हर की दून: उत्तराखंड में ट्रेकिंग का मज़ा!

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अक्टूबर के महीने की बात है। मैं दिल्ली के एक ऑफिस में काम कर रहा था। कॉलेज के दोस्तों के वॉट्सऐप ग्रुप में घूमने का प्लान बना। ट्रेकिंग करने के लिए उत्तराखंड के हर की दून की बात चली। 30 में से सिर्फ 10 लोगों ने ही हाँ की।

टिकट बुक करवाने की बात आई तो सिर्फ 5 लोग बचे। मैंने रेड बस से बुकिंग करवाने के लिए पैसे मांगे तो मेरे समेत सिर्फ 4 लोगों के पैसे आए।

शुक्रवार शाम को बस अड्डे सिर्फ 3 लोग पहुँचे। बहुत बढ़िया, क्योंकि हम तीन ही थे जिन्हें ट्रेकिंग करना पसंद भी था, जिनके पास वक़्त भी था और जो बात के भी पक्के थे।

ऐसे लोगों के साथ ही घूमने का मज़ा आता है। बाकी कचरे-पट्टी लोग को तो साथ में ढोना ही पड़ता है, जैसे हमने ट्रेकिंग करते हुए कई लोगों के ग्रुप में देखा।

Photo of हर की दून: उत्तराखंड में ट्रेकिंग का मज़ा! 1/5 by सिद्धार्थ सोनी Siddharth Soni

कहानी की शुरुआत हुई दिल्ली से देहरादून जाने वाली वॉल्वो में बैठने से।

रात को चली बस ने सुबह पौ फटते ही देहरादून उतार दिया।

देहरादून से सांकड़ी गाँव की बस ली, जो पुरोला के रास्ते होकर सांकड़ी पहुँचाती।

पुरोला पहुँचने पर कंडक्टर ने बताया कि यहाँ जिसको ए.टी.एम से पैसे निकालने हैं, निकाल लो फिर आगे कुछ नहीं मिलेगा। सही कह रहा था वो। सांकड़ी गाँव के आगे से ट्रेक शुरू हो जाता है।

देर शाम हम सांकड़ी पहुँचे, कमरा लिया और सो गए। सांकडी गाँव में रहने के लिए कमरे, होटल, होमस्टे, सब मिलेगा।

सांकड़ी से हर की दून जाने के लिए रास्ते में तीन गाँव आते हैं।

सांकड़ी - तालुका - सीमा - ओसला - हर की दून

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सुबह 9 बजे नाश्ते के बाद हम तालुका जाने के लिए जीप में बैठ गए। तालुका तक कच्ची सड़क बनी है, तो जिसका मन है वो ट्रेकिंग कर लो, जिसे तालुका से चढ़ाई करनी है वो जीप से पहले तालुका पहुँच जाओ। 20 मिनट में जीप ने हमें तालुका पहुँचा दिया, जहाँ गोविन्द बल्लभ पंत नैशनल पार्क का बोर्ड हमें हर की दून की और आने के लिए नमस्कार कर रहा था।

हर की दून घाटी का जंगल गोविन्द बल्लभ पंत नैशनल पर में आती है।

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तालुका से हर की दून 28 कि.मी. का रास्ता है, जिसे आप चाहो तो एक दिन में पूरा खींच दो। नहीं तो आराम से दो दिन में रुकते-रूकाते ट्रेक करो। हम लोगों ने रुकते रुकते ट्रेक करने का सोचा था।

तालुका से 14 कि.मी. दूर सीमा और ओसला गाँव आते हैं, आप चाहे जिस गाँव में रुक सकते हो।

रास्ते की खूबसूरती कैसे बताऊँ, वो तो आप खुद सोच सकते हो। बर्फीले पहाड़ इतने पास की हाथ बढ़ाओ तो छू लो। घाटी में बहती नदी रास्ता दिखाती रहती है। हरे-भरे पेड़ों से आती ताज़ी हवा थकने नहीं देती।

14 -15 कि.मी. चढ़ने के बाद हम ओसला पहुँचे और यहाँ के लोकल के घर में ठहर गए। रुकने का किराया कुछ ख़ास नहीं, एक आदमी के बस ₹200, जिसमें रात का खाना, चाय-गरम पानी शामिल था।

रात के खाने में थी कल्ली की सब्जी। कल्ली बिच्छू घास को कहते हैं। आप अगर इस घास को ऐसे छु लो तो छाले हो जाते हैं। मगर पहाड़ी लोगों को इस घास की सब्जी बनाना बखूबी आता है।

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सब्जी का स्वाद ऐसा जैसा पहले कभी नहीं चखा। आप इसके स्वाद को किसी और चीज़ के साथ नहीं जोड़ सकते। काफी अलग स्वाद। मतलब काफी ही अलग।

सुबह उठकर चाय-डबल रोटी के नाश्ते के बाद ओसला से आगे बढे। ओसला से हर की दून की दूरी करीब 13 कि.मी. की है।

ये 13 कि.मी. खड़ी चढ़ाई के हैं। मगर रास्ता इतना प्यारा है कि मज़ा आ जाएगा। कभी 'दिलवाले दुल्हनियाँ ले जाएंगे' की जैसे पीले फूलों के पहाड़ी खेत दिखेंगे, तो कभी झरने, तो कभी यूँही पड़ी सफ़ेद बर्फ।

शानदार, जबरदस्त, जिंदाबाद

सुबह के चले हम तीनों आराम से चढ़ते हुए शाम तक हर की दून समिट पर पहुँच गए। समिट पर रुकने के लिए लकड़ी के घर बने हैं। ₹220 में रुकने के कमरे से लेकर गद्दे-रज़ाई सब मिल जाते हैं। हम तीनों ने एक कमरा ले लिया और आग जलाने के तरीके ढूँढने लगे।

खूब देर मशक्कत करने के बाद एक जर्मन जोड़े ने हमारी मदद की। उनके देश में आधे से ज़्यादा साल बर्फ रहती है तो इस कला में तो उन्हें महारथ हासिल है।

रात को तारे ऐसे लग रहे थे मानों दूर कहीं किसी ने खूब सारे एल.इ.डी बल्ब जले छोड़ दिए हों। तारों तले बैठे हमने ठिठुरते हाथों से गरमा-गर्म राजमा चावल की प्लेट पकड़ी और मिनटों में साफ कर दी।

रात को गद्दे पर लेटते ही नींद आ गयी। सुबह उठ कर मञिंदा ताल की और निकल गए मगर वो कहानी अगली बार सुनाऊँगा।

-आज़ाद परिंदा सिद्धार्थ 


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