हम थोङा सिहरें । सूरज भी आसमां से जा चुका था । अब समर, अन्नी की जगह हमारे डरने की बारी थी । मुर्दा बोल उठेगा ...!! मतलब प्रेतों के बीच हम खङे हैं ! ताजमहल भी तो कब्र है । वहां प्रेत नहीं ! वहां तो कोई फोटोबाजी पर नहीं टोंकता । अच्छा...तो भोगी और योगी का मामला है । दरबार लगाने की आदत शाहजहां की अब तक नहीं गयी और मनेरी साब को चाहिए केवल शांति । आश्चर्य यह था कि साल में दोनों सूफी संतों के नाम पर जो पुण्यतिथि मनायी जाती है, वह आखिर कैसे शांति से मनाया जाता होगा ! भीङ-भाङ से उनके जग जाने की आशंका नहीं होती ! इनका जगना आज हिंदुस्तान की जरुरत है । सूफी तहजीब को उसके एक गढ कश्मीर से विदा कर दिया गया है । ये जग जाएं तो देख सकेंगे कि उनकी शिक्षा ने दम क्यों तोङ दिया ? लेकिन साहब को नहीं जगने देंगे ताबेदार ...! तो . .. लो शांति ... सरकार ने भी कश्मीर पर मुहर मार दी है शांति का ।
...तो मनेर मतलब मनेर का लड्डू ही नहीं होता , हम वहां देख रहे थे । मनेर एक धार्मिक नगरी थी, है और ऐतिहासिक भी । कहते हैं कि आज के पिछङे शहर मनेर में कभी राजशाही हुआ करती थी । पूरा शहर प्राचीर से घिरा हुआ था । मनेर के उत्तर-पूर्व कोने पर अब भी एक गढ देखा जा सकता है जो ऊंचा है। बदमिया बुढिया ने बताया कि वही राजा का किला था ।
धुंधलका हो चुका था । आशुतोष ने गाङी स्टार्ट की और थोङी देर में बिहटा-पटना सङक पर स्थित महीनावां आ गया जहां हम एक रिश्तेदार की शादी समारोह में शामिल होने आए हुए थे । मेरी माताजी भी अतिथि के रुप मेंं महीनावां में ही थीं । पहुंचने पर हम में से किसी को नहाने का आदेश उन्होनें जारी नहीं किया । ताज्जुब कि हमें छूतका नहीं लगा था ! श्मशान घाट और दरगाह का यह फर्क दिमागी है कि नहीं !
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कैसे पहुंचे :- दानापुर, बिहटा और पटना रेलवे स्टेशन पर उतर कर सङक मार्ग के जरिए पहुंचा जा सकता है । औरंगाबाद से बिहटा होते पटना आने वाली सङक से सीधे मनेर पहुंचा जा सकता है । नजदीकी हवाई अड्डा पटना है ।
कहां ठहरें :- पूरा कार्यक्रम एक दिन का है । रात ठहरने की जरुरत नहीं है । वैसे बिहटा, पटना में हर बजट की होटले हैं ।
क्या खरीदें :- मशहूर मनेर का लड्डू ।
© अमित लोकप्रिय