
कलकत्ता - खुशियों का शहर! कल रात इन्ही सड़कों पे मंडराते हुए रात बीत गई | कुछ भी नहीं बदला, वही पूरानी बात, वही लोग, वही ईमारत| कल रात के ढाई बजे मैं पहोंचा, काफी भुख लगी थी, शहर सोया हुआ सा लग रहा था, इसी बीच मैंने टैक्सी वाले भैया से खाने का ज़िक्र किया, कुछ ख़ास जवाब नहीं आया, मैं भी उदास होटल पहुचने के इंतज़ार में भूखा सोने का मन बना चुका था, बात ढाई सौ रुपये में तय हुई थी, जेब खंगाला देखने को, इतनी देर में गाडी रूकती है,भइया कहते हैं, बाबु ये लो यहाँ खा लो, बाहर झांकता हु तो एक छोटा सा ढाबा था, मैं ख़ुशी ख़ुशी उतर कर झटपट खाने लगा, वापिस खाकर टैक्सी में बैठा और फिर टैक्सी वाले भइया ने होटल तक पहोचाया , मैंने वहाँ भैया से पैसे पूछे तो उन्होंने वही ढाई सौ रुपये लिए, मैं हतप्रभ देखता रहा, मुझे लग रहा था आज पांच सौ- हज़ार कुछ भी लग सकता है,कहते हैं बाबु खाना खिलाना धंधा नहीं हमारा, इंसानियत है , उसके पैसे नहीं लगते | आपको बता दू, ढाबा रस्ते से करीब 5-6 मिल ज़्यादा थी| मैं एक मुस्कान के साथ कमरे में जाकर सो गया, यही सोचते हुए की यही अगर हमारा शहर दिल्ली होता तो भी क्या ऐसी ही बात होती?
