" बलिहारी कुदरत वसिया तेरा अंत न जाए लखिया "
अंतिम अंश
8 जून 2019 से 10 जून तक
8 जून सुबह को हम रीठा साहिब से देवधुरा गए, नाश्ता वही किया। फिर हम " वाराही माता " के मंदिर गए।
“वाराही मंदिर” उत्तराखण्ड राज्य के लोहाघाट नगर से 60 किलोमीटर दूर स्थित है। शक्तिपीठ माँ वाराही का मंदिर जिसे देवीधुरा के नाम से भी जाना जाता हैं,समुद्र तल से लगभग 1850 मीटर (लगभग पाँच हजार फीट) की उँचाई पर स्थित है । देवीधुरा में बसने वाली “माँ वाराही का मंदिर” 52 पीठों में से एक माना जाता है।बताया जाता है कि रुहेलों के आक्रमण के समय कत्यूरी राजाओं द्वारा वाराही की मूर्ति को घने जंगल के मध्य एक भवन में स्थापित कर दिया गया था। धीरे-धीरे इसके चारो ओर गांव स्थापित हो गये और यह मंदिर लोगों की आस्था का केन्द्र बन गया । यह भी बताया जाता है कि पहाड़ी के छोर पर खेल-खेल में भीम ने शिलायें फेंकी थी।ग्रेनाइट की इन विशाल शिलाओं में से दो शिलायें आज भी मन्दिर के निकट मौजूद हैं। जिनमें से एक को राम शिला कहा जाता है , इस स्थान पर ‘पचीसी’ नामक जुए के चिन्ह आज भी मौजूद हैं । जनश्रुति के अनुसार यहां पर पाण्डवों ने जुआ खेला था | उसी के समीप दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं।
वैसे तो हम ने नैनीताल जाना परन्तु ट्रैफिक जाम होने के हम मुक्ततेशवर गए।
मुक्तेश्वर उत्तराखण्ड के नैनीताल जिले में स्थित है। यह कुमाऊँ की पहाडियों में 2171 मीटर पर स्थित है।
यहाँ से नंदा देवी, त्रिशूल आदि हिमालय पर्वतों की चोटियाँ दिखती हैं। यहाँ एक पहाड़ी के ऊपर शिवजी का मन्दिर है जो 'मुक्तेश्वर मंदिर' के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग 100 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। यहां भगवान शिव के साथ ब्रह्मा, विष्णु, पार्वती, हनुमान और नंदी जी भी विराजमान हैं।
मन्दिर के पास चट्टानों में चौली की जाली है। इसे 'चौथी की जाली' भी कहते हैं। ये जगह मुक्तेश्वर मंदिर के साथ ही है। यहां भी पहाड़ की थोड़ी-सी चढ़ाई करके पहुंचा जा सकता है। ऐसा विश्वास है कि यहां देवी और राक्षस के बीच युद्ध हुआ था। ये एक पहाड़ की चोटी है जिसकी सबसे ऊपर वाली चट्टान पर एक गोल छेद है। कहा जाता है कि अगर कोई निःसंतान स्त्री इस छेद में से निकल जाए तो उसे संतान की प्राप्ति होती है। पहाड़ की चोटी से घाटी का सुंदर नजारा दिखता है।
यहां इंडियन वेटरनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट है जहां जानवरों पर रिसर्च की जाती है। ये इंस्टीट्यूट सन् 1893 में बनवाया गया था।
वैसे तो यहां साल में कभी भी जाया जा सकता है परंतु यहां जाने का उचित समय मार्च से जून और अक्टूबर से नवंबर तक है। अगर गर्मियों में यहां जाएं तो हल्के ऊनी कपड़े और सर्दियों में जाएं तो भारी ऊनी कपड़े साथ ले जाएं।
गर्मियों में यहां का अधिकतम तापमान 30 डिग्री सेल्सियस और न्यूनतम 15 डिग्री और सर्दियों में अधिकतम तापमान 23 डिग्री सेल्सियस और न्यूनतम 0 डिग्री सेल्सियस तक रहता है। जनवरी में यहां बर्फबारी भी हो जाती है।
मुक्तेश्वर के आस-पास देखने के लिए ढेर सारी जगह हैं। यहां से अल्मोड़ा, बिन्सर और नैनीताल पास ही हैं।मुक्तेश्वर उत्तराखंड का एक खूबसूरत हिल स्टेशन है जो दिल्ली से करीब 350 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
रेलमार्ग से जाना चाहें तो दिल्ली से काठगोदाम तक सीधी रेल सेवा है। काठगोदाम से आगे मुक्तेश्वर तक का 73 किलोमीटर का सफर पूरा करने के लिए काठगोदाम से ही बस या टैक्सी आसानी से मिल जाती हैं। अगर वायु मार्ग से जाना चाहें तो नजदीकी हवाईअड्डा पंतनगर है जो मुक्तेश्वर से लगभग 100 किलोमीटर पहले है।
फिर हम नौकुचियाताल गए, दोपहर का खाना खाने के बाद भीमताल गए। ट्रैफिक जाम ज्यादा होने के कारण ,हल्द्वानी से होते हुए रामपुर पहुंचते-2 रात हो गई। रामपुर में किसी भी होटल में कोई कमरा खाली नहीं था, इसलिए हम रात को चलते रहे करीब 1:30 बजे काशीपुर गुरूद्वारा साहिब आ गए, गुरूद्वारा साहिब के दीवान हाल में विश्राम किया। फिर सुबह वापसी के लिए चल पड़े। रास्ते में करनाल में " करणा झील " देखी। रात को पटियाला में मामा जी के घर रह कर 10 जून को हम बाघा पुराना घर पहुंच गए।
धन्यवाद।