* गोरखपुर से धर्मशाला *
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मैंने 28 सितम्बर 2017 के दिन गोरखपुर से दिल्ली जाने वाली गोरखधाम एक्सप्रेस में आरक्षण करा लिया था। अब इंतजार था यात्रा के दिन का। खैर वो दिन भी आ गया। मैंने अपना बैग उठाया और गोरखपुर ट्रैन पकड़ने के लिए घर से चल पड़ा।मेरा घर गोरखपुर से 60 km. दूर है।
घर से गोरखपुर पहुचने में डेढ़ दो घंटे लगते है। 4.35 ट्रैन का प्रस्थान समय है।किसी तरह दस मिनट पहले स्टेशन पहुचाँ और भागते भागते अपने डब्बे तक पहुँच कर चैन की साँस ली। ट्रैन की यात्रा में कोई विशेष बात नहीं थी। एक साधारण सी यात्रा जिससे मैं सुबह 7.00 बजे दिल्ली पहुँच गया।
दिल्ली पहुँच कर मैं अपने दुकान के काम में व्यस्त हो गया और रात को मार्किट के ही एक होटल में सो गया। अगले दिन दुकान का बाकी काम निबटा कर शाम को राजन को फ़ोन करने लगा तो पता चला की उसे अभी बैंक में कुछ काम है देर लगेगी। उसने मुझे अपने कमरे पर बुला लिया। शाम को करीब 6.00 हम दोनों लोग मजनू का टीला जहाँ हिमांचल जाने के लिए प्राइवेट वॉल्वो बसे चलती है पहुँच गए। राजन ने पहले से ही एडवांस बुकिंग करा ली थी। मैंने राजन से पूछा भाई साधारण बस की टिकट ले लेता तो उसने कहा रस्ते में ही थक जाओगे तो वहां कहाँ घुमोंगे। मैंने भी सोचा समय कम है, कम से कम रात आराम से तो कटेगी। 8.00 बजे के करीब धर्मशाला जाने वाली हमारी बस आ गयी, न तो मैंने न ही राजन ने दोपहर में कुछ खाया था। इस लिए वही बस स्टेशन पर हम लोगो ने एग रोल खाये। भूखे तो थे ही इस लिए कुछ बिस्किट के पैकेट और नमकीन रस्ते के लिए रख लिए गए।
आधे घंटे में बस स्टार्ट हो गई , चूँकि रात हो गई थी इसलिए खिड़की के बाहर देखने लायक कुछ खास नहीं था। तो हमने भी कम्बल ताने और सो गए। रात में करीब 11.30-12.00 बजे के करीब एक ढाबे पर बस रुकी जिन्हें खाना था वो बस से उतर लिए। अब तक हमारे पेट में भी एग रोल दम तोड़ चुके थे सो हम भी खाना खाने ढाबे में पहुच गए खाना बहुत टेस्टी तो नहीं था पर बिल बहुत तगड़ा था। खैर पेट भर गया तो सबेरे धर्मशाला में ही आँख खुली।
हम करीब 7.00 बजे सुबह धर्मशाला में थे।धर्मशाला से धौलाधार की पहाड़ियां एक दम करीब है। बस से उतरते ही आँखों के सामने धौलाधार की पहाड़ियों को देख कर सारी थकान गायब हो गई। मन इस उमंग से भर गया कि इन्ही पहाड़ियों में कही त्रियुंड है जहाँ हम जाने वाले है। धर्मशाला में एक स्टेडियम है जिसके बारे में कहा जाता है कि ये भारत का सबसे खूबसूरत स्टेडियम है।मैंने भी इस स्टेडियम को किसी क्रिकेट मैच के दौरान टीवी पर देखा था। मन तो बहुत था कि स्टेडियम देख आये पर सुबह का समय था और स्टेडियम अभी खुला नहीं था, और हमें तो धर्मशाला से ऊपर मैक्लोडगंज जाना था।
* भागसूनाग में चहलकदमी*
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सुबह का समय और सामने धौलाधार के हसीन नज़ारे मन कर रहा था कि वहीँ बैठे बैठे ये नजारा देखता रहूँ। धर्मशाला काँगड़ा जिले के अंतरगत आता है। दिल्ली से धर्मशाला की दूरी तक़रीबन 480 km. है और उचाई 1450 मीटर।
यहाँ से मैक्लोडगंज करीब छः या सात km. दूर है और ऊँचाई लगभग 2080 मीटर है। अब हमें मैक्लोडगंज जाना था,जिसके लिए बस स्टैंड के पास अनेक छोटी गाड़ियां जैसे वैन और आल्टो खड़ी थी। हमने उनसे मैक्लोडगंज जाने का किराया पुछा तो उन्होंने 600 रुपये बताये जो हमारे बजट को बिलकुल भी सुट नहीं करता था। तभी मेरी नजर एक खटारा सी मिनी बस पर गई जो मैक्लोडगंज जा रही थी। बस फिर क्या था हम भी लटक लिए ।
बस यात्रियों से खचाखच भरी पड़ी थी। किसी तरह मुझे बैठने की जगह मिल पाई, पर राजन को बस में खड़े हो कर ही बाकी की दूरी नापनी पड़ी। टिकट कण्डक्टर को भी लोगो के टिकट कटाने में बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ा। मैं खुश था कि कहाँ 600 रूपये टैक्सी वाले मांग रहे थे और यहाँ 40 रुपये में दोनों लोग मैक्लोडगंज जा रहे है। धर्मशाला से मैक्लोडगंज का रास्ता काफी सुंदर था। हम लोग ऊपर जा रहे थे तो नीचे देखने पर धर्मशाला पहाड़ की तलहटी में बसा हुआ बहुत ही मनोरम लग रहा था। रास्ते में सड़क के दाहिनी तरफ एक बहुत पुराना चर्च दिखाई दिया जो शायद कोई टूरिस्ट स्पॉट था। बाद में मुझे पता चला की ये 1852 मे बना हुआ St. john in the Wilderness church है। ये चर्च सन 1905 में आये काँगड़ा घाटी में जोरदार भूकंप में भी डटा रहा था। एक घंटे से कम समय में ही हम मैक्लोडगंज के बस स्टैंड पर खड़े थे।
मैक्लोडगंज मिनी तिब्बत जैसा है। चीन के द्वारा तिब्बत पर कब्ज़ा करने के कारण तिब्बत से दलाई लामा और उनके कुछ अनुवाई तिब्बत से भाग कर अरुणांचल प्रदेश के रास्ते भारत में चले आये। भारत सरकार ने उन्हें पूरा सपोर्ट किया और इन लोगो को मैक्लोडगंज में बसा दिया।आज मैक्लोडगंज में तिब्बती लोगो की आबादी अच्छी खासी है बाकी में पहाड़ी,नेपाली और पंजाबियों की आबादी है। यहाँ एक बात बता दूं कि दलाई लामा को 1989 में शांति का नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है।
सुबह के करीब 8 बज चुके थे अब हमें एक होटल चाहिए था जहाँ हम अपना सामान रख सके और शरीर से आ रही नेचर कॉल को बाहर का रास्ता दिखा सके। मैं तो वही पास में बने टिकट काउंटर के बेंच पर बैठ गया और राजन होटल का पता लगाने के लिए चला गया। आधे घंटे के बाद राजन एक होटल में रुकने का प्रस्ताव ले कर मेरे पास आया। होटल एकदम मैंन मार्किट में ही था जहाँ से कही भी घूमने जाने के लिए आसानी थी और खाने पीने की अच्छी दुकाने भी थी।पर होटल थोड़ा महंगा था। खैर रात भर यात्रा करने के कारण शरीर थका हुआ लग रहा था तो मैंने भी सोचा चलो महंगा हो या सस्ता एक दिन की ही तो बात है। अगले पंद्रह मिनट में हम होटल के रूम में आराम फरमा रहे थे।
होटल में शिफ्ट होने के बाद हम नहा धो के तैयार हो चूके थे और बड़ी जोरो की भूख भी लग रही थी। हम होटल के बाहर निकले और खाने के लिए एक अच्छी जगह ढूढने लगे।मैक्लोडगंज के टैक्सी स्टैंड के पास पराठों की दुकान दिखाई दी। जिन्होंने कुछ कुर्सियां बाहर खुले में डाल रखी थी। टैक्सी स्टैंड के ठीक नीचे धर्मशाला से आने वाली सड़क है, जिसके पास ही बस स्टैंड है। यहाँ काफी गाड़िया आती जाती दिखती रहती है।
हम बाहर ही बैठ गए और आराम से पहाड़ी हवा और पहाड़ो के नजारो का आनंद लेते हुए दो दो पराठो और चाय पर हाथ साफ करने लगे। दिन के करीब ग्यारह बज चुके थे और हमारा अगला लक्ष्य त्रियुंड था।
टैक्सी वालो से पूछताछ करने पर पता चला की त्रियुंड जाने के लिए सुबह का समय अच्छा होता है। क्योंकि ट्रैकिंग के लिए पाँच से छः घंटे लग जाते है।अगर हम ग्यारह बजे निकलते तो हमें वहां पहुचने में ही शाम हो जाती फिर रात को ऊपर ही रुकना पड़ता। त्रियुंड में रात में काफी ठण्ड पड़ती है। तापमान पाँच डिग्री से भी कम हो जाता है। सर्दियों में तो वहां बर्फ ही बर्फ दिखाई देती है, और तापमान माइनस में चला जाता है। खैर हम उस हिसाब के गर्म कपडे ले के नहीं आये थे, तो हमने ये फैसला किया कि त्रियुंड के लिए कल सुबह निकलेगे और आज भागसूनाग चलते है।
भागसूनाग मैक्लोडगंज से ढाई km. दूर एक जगह है जहां भागसूनाग का मंदिर और मंदिर के ऊपर एक या डेढ़ km. पैदल चलने के बाद एक झरना है जो देखने लायक है। पेट पूजा हो चुकी थी सो हम भागसूनाग की तरफ पैदल ही निकल पड़े। अगर कोई पैदल न जाना चाहे तो टैक्सी भी मिलती है। पैदल जाने में करीब एक घंटा लगता है। बाकी आप की स्पीड पर निर्भर है। लगभग इतना ही समय वापस आने में में भी लगता है। करीब आधे km चलने के बाद हम मैक्लोडगंज से बाहर निकल गए। यहाँ से भागसूनाग का झरना थोड़ा थोड़ा दिखने लगता है। सुहाने मौसम में प्राकृतिक नजारो का आनंद लेते हुए हम भागसूनाग के नजदीक पहुच गये। भागसूनाग मंदिर से आधा km पहले बहुत सारे होटल है। जो सैलानी शहर की भीड़ भाड़ से दूर रहना चाहते है ये जगह उनके लिए अतिउत्तम है। मंदिर से कुछ दूर पहले ही सारी गाड़िया रोक दी जाती है। यहाँ से पैदल ही जाना होता है।
हम भी मंदिर की तरफ बढ़ चले रस्ते में एक बहुत बड़ा स्विमिंग पूल बनाया गया है जिसमे झरने का पानी आता रहता है। मन किया कि यहाँ नहाया जाये पर पानी को हाथ से छूते ही जैसे करंट लग गया। बहुत ही ठंडा पानी था। तो मेरा नहाने का विचार जाता रहा। वैसे भी मैं कितना नहाता हूँ मेरे घर वाले अच्छे से जानते हैं। स्विमिंग पूल से आगे कई दुकाने और रेटोरेन्ट भी है जहाँ आप कुछ खा पी सकते है। हमारी तो पेट पूजा पहले से हो गई थी।
थोड़ी ही देर में हम मंदिर में थे। इस मंदिर की एक कहानी है जो मंदिर के बाहर लिखी हुई है। कहा जाता है कि द्वापर युग में भाग्सू नामक एक दैत्य राजा था। जिसके राज्य में सूखा पड़ गया। उसने प्रतिज्ञा की कि वह अपने राज्य में पानी जरूर लायेगा। वो पानी की तलाश में नाग डल ( झील को डल कहते है) पहुँच गया जो नाग देवता के राज्य का एक हिस्सा था।भाग्सू ने अपने मायावी कमंडल में पूरे झील का पानी भर लिया और वापस चल पड़ा। इस मंदिर की जगह पर रात हो गई तो वो वह यहाँ रुक गया। जब नाग देवता को इस बात का पता चला तो वो भाग्सू को ढूढ़ते हुए इस जगह पहुच गए। दोनों में लड़ाई होने लगी जिससे कमंडल का पानी गिर गया और बहने लगा लड़ाई में नाग देवता विजयी हुए।तब भाग्सू ने
नाग देवता से प्रार्थना की कि इस पानी को बहने दिया जाये ।नाग देवता ने उसकी विनती स्वीकार कर ली और कहा इस जगह को पहले तुम्हारे फिर मेरे नाम से जाना जायेगा। इसी लिए इस जगह को भागसूनाग कहा जाने लगा।
मंदिर में दर्शन के बाद हम झरने की तरफ चल पड़े रास्ता काफी चढाई वाला है। काफी भीड़ भाड़ थी। बहुत से लोग झरने से आते पानी में पत्थरो पर बैठ कर सेल्फी ले रहे थे। हम ऊपर चढ़ते गए एक km की खड़ी चढाई के बाद हम झरने के मुहाने पर पहुच गए ।दूर से देखने पर झरना छोटा दिखता था पर पास पहुँचाने पर झरने की हाहाकारी आवाज धड़कनो को बढ़ा रही थी। झरने के पास भी खाने पीने की दुकानें थी। कुल मिला के घोर व्यवसायिकता का बोल बाला था। और लोग पानी एवं कोल्ड ड्रिंक की बोतलों का कूड़ा फैलाते दिख रहे थे। यहाँ नहाना मना था फिर भी पंजाब के कुछ गबरू नहाते हुए दिखाई दे रहे थे। कुल मिला के जगह बहुत अच्छी लगी पर ऐसा ही चलता रहा तो अच्छी रहा पायेगी या नहीं ये भागसूनाग ही जाने।
एक डेढ़ घंटे झरने का आनंद लेने के बाद हम वापस मैक्लोडगंज में आ गये। शाम हो गई थी और हमें दलाई लामा टेम्पल जाना था पर पता लगा की वो अब तक बंद हो गया होगा। इसलिए हमने वहा जाने का विचार छोड़ दिया। हम मार्किट में घूमने लगे और दो बार मोमो खाई। पहाड़ो पर मोमो खाने का मजा ही अलग है। क्योंकि ये पहाड़ी डिश ही तो है। हम होटल के रिसेप्शन पर पहुचे ही थे की वहां के कर्मचारी ने बताया कि होटल की छत पर रॉक कॉन्सर्ट का आयोजन किया गया है। जो फ्री ऑफ़ कास्ट है केवल वहां खाने के पैसे देने होंगे।
हमें भी तो रात का खाना खाना ही था। हमने सोचा यही खाते है। रात को जब हम छत पर पहुचे तो वहां मैक्लोडगंज के लोकल कलाकारों द्वारा कंसर्ट का आयोजन किया गया था। हमने खाने का आर्डर दे दिया और कंसर्ट का आनंद लेने लगे। दो तीन घंटो के कंसर्ट ने दिन भर की थकावट को मिटा दिया।हम खाना खा के अपने रूम में आ गए और सोने की तैयारी करने लगे। सुबह जल्दी उठ कर त्रियुंड जो जाना था।
* त्रियुंड ट्रेक की शुरुआत*
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हमने रात में सोते समय ये निश्चित किया था कि हम सुबह पाँच बजे उठ जायेंगे और छः बजे होटल से बाहर निकल जाएंगे। लेकिन सोने के बाद सब भूल जाता है। हम लोग करीब छः बजे सोकर उठे और तैयार हो कर होटल से बाहर निकलने में करीब एक घंटे और लग गए। बाहर निकल कर कल जहाँ हमने परांठे खाए थे वही फिर पहुच गए वहां हमने दो दो परांठे खाये और चाय पी।
अब मैं आप को बता दूँ की ये त्रियुंड है क्या। त्रियुंड एक पहाड़ी का नाम है जो मैक्लोडगंज से करीब ग्यारह बारह km की दूरी पर है। जिसकी ऊंचाई तक़रीबन 2900 मीटर है। ये हिमांचल का एक मशहूर ट्रैकिंग पॉइंट है। जहाँ सप्ताहांत की छुट्टियां ट्रैकिंग करते हुए बिताई जा सकती है। त्रियुंड पर हिमांचल सरकार का एक रेस्ट हाउस भी है। जिसकी बुकिंग धर्मशाला से होती है। इसके अलावा वहां किराये पर टेंट भी मिल जाते हैं जिसमे आराम से रात गुजारी जा सकती है। ऊपर में खाने पीने की भी भी व्यवस्था है। मैक्लोडगंज से दो km की दूरी पर धर्मकोट गांव है। शहर की भीड़ से दूर ये गांव विदेशी टूरिस्टों में बहुत लोकप्रिय है। धर्मकोट से एक km दूर गल्लू देवी का मंदिर है। मंदिर तक तो रास्ता आसान है पर असली ट्रैकिंग इसके बाद सुरु होती है।
मैक्लोडगंज से त्रिउंड जाने के तीन रूट है
1. मैक्लोडगंज से धर्मकोट होते हुए।
2. भागसूनाग से भाग्सू गांव होते हुए।
3. डल लेक से धर्मकोट, धर्मकोट से त्रिउंड।
पहला वाला रास्ता ज्यादा प्रचलित है। और रास्ता भूलने की गुंजाइश कम है। बाकी के रास्ते कम प्रचलित हैं और लोगो का इन रास्तो से आना जाना कम है।
हमने जहाँ परांठे खाये थे वही टैक्सी स्टैंड भी था। हमने सोचा जहाँ तक टैक्सी जा सकती है वहाँ तक टैक्सी से चलेंगे इसी लिए हमने एक टैक्सी वाले से बात की उसने ऊपर गल्लू देवी मंदिर तक छोड़ने के 400 रूपये मांगे। जो हमें ज्यादा लगे तो हमने उससे 200 में छोड़ने को कहा पर वो पट्ठा 400 से कम में जाने को तैयार ही नहीं हुआ। हम भी जिद्दी ठहरे हमने सोच लिया पैदल ही चलते है। आधा km ही चले होंगे की सामने से एक टैक्सी आती दिखाई दी। हमने उसे रोका और गल्लू देवी मंदिर जाने के लिये कहा उसने 350 रूपये मांगे मोल भाव करने पर वो 300 रूपये में मान गया। हमने भी अपनी 200 रूपये की जिद को नीचे खाई में फेका और टैक्सी में बैठ गए।
कहने को तो घर्मकोट दो km ही था। पर सीधी खड़ी चढाई है।वहां से गल्लू देवी मंदिर तक जाने में लगता था कि गाड़ी के साथ साथ हमारे भी अस्थिपंजर ढीले हो जायेंगे। कहीं कहीं सड़क का कोई टुकड़ा दिख जाता था। जिससे ये लगता था कि यहाँ तक कभी सड़क बनाई गई होगी।
गल्लू देवी मंदिर के पास भी छोटे मोटे लाज थे। जहाँ रुका जा सकता है। वही एक दुकान से हमने रास्ते के लिए बिस्कुट का एक बड़ा पैक, पानी की दो बोतले और थम्स अप की एक बोतल ले ली। यहाँ मैं आपको बता दूँ क़ि इस जगह पर एक पुलिस चेक पोस्ट है। जिसमे आने जाने वालों की एंट्री होती है। सुबह के करीब आठ बज रहे थे पर वो चेक पोस्ट बंद थी। इसलिए हम बगैर किसी एंट्री के आगे बढ़ गए। अब तक का रास्ता ठीक ठाक था पर चेक पोस्ट से आगे बढ़ने पर सीधी खड़ी चढाई और बौल्डरो (बड़े पत्थर) के रास्ते ने हमारा स्वागत किया, और 200 मीटर चलने के बाद ही हमारी सांसे और दिल की तेज होती धड़कनो ने बता दिया कि इसके आगे हमारे पैरो की 10वी की बोर्ड परीक्षा से भी ज्यादा कठिन परीक्षा होने वाली है।
करीब एक km चलने के बाद रास्ता देवदार और ओक के घने पेडों के बीच से हो कर गुजरने लगा। रास्ते में और कोई दिखाई भी नहीं पड़ रहा था। मन में एक सिहरन सी हुई की कही हम रास्ता भटक तो नहीं गए है, पर थोड़ी दूर चलने के बाद त्रियुंड की तरफ से कुछ ट्रेकर आते दिखाई दिए तो हमारी जान में जान आई। अगर देखा जाये तो पूरा ट्रेक अच्छी तरह से नजर आता है। समझदारी से चला जाये तो कही भटकने का डर नहीं है।मेरी व्यक्तिगत राय में गाइड की कोई जरूरत नहीं है। हम थोड़ी थोड़ी देर में कही बैठ जाते और बिस्किट खाते और पानी पीते। रास्ता कहीं कहीं बहुत ही पतला है और जरा सी असावधानी जानलेवा हो सकती है। अगर कोई ट्रेकर परिवार के साथ आना चाहता है तो कृपा करके छोटे बच्चो को साथ में न लाये।
यहाँ एक मजेदार घटना घटी। हम पसीने से लथपथ थके हरे चले जा रहे थे, तभी रास्ते में एक छोटी सी दुकान मिली जहाँ हमने फ्रूटी पी। हमने दुकानदार से पुछा त्रियुंड यहाँ से कितनी दूर है तो वो हँसने लगा । उसने बताया अभी तो आप लोग 25 परसेंट भी नहीं आये है। उसकी हँसी ने हमारा दिल बैठा दिया था।
कुल मिला के रास्ता बहुत ही सुन्दर दृश्यों से भरा था। रास्ते के एक तरफ ऊँचे पहाड़ तो दूसरी तरफ मैक्लोडगंज दिखाई दे रहा था। आधे रास्ते के बाद नीचे धर्मशाला भी दिखाई देने लगा।एक जगह तो ऐसी भी आई कि ऊपर से नीचे देखने पर धर्मशाला का वो स्टेडियम भी दिखाई देने लगा। जिसे देखने की मेरी बहुत इच्छा थी। त्रियुंड से दो km पहले एक कैफ़े है जिसका नाम मैजिक व्यू है। हम लोग वहां थोड़ी देर बैठे रहे। वास्तव में यहाँ से जो व्यू दिखाई दे रहा था वो एक मैजिक ही था। अब तक ऊपर से आने वाले बहुत से ट्रेकर दिखाई देने लगे थे। जो रात में वहां रुके थे।
यहाँ मैं राजन की तारीफ करना चाहता हूँ जो मुझसे आगे आगे चल रहा था। कभी कभी मुझे उसपर गुस्सा आता की मुझे छोड़ कर कहां भागा जा रहा है। पर उसी के तेज चलने की वजह से मैं भी तेज तेज चल पा रहा था। पूरा रास्ता पत्थरो से अटा पड़ा है कही एक मीटर भी समतल जगह नहीं है। आखिरी के एक km सीधी खड़ी चढाई वाले है। जिसे मैं अपने शब्दो में हाड़ तोड़ चढ़ाई कहना ज्यादा पसंद करूँगा। इस आखिरी चरण की चढ़ाई चढ़ने में मेरी हालात खराब होने लगी। 10 कदम चलने के बाद मैं रुक जाता था थोड़ी साँस लेता फिर 10 कदम बढ़ाता। खैर किसी तरह हमने ये बाधा भी पार कर ली और त्रियुंड पर अपने कदम रख दिए।
* त्रियुंड के नज़ारे और घर वापसी *
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दोपहर के बारह बज गए थे। करीब 9 KM की कठिन चढाई चढ़ कर हम आखिर त्रियुंड पहुँच ही गए थे। और वहां पहुँचते ही हमें इसका इनाम मिला। सामने विराट हिमालय की धौलाधार श्रृंखला खड़ी थी। जिसकी चोटियां बर्फ की वजह से चांदी की तरह चमक रही थी।
हमारी किस्मत बहुत अच्छी थी क़ि त्रियुंड का मौसम साफ था। नहीं तो वहां हमेशा धुंध सी छाई रहती है।
अब हमने यहाँ के नजारों का जायजा लेना सुरु किया। त्रियुंड एक धार पर है। अब धार क्या बला है। पहाड़ियां जिनके दोनों तरफ ढाल होती है । और दोनों ढालो के बीच में ऊंचाई पर कुछ समतल जगह दिखती है जो काफी दूर तक चली जाती है। इसे ही पहाड़ की धार कहते है। इसे इंग्लिश में रिज कहते है। जो लोग शिमला घूम चुके है । उन लोगो ने शिमला के रिज पर चहलकदमी की होगी।
त्रियुंड से तीन पहाड़ीयो का नजारा दिखता है। शायद इसी से इसका नाम त्रियुंड त्रि = तीन, उंड = पहाड़ी पड़ गया होगा। त्रियुंड की धार दो km की होगी इसके एक ढाल की तरफ महान हिमालय सीना ताने खड़ा है तो दूसरी तरफ काँगड़ा वैली है। हम बहुत देर तक इधर उधर चहलकदमी करते रहे और फोटो खींचते रहे। मौसम ठंडा और खुशनुमा हो गया था। दोपहर में मौसम की ठंडक को देखते हुए ये साफ़ महसूस हो रहा था कि रात में यहाँ बहुत ठण्ड पड़ने वाली है। यहाँ भोलेनाथ का एक छोटा सा मंदिर भी है। जो यहाँ के वातावरण में ऊर्जा का संचार कर रहा था। हमने भी वहाँ जा कर अपने शीश नवाये। यहाँ हिमांचल सरकार का एक रेस्ट हाउस भी है। चारो तरफ टेंट भी दिखाई दे रहे थे।हमने पता लगाया तो पता चला की दो लोगो के लिए 800 रूपये में रात भर रुकने की व्यवस्था हो जाती है। यहाँ का माहौल देख कर हमें पछतावा हो रहा था कि हम अपने साथ गर्म कपड़े क्यों नही ले आये। अगर हमारे पास गर्म कपड़े होते तो हम पक्का यहाँ रात में रुक जाते। और पहले सूर्यास्त बाद में सूर्योदय का आनंद उठाते।
यहाँ पर महाराष्ट्र से कॉलेज के बच्चो का एक ट्रिप आया हुआ था। वे यहाँ पहुँच कर बड़े उत्साहित दिख रहे थे। कुछ विदेशी सैलानी भी यहाँ पहुचे थे। हम भी त्रियुंड पर एक डेढ़ km का चक्कर लगा चुके थे। सबेरे के खाये परांठे और बिस्किट का पैकेट पूरी तरह हजम हो चुके थे। बड़े जोरो की भूख लग रही थी। यहाँ दो तीन दुकानें थी जो झोपड़ियों की तरह दिख रही थी। हम वहाँ गए तो देखा क़ि वहां पानी की बोतल, कोल्ड ड्रिंक, बिस्किट इत्यादि अनेक खाने पीने की वस्तुएं बिक रही थी। इसके अलावा वहाँ पर मैग्गी, ऑमलेट और चाय भी मिल रहा था। एक प्लेट मैग्गी और दो अंडे के ऑमलेट की कीमत पचास पचास रुपये थीऔर एक कप चाय बीस रूपये की थी। कीमत थोड़ी ज्यादा लगी पर जगह की दुर्गमता को देखते हुए ठीक ही लगी। हमने ऑमलेट का आर्डर दिया और वही पड़े एक तख़्त पर पसर गए। ऑमलेट खा कर और चाय पीते पीते हमने दुकानदार से पूछा तो उसने बताया कि रात को यहाँ खाना भी मिलता है।
पेट पूजा करने के बाद हम रेस्ट हाउस की तरफ बढ़ चले। वहाँ से एक रास्ता आगे जाता हुआ दिखाई दिया। पता करने पर मालूम हुआ कि ये रास्ता इंद्रहर पास की तरफ जाता है। जिसकी ऊंचाई लगभग 4350 मीटर है। वहां जाने के लिए पहले त्रियुंड से लहेश केव जाना पड़ता है। रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन इंद्रहर पास जा कर वापस लहेश केव में रुकना पड़ता है। उसके अगले दिन त्रियुंड होते हुए मैक्लोडगंज जाना होता है। अगर कोई वापस न आना चाहे तो इंद्रहर पास पार करके चम्बा जा सकता है। दरअसल काँगड़ा जिले और चम्बा जिले को ये पहाड़ अलग करता है। पुराने समय में इसी रास्ते से लोग आया जाया करते थे। कुल मिला के ये ट्रेक बहुत कठिन है। और इसे करने के लिए टेंट, स्लीपिंग बैग, खाने पीने का राशन और गाइड की आवश्यकता पड़ती है।
दोपहर के दो बज चुके थे।अब हमें वापस लौटना था। तभी अचानक नीचे घाटी से बहुत सारी धुंध ऊपर आने लगी। मौसम अचानक बदल गया जहाँ कुछ देर पहले धूप थी वही अब बदली हो गई थी। लौटते समय भारी मन से हमने त्रियुंड को अलविदा कहा और मैक्लोडगंज की तरफ लौट चले। रास्ते भर हमें ट्रेकरो की भीड़ दिखाई दी जो त्रियुंड की तरफ जा रहे थे। ये वहां जा कर रुकने वाले थे। शाम के पाँच बजे हम मैक्लोडगंज में थे।वहाँ से हमने होटल से अपना सामान लिया और धर्मशाला पहुँच गए। वहाँ से हमने छः बजे दिल्ली की बस ली और सुबह दिल्ली पहुंच गए। वहाँ से शाम को ट्रेन पकड़ कर अगले दिन मैं गोरखपुर पहुँच गया।