मैं एक भारतीय नारी, पत्नी और दो बच्चों की माँ हूँ। मेरी सास भी मेरे साथ रहती है। मुझे अपनी ज़िन्दगी और इन सब से बहुत लगाव है पर कभी कभी मैं थक जाती हूँ इन सबका ख्याल रखते हुए। सुबह उठकर बच्चों को तैयार करने से लेकर उनको सुलाने तक, पति को उनके बिज़नेस में मदद करने में और सास की सेवा करने में कब महीने निकल जाते हैं पता ही नहीं लगता। रोबोट जैसा महसूस होता है। माँ बनने के बाद मेरे शौक भी काफी बदल गए हैं। मुझे किताबें पढ़ना काफी पसंद है पर अब मेरा खाली वक्त सोते हुए निकल जाता है। मेरा ट्रैवल करने का शौक इसलिए बचा रहा क्योंकि अपने पति के साथ गुज़ारे हुए 15 सालों में हम 15 नए देश घूम कर आए। अपने बच्चों को गोद से लेकर कंधे पर बैठाकर घुमाया है। मुझे इतना ज़्यादा पैकिंग और प्लानिंग करनी पड़ती है ताकि बच्चों को कोई तकलीफ महसूस ना हो। उनकी फ़िक्र करने के अलावा मेरे पास और कोई काम नहीं होता। थोड़ा स्वार्थी लगता है सुनने में पर मेरा अपना अनुभव उस ट्रिप का बहुत ही खराब हो जाता है।
मेरे पती ने आज तक मुझ कुछ करने से नहीं रोका। हर समय पर मेरा साथ दिया है। इस सब के बावजूद मैं उन से पूछे बिना कुछ नहीं करती। थोड़ा गुस्सा हो जाते हैं वो इस बात पर। मुझे भी लगता है कि अपनी ज़िन्दगी और ख़ुशी के फैसले करना मेरा हक है और ज़िम्मेदारी जो मैं सही से निभा नहीं पा रही हूँ। मुझे भी अनजानी गलियों में खो जाने का मन करता है जहाँ मैं यह ना सोचूँ कि बच्चे तो ठीक हैं।
सोलो ट्रैवल: प्रेरणा की तलाश
मैंने इसके बारे में और पढ़ना शुरू किया। बहुत महिलाएँ आजकल सोलो ट्रिप्स पर जा रही हैं और उनमें से कई सारी महिलाएँ शादीशुदा भी हैं। पर हमारे खानदान में दूर-दूर तक कोई लड़की अकेले घूमने नहीं गयी। मुझे तो पूछने में भी डर लग रहा था। कैसे मैं अपनी सास और अपनी माँ को यह बता पाऊँगी कि मैं अपने पती और बच्चों को छोड़ कर बाहर घूमने जाना चाहती हूँ। लोग क्या कहेंगे जैसे सवाल से मेरा सर चकरा रहा था पर मन में थोड़ा विशवास भी था। उसी विश्वास को दुगना किया मेरे पती ने। उन्होंने एहसास दिलाया कि मैं कुछ गलत नहीं कर रही और एक अच्छी बीवी, माँ की भूमिका काफी अच्छे से निभा रही हो।
बच्चों को छोड़ जाने का ग़म
मैंने अमेरिका जाने का फैसला किया क्योंकि मैं पहले भी वहाँ रह चुकी हूँ और काफी सारे दोस्त और रिश्तेदार वहाँ मौजूद हैं। एक माँ को हमेशा अपने बच्चों से दूर जाते वक्त दुःख होता है। मेरे छोटे बेटे ने मेरे जाने से पहले पूछा कि क्या वो साथ चल सकता है। मुझे अपने ख्यालात बटोरने में थोड़ा समय लगा। मैंने उसे कहा कि कभी कभी हम सबको एक दूसरे के बिना भी कुछ करने की कोशिश करनी चाहिए और इसी के लिए मैं इस बार अकेली जा रही हूँ। इसी के साथ मैंने सबको अलविदा कहा, उस दिन मैं दिल्ली एयरपोर्ट के बाथरूम में फूट फूट कर रोई थी।
फिर जब फ़्लाइट ने उड़ान भरी तो थोड़ा अच्छा लगा। इसके बाद मैं और मेरे 14 दिन थे। अकेले उस इकॉनमी क्लास में बैठकर वाईन पीते हुए मुझे ऐसी फीलिंग आ रही थी जैसे कि कोई मसाज कर रहा हो। बिना बच्चों को उठाये हुए करवट बदलने का भी अपना मज़ा है। जब घर फ़ोन किया तो सब ठीक थे। सास बच्चों का ख्याल रख रही थी और बच्चे अपनी शैतानियों में मंत्रमुग्ध थे। सर से एक बोझ तो हल्का हुआ यह सुनकर कि घर पर सब ठीक है। अब मैं अपने लिए जीना चाहती थी।
अपने आप से मुलाकात
मैं अपनी सुबह सैर से शुरू करती थी और अपना दिन बिलकुल भी प्लान नहीं करती थी। साइकल लेके गलियों में घूमना, झील के किनारे बैठना और बस खोये रहना। मेरे अंदर बसी हुई बेख़ौफ़ लड़की वापिस आ गयी थी। उस से मिलकर मैं काफी खुश थी। काफी वक़्त तो मैंने लोगों को देखते हुए गुज़ारा। जब तक ट्रिप ख़त्म होने को आया, मेरे अंदर की बिंदास लड़की बाहर वापिस आ चुकी थी और उस से मिलकर मैं काफी खुश थी।
अपनी ज़िन्दगी का एक अच्छा फैसला था इस ट्रिप पर जाना। मैं कोशिश करूँगी कि मैं और महिलाओं को प्रेरित कर सकूँ सोलो ट्रैवल के लिए। क्यों हम लोग अपने पर काटकर सिर्फ घर संभालें। हम कभी भी उड़ सकते हैं, जब मन चाहे।
मैं ख़ुशी ख़ुशी वापिस आयी और आते ही अपने बच्चों को गले लगा लिया। थोड़ा दूर जाकर मैंने खुदको पाया, इतना मुश्किल नहीं है। आप भी करके देखिये और Tripoto पर अपने एडवेंचर के बारे में ज़रूर लिखियेगा।
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