नगर का अर्थ होता है शहर, कीर्तन का अर्थ होता नाम जपना ,भगवान का गुणगान करना। नगर कीर्तन का अर्थ हुआ नगर में भगवान का गुणगान करना। नगर कीर्तन में गुरु ग्रंथ साहिब जी को पालकी में शाओभित करके पालकी को फुलों से अच्छी तरह सजा कर पूरे नगर में भ्रमण करते है, कभी कभी दूसरे शहरों में भी जाते है,जिनकी अगवाई पांच प्यारे करते है। साथ में कीर्तन भी करते है। पालकी के साथ बहुत से श्रद्धालु जाते है। जहा जहा पालकी साहिब ने जाना होता है, वो सड़क, जगह साथ साथ ही झाड़ू और पानी से साफ़ की जाती है। जहा जहा पालकी साहिब जाते है, लोग सिर ढक कर, झुक कर माथा टेकते है तथा प्रसाद लेते है, कोई भी नगर कीर्तन की पालकी को ओवर टेक नहीं करता बल्कि पालकी साहिब के पीछे चलने को सौभाग्य समझता है, क्योंकि सिक्ख धर्म में गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरु का दर्जा मिला हुआ है। लोग संगत की सेवा करते है जलपान, चाय जो भी उनकी श्रद्धा हो उसके साथ पूरी संगत की सेवा करके पुन्य करते है।
# नगर कीर्तन क्यों मनाते है?
सिक्खों के 10 गुरु साहिबान है, जिन्हे 10 पातशाही कहते है। प्रथम पातशाही गुरु नानक देव जी तथा दसवें पातशाही गुरु गोबिंद सिंह जी है। इसके बाद गुरु जी की उपाधि गुरु ग्रंथ साहिब जी के पास है। किसी भी पातशाही के प्रकाश पुरब अर्थात् जिस दिन गुरु जी संसार को तारने के लिए परगट हुए अथवा जिस दिन वो ज्योति ज्योत समाए उस दिन को मनाने के लिए कुछ दिन पहले नगर कीर्तन निकालते है। यही नहीं किसी भक्त तथा भट्ट जिनकी बानी गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज है, उनके लिए भी नगर कीर्तन निकाला जाता है। पूरा गांव इस में शामिल होता है। ऐसे लगता है जैसे गुरु जी महाराज संगत को स्वय दर्शन देने आ रहे हो। चलता हुआ गुरुद्वारा साहिब कहना गलत नहीं होगा।
एक ऐसा ही अलौकिक नगर कीर्तन मेरे सुसराल लुधियाना के गांव गुजरवाल, जो लुधियाना से 16 किलोमीटर पर स्थित है, में देखने को मिला। नगर कीर्तन तो बहुत देखे थे मगर ऐसा भव्य नगर कीर्तन पहली बार देखा था।यह नगर कीर्तन दसवें पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश पुरब से संबंधित था। इस में ढोल, नगारे, हाथी, सफेद घोड़े ओर भी बहुत कुछ था। कविष्री गायन भी हो रहा था।हम सब ने पालकी साहिब को माथा टेका और प्रशाद लिया। नगारों को गुंज रुहानी सकून दे रही थी। श्रद्धा का सुमेल नगर कीर्तन अलौकिक आनंद की भभुति करवा रहा था। ऐसा नगर कीर्तन देख कर मन गद गद हो रहा था।
धन्यवाद।