सितंबर 2015 का महीना था. 2 महीने लेह में रहने के बाद छुट्टी में घर आया. कुछ दिन घर अल्मोड़ा रहने के बाद बच्ची और पत्नी के साथ ससुराल गोपेश्वर गया. वहाँ पता चला की पास के ही गाँव मै देवी की पूजा होने वाली है और ये पूजा 54 साल बाद हो रही है. देवी की डोली पूरे विधि विधान से नंदीकुंड जाएगी.
ये यात्रा वैसे छोटी राजजात यात्रा भी कहलाती है लेकिन 54 साल बाद हो रही है. मन तो बहुत कर रहा था इस यात्रा मे जाने का लेकिन जुलाई अंत में लेह मे जो दुर्घटना हुई थी मेरे साथ उस से पैर मे अभी भी बहुत दर्द था. पैर में हेयर लाइन फ्रेक्चर था. फिर भी सोचा चलो पूछ ही लेते है कितनी लंबी यात्रा है. जब पूछा तो पता चला ये यात्रा करीब 130 km लंबी है. यात्रा लंबी थी सो पूरी तरह फिट होना भी जरूरी था. पूरी तरह फिट तो मै था नहीं किन्तु बहुत सुना था नंदीकुंड के बारे मै इस लिए जाने का बहुत मन था. पैर में हेर लाइन क्रैक था. पैर दर्द को दर किनार करते हुए मैंने फैसला लिया की मै जाऊंगा तारा सिंह जरूर जाएगा. पहले दिन 7 सितंबर को हम लोग गोपेश्वर के पास के एक गाँव से पूजा कर के करीब 2 बजे निकले आज हमारा पड़ाव था ल्वीटी बुग्याल.
यात्रा दल बहुत लम्बा था इस लिए ल्वीटी जाते हुए थोड़ा ज्यादा समय लग गया करीब 7 बजे हम लोग ल्वीटी पहुच गये. ल्वीटी बुग्याल में हम लोगो ने मोहन दा की दुकान मै डेरा डाला. मोहन दा पहचान के थे इस लिए ज्यादा कोई दिक्कत नहीं हुई. रात भर हम लोगो ने देवी के भजन और आरती गायी.
8 सितंबर ल्वीटी बहुत सुहानी सुबह थी. हम लोग करीब 9000 फीट की ऊंचाई पे थे. नीचे गोपेश्वर शहर हल्के हल्के बदलो से ढका हुआ था ऊपर पहाड़ों में हल्की धूप थी चिड़ियाँ चहचहा रही थी पास से ही फूलो की बहुत प्यारी सी खुशबू आ रही थी. अंदर से ऐसा महसूस हो रहा था की आज का दिन बहुत अच्छा जाने वाला है. हल्का नाश्ता कर के हम लोग चल दिए अपने अगले पड़ाव डुमक गाँव की ओर.
ल्वीटी बुग्याल से कुछ दूर चलने के बाद हमको फूलो से भरी एक छोटी घाटी दिखी. बहुत ही ज्यादा सुंदर थी वो मन कर रहा था वहाँ ही सो जाये उन फूलो और घास के ऊपर कुछ पल. उस जगह का नाम था टाडवाग, मंजिल अभी दूर थी इस लिए जाना मजबूरी था.
वहाँ से कुछ दूर चलने के बाद हम पहुच गये पनार बुग्याल जिसका इन्तज़ार मुझे बहुत दिनो से था. वहाँ से सुंदर हिमालया का नजारा देखना जो था लेकिन हाई रे किस्मत मौसम बिल्कुल साफ नहीं था पनार के आस पास बहुत धुंध छाई थी जिस वजह से हिमालया दर्शन दुर्लभ थे. जिसका इंतज़ार किया था वो नजारा देखने को नहीं मिला.
निराशा हाथ लगी बस. कुछ लोग कल्पेश्वर के आस पास के गाँव से भी आने वाले थे इस लिए हम उनके इंतज़ार मे वहाँ ही बैठ गये. कुछ समय बाद थोड़े समय के लिए मौसम ने थोड़ा करवट ली धुंध हाथी घोडा पर्वत के पास से हटी और मेरे लिए इतना समय काफी था अपने कैमरे को काम देने के लिये.
2 महिलाएं भी अब हमारी यात्रा मे शामिल हो गयी थी. पनार के बाद हम चलते हुए पहुचे तोली खर्क. वहां पे एक सुंदर सा तालाब था. वहाँ ही बैठ के हम लोगो ने कुछ देर आराम किया और दिन का खाना भी हम लोगो ने वहां ही किया. कुछ समय बाद एक और देवी की डोली ने हम लोगो को वहाँ पे संबद्ध किया. वहाँ पे एक देवताओ का छोटा नृत्य भी हुआ जिसको देख के गाँव में होने वाले जागर की याद आ गयी.
जागर के बारे में जानने के लिए आप गूगल कर सकते हैं. लंच के बाद छप्पर कूड़ा से मैना गाड़, पाचूली होते हुए हम पहुच गए डुमक गाँव जो हमारा आज रात्री का पड़ाव था. वहाँ रहने और खाने की व्यवस्था गाँव वालों की तरह से थी इस लिए आज टेंशन थोड़ा कम थी . वहाँ शाम को देवता मिलन का नृत्य हुआ जिसका हमने बहुत आनंद लिया. आज तक की यात्रा तो कम ही थी इन्तेहाँन तो कल से शुरू होगा ऐसा बोलना था लोगो का. जल्दी से रात्रि भोजन कर के हम लोग सो गए. अब कल का इंतज़ार था.
डुमक गाँव की सुबह बहुत ही मस्त थी धूप बहुत ही अच्छी थी. गाँव का माहोल था गाय, भैंस, मुर्गियां सुनहरी धूप और एक कप चाय. मन प्रसन्न था, आज अच्छा खासा ट्रेक भी करना था. कुछ खा के हम लोगो ने दुमक गाँव के लोगो का धन्यवाद किया और वहां से विदाई ली. पहले 2 दिन के मुकाबले में आज का ट्रेक दोगुना था.
आज करीब 30 KM का ट्रेक करना था और चडाई भी बहुत विकट थी. दुमक गाँव पार करते ही चडाई शुरू हो गयी. चडाई बिल्कुल खड़ी थी. ऐसी चडाई मैंने आज तक किसी भी ट्रेक मे नहीं देखी बस एक बात ये अच्छी थी की समुद्र तल से ऊंचाई कम थी. गाँव के बाद का करीब 2 km का रास्ता घास वाला था उसके बाद हमको घना जंगल पार करना था. जो करीब 4 km का था.
जंगल के बीच मे ही था नंदा मंदिर. उसके बाद हम पहुचे नौण्या विनायक. वहाँ पे कुछ देर पूजा और विश्राम कर के हम पुनः चल दिए ढोलडार उड़यार के लिए जहाँ आज हमारा रात्रि विश्राम था. अभी तो हम चले ही कहाँ थे अभी तो बहुत दूर जाना था. चलते चलते हम लोगो के साथ चल रहे सब लोग अलग अलग समूह मे बट गए. ये समूह उम्र, धीरे धीरे चलने, तेज़ चलने और बातो के हिसाब से बट गये थे. हमारा समूह जो था वो बीच मे था. नंदीकुंड यात्रा की सरकार ने एक कमेटी भी बनायी थी जिसका काम था रास्ते को अंकित करना खाने पीने की व्यवस्था देखना . इस कमेटी के कुछ सदस्य पहले ही ढोलडार उड़यार पहुच चुके थे.
उन लोगो ने यात्रियों के लिए वहां पहले से ही टेंट गाड़ दिए थे बस हमको आज उन टेंट तक पहुंचना था. कान्टी होते हुए हम लोग चुवी खर्क पहुचे. जिस रास्ते पे हम लोग चल रहे थे वो रास्ता था ही कहाँ बस जंगल झाड़ी घास से निकलते हुए हम रास्ता खोज खोज के बस चल रहे थे बीच बीच मे तीर के निशान रास्ते को अंकित कर रहे थे.
वहां बातो बातो मे हमारे एक चाचा जी ने ये बताया की 2013 की आपदा के समय पे उनके 2 बेटे यहां पे कीड़ा जड़ी की तलाश में टेंट लगा के रह रहे थे. आपदा की सूचना मिलते ही रातो रात उनको वहां से भागना पड़ा. अगली सुबह तक वहाँ सब तहस नहस हो चुका था सही बोलते है जाके राखो सइयां मार सके न कोई. वहाँ से सीधा हम पहुचे आज की मंजिल ढोलडार उड़यार. वहां एक टेंट मे हम लोगो ने अपना सामान डाला और गरम गरम चाय का मजा लिया. जब सारे लोग वहाँ पहुचे तो वहां पे भी पूजा हुई फिर उसके बाद रात्रि भोजन के बाद जल्द ही सब सो गए क्यूकि अगले दिन की शुरुआत रात को 2 बजे से जो होने वाली थी.
कभी लगता था की भटक गए फिर जैसे ही थोड़ा चलते तो पहले वाला समूह विश्राम करता मिल जाता तो मन को शांति मिलती. फिर हम लोग पहुचे फोण्डार. कुछ जानकार लोगो की मदद से ये पता चला की यहां से एक रास्ता बद्रीनाथ के लिए जाता है. वहां से सामी भीरूड़, गोदीयाता खर्क, गाड़ होते हुए हम पहुचे मनपयी बुग्याल.
वहां बातो बातो मे हमारे एक चाचा जी ने ये बताया की 2013 की आपदा के समय पे उनके 2 बेटे यहां पे कीड़ा जड़ी की तलाश में टेंट लगा के रह रहे थे. आपदा की सूचना मिलते ही रातो रात उनको वहां से भागना पड़ा. अगली सुबह तक वहाँ सब तहस नहस हो चुका था सही बोलते है जाके राखो सइयां मार सके न कोई. वहाँ से सीधा हम पहुचे आज की मंजिल ढोलडार उड़यार. वहां एक टेंट मे हम लोगो ने अपना सामान डाला और गरम गरम चाय का मजा लिया. जब सारे लोग वहाँ पहुचे तो वहां पे भी पूजा हुई फिर उसके बाद रात्रि भोजन के बाद जल्द ही सब सो गए क्यूकि अगले दिन की शुरुआत रात को 2 बजे से जो होने वाली थी.
रात को 2 बजे टेंट के बाहर कुछ आहट सी लगी. बगल में सोए चाचा जी बोले जवाई साहब उठो और फ्रेश हो लो चलने की तैयारी करनी है. बाकी सारे लोग तैयार थे एक मै ही सब से बड़ा आलसी था वहाँ पे. कुछ समय बाद मै भी तैयार हो गया आज का ट्रेक करने के लिए. इस ट्रेक से पहले मैंने अपनी जिन्दगी में कुछ गिने चुने ही छोटे मोटे रुद्रनाथ और तुंगनाथ जैसे दिन मे होने वाले ट्रेक ही किए थे.
तो मेरे पास हेड मोउन्टिंग टॉर्च भी नहीं थी बस एक छोटी सी साधारण टार्च ही थी. हम लोगो ने वहां से अपना सारा सामान लिया और चल दिए कुछ लोग अपना बैग वहाँ ही छोड़ गये उन लोगो की वापसी वहां से ही थी लेकिन हमारा प्लान कुछ और ही था. हमारा प्लान था मद्महेश्वर हो के वापसी का.
साथ चल रहे लोगो के अनुसार रास्ता बहुत ज्यादा खतरनाक था एक ओर पहाड़ था तो दूसरी ओर बहुत भयानक खायी थी मुझे संभल के चलने की हिदायत दी गयी थी . घना अंधेरा था तो मुझे रास्ते के अलावा कुछ नहीं दिखायी दे रहा था बार बार मै अपनी टार्च को खायी की ओर लगा के खायी की गहराई देखने की कोशिश कर रहा था लेकिन टार्च की लाईट में उतनी शक्ति नहीं थी और ये मेरे लिए भी अच्छा था बिना डर के मै चल रहा था. बीच में एक दो नाले भी हम लोगो ने पार किए. एक जगह रास्ता बहुत ज्यादा ही बेकार था वहाँ पे एक दूसरे की मदद से हम लोग आगे बड़े. पहले हम पंचपाई पहुचे जहाँ छोटी जात का मंदिर था. उसके बाद हम लोगो ने वालतूरा गाड़ को क्रॉस किया. सूरज की पहली किरण के साथ ही हम लोग पहुच चुके थे भैरो मंदिर.
वहाँ से हम लोग ब्रम्हा वैतरणी पहुचे वहाँ हम लोगो ने बहुत आराम किया मैंने तो एक नीद भी मार ली. वहाँ बहुत देर तक पूजा होती रही. ब्रह्म वैतरणी में पता चला की मद्महेश्वर से जाना आज संभव नहीं है कुछ समस्या थी उस रास्ते से जाने मे हम लोगो ने आपसी सहमति से अपने अपने बैग वहाँ ही छोड़ देने का निर्णय लिया.
वहाँ पे ही एक चट्टान थी हम लोगो ने उस चट्टान के नीचे ही अपना बैग रख दिया और चल दिए घियां विनायक दर्रे के लिए. घिंया विनायक जाने में दो समस्याएं थी पहली तो 17224 फिट ऊंचाई की चडाई और दूसरी उस चडाई मे स्थित बड़े बड़े पत्थर के टुकड़े जो घिया विनायक को सब की पहुच से दूर कर रहे थे. हम सब की प्रेरणा का स्रोत था हम लोगो के साथ चल रहा एक 65 साल का जोड़ा.
उन लोगो से बात करते करते कब हम लोगों ने उस चडाई पे फतह पा ली पता ही नहीं चला. घियाविनायक दर्रे के ठीक ऊपर बैठ के आराम करते हुए मैंने उनदोनों की जीवन की जैसे पूरी कहानी ही उन दोनों से सुन डाली उनदोनों से मिल के मन बहुत प्रसन् था. दोनों की जोड़ी बहुत ही प्यारी थी. कुछ देर बाद मेरा 65 साल के एक और उम्रदार व्यक्ति से मिलन हुआ जो संयोग से मेरी ही तरह मेहता था वो भी अल्मोड़ा का ही.
उन से बात हुई तो उन्होने बताया कि अंतिम वर्ष भी उन्होने नंदीकुंड का प्रयास किया था किन्तु घियाविनायक दर्रे मे बहुत बर्फ बारी के कारण वो प्रयास असफल रहा. इस वर्ष उन्होने निश्चय कर लिया था चाहे जो हो इस बार तो नंदीकुंड जाना ही जाना है. फिर हम पहुचे कैलवा विनायक वहाँ पहुचते ही हमको दर्शन हुए अद्भुत हिमालयी पुष्प और उत्तराखंड के राज्यीय पुष्प ब्रह्मकमल के.
पहली दफा देखे थे मैंने वो. उत्तराखंड में ब्रह्मकमल का बहुत ज्यादा महत्व है. ये दुर्लभ पुष्प 12000 फीट से 18000 फीट तक की ऊंचाई मे ही पाए जाते है और इनके होने का समय है अगस्त से 15 सितम्बर तक. ये पुष्प दिन में बंद रहते है और आधी रात को खिलते है कहते है इनको खिलते समय देखने वाला जो भी मांगता है वो पूरा हो जाता है. इन फूलो को तोड़ने के भी कुछ नियम हैं. वहाँ पे ब्रह्मकमल बहुत मात्रा मे थे. वहाँ हम लोगो ने कुछ फैन कमल भी भी देखे. मै बहुत देर तक ब्रह्मकमल के साथ लेटा ही रहा और फ़ोटोग्राफ़ लेता रहा. वहाँ से ही हमको नंदीकुंड की पहली झलक भी मिली देख के ही दिल में गिटार बज गये. जल्दी से हम लोग पहुँच गए अपनी ड्रीम डेस्टिनेशन नंदीकुंड. नंदीकुंड बहुत ही सुंदर लग रहा था पानी बिल्कुल साफ था. गहरा भी बहुत था इस लिए हरा लग रहा था. वहां से चौखम्बा पर्वत पास मे ही था लेकिन मौसम साफ न होने की वजह से दिखायी नहीं दे रहा था. हम लोग 11 बजे से ले के 1 बजे तक नंदीकुंड में थे.
वहां देवता लोग का पूजन हुआ और स्नान भी हुआ. पूरी पूजा हो जाने के बाद हम सब लोग 1 बजे वहाँ से लौट गए. समय कम था और आज हम लोग कहाँ रुकेंगे ये भी हमको पता नहीं था. हम लोग जिन्होने अपना बैग ब्रम्हा वैतरणी में छोड़ा था वो लोग समूह से अलग हो के रुद्रनाथ के रास्ते जाने वाले थे. इस लिए हमारा आज का कोई ठिकाना नहीं था. हमारे पास में कुछ टेंट थे तो सोचा था जहाँ सही लगेगा वहां टेंट लगा लेंगे. जल्दी ही हम घियाविनायक होते हुए ब्रम्हा वैतरणी पहुच गए. वहां से अपना बैग लिया और चल दिए. थोड़ा नीचे पहुँच के रुद्रनाथ का रास्ता अलग हो गया. वहां से तमूंडी होते हुए हम पहुचे धीग.
वहां पे कुछ वन विभाग के लोग अपना टेंट लगा के रह रहे थे. वो लोग वन विभाग की आवा जाही के लिए रुद्रनाथ - नंदीकुंड ट्रेक का निर्माण कर रहे थे. हमलोगो ने रात को वहां ही ठहरना उचित समझा. उन लोगो के टेंट के साथ ही हम लोगो ने अपने टेंट लगा लिए. नंदीकुंड में बकरी की बलि भी दी गयी थी तो उसका कुछ हिस्सा हम लोग अपने लिए ले आए थे. हम लोगो ने वो हिस्सा वन विभाग के लोगो को रात्रि भोजन बनाने के लिए दे दिया. रात को हम लोगो ने वो ही बकरी भोज किया और सो गए.
अगली सुबह फिर वो ही प्यारी सी धूप. दूर पर त्रिशूली पर्वत धूधला सा दिखायी दे रहा था अब ट्रेकिंग बहुत हो चुकी थी तो मन था जल्दी जल्दी घर पहुचें और घर का खाना खाये. करीब 7 बजे हम लोग धींग से निकल चुके थे. रास्ता नया था और हम लोगों मे से कोई भी इस रास्ते से रुद्रनाथ गया नहीं था. बस हमको चलते जाना था. हम लोगो के पास कुछ ड्राइ फ्रूट्स बचे हुए थे और कुछ मैगी के पैकेट थे. हम लोगो का टारगेट था जल्दी से रुद्रनाथ पहुंचना. जिस रास्ते हम चल रहे थे वो रास्ता बहुत सुन्दर था. सुन्दर इस लिए भी था क्यूकि वो सितम्बर का महीना था. अगर हम उस रास्ते में जून में भी चल रहे होते तो हम लोग उस रास्ते चल नहीं पाते पूरा रास्ता बर्फ से पटा मिलता .
कुछ दूर गये तो वहाँ पीछे का पहाड़ पूरा हरा था और ऊपर से बिल्कुल नंगा था हरियाली थी न बर्फ. ग्लेशियर था सूखा हुआ. लग रहा था पहाड़ की बर्फ अभी अभी सुखी है. उस रास्ते में हम लोगो ने 3,4 झरने भी पार किए. करीब 8 km जा के हम लोग कुछ देर बैठ गए और हम लोगो ने अपने अपने बैग भी नीचे रख दिया. अब समय था हिमालया के बारे में ग्यान लेने का और मैगी बना के खाने का . सब लोग अपना अपना ग्यान बांट रहे थे और मै ध्यान लगा के सारा ग्यान बटोर रहा था .
मुझे ज्यादा पता नहीं था उस समय तक हिमालया के बारे मै मुझे सुनना इतना अच्छा लग रहा था की मन कर रहा था की बैठा ही रहूँ और बात सुनता रहूं और हो सके तो नोट भी कर लूँ. एक चाचा जी बता रहे थे की हिमालय में ऐसी ऐसी जड़ी बूटियों है अगर एक बार आप खा लो तो महीनो तक आप को कुछ खाने की जरूरत नहीं है. ये भी पता चला की जड़ी बूटियों आपस में बात भी करती हैं.
कोई कोई जड़ी ऐसी है जो रात में बहुत चमकती हैं. हम लोगो के पीछे एक ऊंचा पहाड़ था एक चाचा जी ने बताया की ये पहाड़ के उस पार है देवताल जो बहुत सुन्दर है. मन तो ये कर रहा था की दौड़ के पहाड़ के ऊपर चड़ जाऊ और एक नजर देवताल को भी देख लूँ लेकिन ये थोड़ा मुश्किल था. यात्रा मे थकान बहुत हो चुकी थी. करीब 1 घंटा वहां रुकने के बाद हम फिर से चल दिए. गैरा, माठा चाढ़ा, माठा मंदिर, सरस्वती कुंड होते हुए पहुच गए.
शाम को रुद्रनाथ जी की आरती मे गये. रात्रि को वहाँ ही रुके. अगले दिन रुद्रनाथ से देवदर्शनी, पंचगंगा, पितृधार, पनार, ल्वीटी और पुंग बुग्याल होते हुए पहुच गये ग्वाड इस तरह हम लोगों ने अपनी ये यात्रा सफलता पूर्वक सम्पन्न की. ये यात्रा पूरी 130 km की थी. पूरी यात्रा मे बहुत कुछ सीखने को मिला. हिमालया की बहुत जानकारी मिली. इस सफर ने मेरी जिन्दगी बदल दी. ये एक अलग अनुभव था मेरे लिए इस यात्रा के बाद हिमालया मेरा दूसरा घर हो गया. इसके बाद से मैंने बहुत से ट्रेक कर लिए और सफर आगे भी जारी रहेगा. एक बार और ये पूरा ट्रेक पैर दर्द की वजह से मैंने चप्पल में ही किया. घर आ के उस चप्पल को धन्यवाद भी कहा. इस तरह टूटे पैर में भी मैंने 130 km का ट्रेक कर डाला.
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