रणथंबोर के जंगलों की वो कहानियाँ, जो लोकल लोग आपको कभी नहीं बताएँगे

Tripoto

"हे, ये आवाज़ सुनी तुमने?", अरविन्द ने फुसफुसाहट से पूछा।

दूर से गरजती हुई आवाज़ को सुनकर भी ड्राइवर गाड़ी चलाता रहा। दो मिनट के लिए तो मैं भी सहम गया था। अरविन्द फिर बोले, "रुको"।

गाड़ी रुकी और अरविन्द ने समझाया, "ये जो बन्दर देख रहे हो ना पेड़ पर, यही तुमको आस-पास बाघ होने की जानकारी देंगे। बाघों पर पेड़ों से नज़र रखते हैं बन्दर और हिरण ज़मीन पर से। जो पहले देख लेता है, वो दूसरे को बता देता है। ये चीतल देखो, जो चारों दिशाओं में बैठे हैं। ये आस-पास की हर छोटी से छोटी हलचल पर नज़र बनाए रहते हैं।"

जैसे ही अरविन्द चुप हुए, बन्दरों ने दूर से घुड़की दी, ज़ोरों की आवाज़, बहुत तेज़। और उस आवाज़ से पूरा जंगल दहल उठा। देखते ही देखते सारे हिरण जान बचाने के लिए भागने लगे। कुछ सेकेण्ड में पूरा इलाक़ा साफ़ हो चुका था। मैंने अपने कुछ दोस्तों से इस तरह की कहानियाँ सुनी तो थीं, लेकिन पहली बार अपनी आँखों के सामने देख रहा था। इसे कहते हैं जंगल, एक ज़ोर की आवाज़ और पूरी महफ़िल झट से फ़रार, फिर पसरता है एक गाढ़ा सन्नाटा। और ऐसा नहीं कि ये सिर्फ़ हिरण और बन्दरों तक ही है। इससे सबसे ज़्यादा फ़ायदा इंसानों को होता है। बाघ कहाँ है, पता करने के लिए पर्यटक, गाइड और वैज्ञानिक इन छोटी छोटी आवाज़ों पर बहुत निर्भर रहते हैं।

इस पूरे माहौल में एक छोटी सी बात याद आई। भारतीय वेद पुराणों में बन्दर की तरह रहने की बात कही गई है, हमेशा चौकन्ना रहने वाला। पहली बार मैंने बन्दरों को बाघों पर नज़र रखते हुए इतनी ग़ौर से देखा था।

जब मैंने पहली बार बाघ को देखा

बाघ का दिखना बहुत क़िस्मत वाली बात है। तुक्का लग गया तो ठीक नहीं तो बैठे रहो इंतज़ार में। आपने इंस्टा और फ़ेसबुक पर बाघ के पाँव के निशान बहुत देखे होंगे। ये पाँव के निशान लोगों की निराशा का सबूत भर ही हैं।

इतनी निराशा के बाद भी मेरी उम्मीद बँधी हुई थी। पानी के गड्ढे के पास हमने बाघों का बहुत इंतज़ार किया। फिर वहाँ हल्की सी हलचल हुई। मेरी नब्ज़ तेज़ हो चुकी थी। कैमरा, फ़ोन सब अलर्ट पर थे। एक हल्की सी झलक, और मैं कामयाब हो जाता।

मैंने एक सेकेण्ड के लिए सामने देखा। वो एक सेकेण्ड काफ़ी लम्बा था। हरी हरी झाड़ियों से इस जंगल का सबसे बड़ा खिलाड़ी अपनी गाढ़ी पीली कद काठी में गदराते हुए चला आ रहा था। काली रंग की चितकबरी पट्टियाँ उसके रौब पर ख़ूब नुमाया हो रही थीं। पीछे से कोई बोला, "उसकी उम्र 19 बरस की है, हमने उसका नाम कृष्णा रखा है।" मेरा दिल इतनी ज़ोरों से धड़क रहा था कि आस-पास के लोगों को भी उसकी आहट आ रही थी। एक सेकेण्ड में मानो यहाँ आना सफल हो गया था।

मैंने और ग़ौर से देखा तो पीछे-पीछे उसके तीन नन्हे चंगू मंगू भी उछलते कूदते आ रहे थे। जैसे बदमाश बच्चे हमारे होते हैं, वैसे ही उसके भी थे। रौब लेकिन उनकी आँखों में भी कम नहीं था। लगभग एक घण्टे तक हमने उनका पीछा किया। उनकी कद काठी, चलने का अन्दाज़, चेहरे पर आने वाले भाव और भी बहुत कुछ, सब देखने लायक था। मैंने जाना उस प्रेम को, जो माँ अपने बच्चों से करती है, हर नस्ल में एक जैसा ही होता है। ये, ये दुनिया कितनी ख़ूबसूरत है, मेरी सोच से बहुत आगे। और मुझे वो देखने का मौक़ा मिला।

अरविन्द ने बताया कि ये हर मादा बाघ अपने बच्चों को दो साल के लिए ही रखती है, फिर ये बाघ अपने अपने रास्ते हो जाते हैं। इन दो सालों में जब जब माँ शिकार पर जाती है, बच्चे अपनी जगह से हिलते तक नहीं। कई कई बार तो माँ को शिकार करने में तीन दिन तक लग जाते हैं, लेकिन बच्चे नहीं हटते। कभी कभी नर बाघ भी अपने बच्चों से मिलने आता है, लेकिन मादा बाघ ही बच्चों को पालती है। बस एक रणथंबोर ही है, जहाँ नर बाघ अपने बच्चों को पालता है। T-25, जिसे हम ज़ालिम भी बुलाते हैं, ने मादा बाघ की मौत के बाद अपने बच्चों को पाला है।

मेरे एक दोस्त हैं, अंशुल सीकरी। पिछले 8 सालों से वो हर तीन महीने में यहाँ का एक चक्कर तो मार ही लेते हैं। यहाँ रहने वाले लोगों और इस दुनिया से अच्छे भले परिचित हैं आप। रणथंबोर आपके बिना अधूरा ही था। अरविन्द और आपकी बातचीत से इस छोटी मगर दिलचस्प दुनिया के बारे में पहली बार इतना जान पाया। बाघों के बारे में तो वो ऐसे चिन्ता करते हैं जैसे अपने घर के ही बच्चे हों वो।

एरोहेड - माँ के नाम पर कलंक

हमने जंगल में ही दोपहर का खाना खाया। हमारी जीप निकल ही रही थी कि ड्राइवर ने एरोहेड की तरफ़ इशारा किया। एरोहेड एक मादा बाघ है। इस पर अंशुल कुछ हैरान हुए। उन्होंने कहा, "इसके तो अभी अभी बच्चे हुए हैं। ये अपने बच्चों को छोड़ कर यहाँ क्या कर रही है। एक कपटी माँ है ये मादा बाघ। इसको तो माँ कहने का मन भी नहीं करता।"

जंगलों के अजब रहस्यमयी क़िस्से

आपने कभी कोई रहस्य सुलझाया है? आख़िर आप कितनी सज़ा मानते हो किसी बाघ की, जिसने एक इंसान को मार दिया? सालों पुरानी बात है, उस्ताद नाम के एक नर बाघ ने जंगल के ही एक गार्ड को मार दिया। अपने इस अपराध के लिए उसको जंगल से निकाल दिया गया। केस ख़त्म। वैसे कोई उस्ताद सच में ऐसा करता है क्या?, भगवान जाने। ऐसा बोलते हैं कि इससे पहले वो तीन और लोगों को मार चुका था। कुछ दिनों पहले ही सुल्तान नाम का बाघ उसके इलाक़े में घूमता नज़र आया था। अब ये भी हो सकता है कि असली अपराधी अभी भी जंगल में ही हो।

उस्ताद को रणथंबोर का पूरा स्टाफ़ बहुत इज़्ज़त देता था लेकिन इसके अलावा एक और मादा बाघ थी, जिसे ख़ूब प्यार और स्नेह मिला। मछली बुलाते थे उसे, रणथंबोर की रानी। इस समय बाघों की 60 फ़ीसद आबादी मछली के ही परिवार से आती है। 20 साल से भी ज़्यादा की उम्र पाई उसने। इतना शायद ही दुनिया में दूसरा कोई बाघ जीता है। उसकी मौत पर जंगल के पेड़ तक दुःखी थे। उसके दाह संस्कार पर ऐसा लगा जैसे कोई अपना चला गया।

बाघों को देखने के लिए रणथंबोर ही क्यों बेस्ट है

देखने को राष्ट्रीय पार्क पूरे भारत में हैं, सैंक्चुरी है, टाइगर रिज़र्व भी। लेकिन रणथंबोर के जैसे खुले घास के मैदान और सूखे पर्णपाती जंगल शायद ही कहीं और देखने को मिलें। यहाँ के बाघों को देखना इसलिए आसान भी है। लगभग 95 की आबादी हो गई है इस वक़्त यहाँ पर।

कैसे पहुँचें रणथंबोर

हवाई मार्गः रणथंबोर के सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा जयपुर, सांगानेर का है जो क़रीब 180 किमी0 दूर होगा। वहाँ से टैक्सी लगातार चलती हैं। दिल्ली से सांगानेर का हवाई किराया ₹1800 तक होता है।

रेल मार्गः सवाई माधोपुर रेलवे स्टेशन, पार्क से महज़ 14 किमी0 दूर। दिल्ली से सवाई माधोपुर का 3 टियर एसी किराया ₹1180 और स्लीपर किराया ₹230 होगा।

सड़क मार्गः दिल्ली से सवाई माधोपुर जाने के लिए आपको कुल 9 घंटे लगेंगे। बस का कुल किराया ₹500 तक होगा।

जाने का सबसे सही समय

अक्टूबर से जून के बीच जाएँ। नवम्बर से फ़रवरी के महीनों में मौसम सुहाना रहता है, हवा भी मद्धम मद्धम चलती है। तापमान भी लगभग 25 डिग्री तक होता है। वहीं मई जून में ये बढ़कर 45 डिग्री तक हो जाता है।

कहाँ रुकें

रणथंबोर हेरिटेज (₹1,200 में दो लोगों के लिए), जंगल व्यू रिसॉर्ट (₹5,000 में दो लोगों के लिए) को विकल्प में रख सकते हैं । ज़्यादा जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें।

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