#नैनीताल
ताल से ताल मिला !
हम तीन बंदे थे। दो बिहारशरीफ के और मैं औरंगाबाद का निवासी। मौका ही कुछ ऐसा था कि जुटान होना ही था। बर्फबारी देखने का लालच तो कई वर्षों से मन में कुलबुला रहा था लेकिन जनवरी के ठंड में हिमालय की यात्रा की कल्पना गंभीरता से कभी की नहीं थी। जबरिया बन आये हकीकत ने कल्पना को मन से बाहर खींच लाया और रेलगाङी में बैठाकर उसे गतिशील कर दिया। शरीर में थोङी सर्दी के असर होने के लक्षण के कारण दवायें भी साथ में रख ली थी। रेल के पैन्ट्री पर अविश्वास मोदी सरकार में भी बना रहा इसलिए होटल से पैक कराये खाना लेकर मैं 02 जनवरी को पटना जंक्शन पर रेल डिब्बे में हाजिर हुआ तो दिन के 11.40 बज रहे थे। नजदीक में घर होने के कारण बिहारशरीफ से अश्विनी, पवन श्रमजीवी एक्सप्रेस में सवार हो चुके थे। बोगी में मेरे दाखिल होते खाना की गर्माहट को भांप कर दोनों सहोदर भाई अपना धैर्य तोङ गये और मामला तुरंत सफाचट। अब टाइमकाट गप शुरु जिसकी विद्वता की तपिश आप पटना -गया रेलखंड पर यात्रा के दौरान अक्सर महसूस कर सकते हैं। खैर हमलोग विशुद्ध राजनीतिक बातचीत से अपने को बचा ले गये। यह मामूली उपलब्धि नहीं थी फेसबुकिया जन-जागरूकता दौर में। 'सबका साथ सबका विकास' की जगह हमने तीनों साथ तीनों का विकास पर मामला टिकाये रखा। अफसर बन पाने में नाकाबिल ठहरा दिये गये हम भोथर लोग चारों ओर से पिटा थकुचा कर एक ठीक ठाक नौकरी की संभावना में अपनी गृहस्थी बचता देख रहे थे। यात्रा के मकसद से जुङे पहलू साक्षात्कार में क्या संभावित है और उसके निष्पक्ष होने की संभावना पर बकैती करते रहे। आश्वस्त होकर सोये कि चलो साक्षात्कार के परिणाम में उतराखंड के किसी कॉलेज में प्रोफेसर बने या ना बनें नैनीताल को कायदा से जांच कर आना है। जन्म लेते हार्ड लाइफ की सच्चाईयों से रुबरु रहने को विवश बिहारियों में वैसे भी सैर सपाटे की लत प्राय:नहीं होता और हम तो खालिस बिहारी ठहरे । बिना काम साधे घुमते नहीं।
गाङीलगभग सुबह चार बजे श्रम करते हुए बरेली जंक्शन पहुंची जहाँ से आगे का सफर हमें दूसरी गाङी अथवा दूसरे साधन से करना तय कर रखा था। हल्द्वानी जाने के पहले शरीर को बरेली के कङकङाते ठंड में बचाने की गरज से हम तीनों ने चाय की दुकान पर डेरा जमा लिया। दो--दो कप टान गये पर कोई खास फर्क नहीं जैसे सर्दी हमलोगों को डराने पर तुल गयी हो कि आगे पहाड़ में क्या हालत होगी तेरी ...। चाय की चुस्की और खैनी खाकर सुबह -सुबह हल्का होने की जिद थोङा भारी पङ गयी। कम ट्रैफिक वाले काठगोदाम लाइन की ट्रेनें निकल गयीं । अब बस अड्डा... । वहाँ पहुंचे तो रोडवेज की बस का रुट लंबा मालूम चला। खीज के बीच चिंतन शुरू और निर्णय हुआ कि टैक्सी से चला जाये। बावजूद हम उत्तरप्रदेश की सङक परिवहन व्यवस्था की प्रशंसा के लिए मजबूर हो गये। बरेली अड्डा साफ सुथरा और भारतीय संदर्भ में विकसित लगा। धङाधङ कुछ फोटो उतार लिये । शहर भी विस्तार लिये दिखा। समझ में आ गया कि हिरोइन साधना का झूमका यूं ही नहीं बरेली के बाजार में गिरा था "झूमका गिरा रे बरेली के बाजार में ।" बरेली तमाशबाजों को आकर्षित करने की योग्यता वर्षों से रखते आया है लेकिन हम तमाशा देखने-दिखाने तो गये नहीं थे इसलिए वहाँ से बहेङी जाने की टैक्सी पकङ ली। बरेली को पीछे छोङने वाली चौङी सङक के दोनों ओर के मकान और अतिक्रमण मुक्त बसावट सुकूनदायक अहसास कराने लगा कि आंकङें कुछ भी कहें ,यूपी अभी भी बिहार से बेहतर है। बिहार और यूपी दोनों जगह 1990 के बाद सामाजिक न्याय की ताकतों की मंडलवादी सरकारें रही हैं। बिहार की तुलना में यूपी में सत्ता के बदलाव 90 के बाद ज्यादा हुए हैं फिर भी वह बेहतर बना हुआ है। चाल चरित्र चेहरा सभी समान-सा लेकिन बढत यूपी के हाथ में इसलिए है कि वहाँ आजादी के बाद की सरकारों ने सीमाओं के बावजूद कर्मठता से काम किया है जबकि बिहार आजादी के तुरंत बाद से ही नये-नये नारों और शीर्ष नेताओं की अपनी जाति के लोगों के कल्याण तक महज सिमटा रहा।
....टैक्सी बहेङी पहुंची। कस्बे के यातायात नियम के मुताबिक दिन के 9 बजे के बाद वह कहीं टिक कर खङी नहीं हो सकती थी। पान- गुटका लेकर ड्राइवर दौङा और पूछा कि 9 बज गये क्या ! " हां "......"भईया तब तो डंडे पङेंगे भागो।" पास में किसी पुलिस वाले के न होते हुए ऐसा डर ..। यह अनुशासन बिहार में नहीं दिखता। रंगबाज तो यूपी में भी कम नहीं लेकिन नागरिक संस्कार अभी शायद बचे हुए हैं।
बहेङी से गाङी बदली और थोङी देर में हल्द्वानी आ गया। नैनीताल जिले में नैनीताल शहर के पहले का अंतिम मैदानी शहर जहाँ रेलवे में तैनात मेरे बचपन के साथी मुकेश गुप्ता ने यात्रा की वापसी के समय कोठगोदाम में हमारा गर्मजोशी से स्वागत किया। बंगाल के सिलीगुङी-सा हैसियत वाले हल्द्वानी के बाजार और सङक किनारे बनी इमारतें बता गयी कि दम है शहर में। यहीं हम तीनों ने गरीब बजट में दोपहर का खाना खाया। फिर मारूति कार से नैनीताल निकल पङे। गंगटोक की तुलना में कम खङी चढाई वाले रास्ते से गुजरते हम नजरों से पहाड़ नापते , सीढीदार खेत को उचक कर देखते जा पहुंचे नैनीताल। झील किनारे गाङी रूकी तो नैनीझील का दृश्य अद्भुत था। आसमां से सूर्य विदाई मांग रहा था और उधर झील बोटिंग से गुलजार थी। सूरज की रोशनी में झील की पानी पर एक झलक डाल कर हमने उस संगमरमरी जल सतह को नजरों से पिया और बिना वक्त गंवाये ठहरने के लिए होटल खोजने दौङ पङे। कमरा बुक हुआ और हमने एक टैक्सी लेकर नैनीताल के टूरिस्ट प्वाइंट -बाघगुफा (इको केव गार्डन), झरना, दूरबीन से हिमालय दर्शन प्वाइंट , लवर प्वाइंट, टिफिन टाप इत्यादि नापने शुरू कर दिये। पैकेज वाले ऐसे प्वाइंट आपको हर हिल स्टेशन पर मिल जाते हैं। बाघगुफा एक पहाङी प्वाइंट है जहां देखने के लिए कुछ खास नहीं है । बस उबङ -खाबङ राह से गुजरते हुए इस प्वाइंट पर आपको बताया जाता है कि इन गुफाओं में कभी बाघ रहते थे । लवर प्वाइंट जरुर आकर्षक है । यहां एक शिला जिसके नीचे खाई है , सैलानी तस्वीरें खिंचवाते हैं । यहीं पर घुङसवारी का भी आनंद लिया जा सकता है । नैनीताल में कैबल कार (रोपवे) भी उपलब्ध है जिससे सैलानी ऊंचाई से शहर का नजारा देख सकते हैं । नैैनीताल से महज कुुछ किलोमीटर पर । देखने योग्य भीमताल, नौकुचिया ताल, कैंचीधाम मौजूद हैं । कैंचीधाम में बाबा नीम किरोङी का आश्रम हैं । बाबा को देह त्यागे अरसा हो गए । बाबा के चमत्कारी किस्से हम सुन चुके थे । पवन, अश्विनी आश्रम में प्रवेश करना चाहा तो बताया गया कि आने से पहले अपना पंजीयन कराना पङता है । बाहर से ही उन्हें लौटना पङा । आध्यात्मिक अनुभव के अर्जन को अगली बार के लिए छोङ दिया गया ।
समुंद्र तल से लगभग 2000 मीटर की ऊंचाई पर तालों के इस शहर नैनीताल में गिरजाघर भी है तो मंदिर और मस्जिद भी। मुख्य मंदिर नैना मंदिर पार्वती का मंदिर है । इस मंदिर से मिथकीय कथा जुङी हुई है । कहा जाता है कि जब शिव सती का मृत देह लेकर वायु मार्ग से कैलाश पर्वत जा रहे थे तब उनकी आंखें नैनी झील के पास गिरी थीं जबकि कुछ दूसरी जगहों पर शरीर के अंग गिरे थे । इन्हीं जगहों पर बाद में शक्तिपीठ स्थापित हुए । नैना मंदिर भी एक शक्तिपीठ है । गंगटोक की तरह यहां कोई बौद्धमठ नजर नहीं आया। शंकराचार्य के केदारनाथ यात्रा का शायद यही परिणाम उतराखंड में आना था। लेकिन मस्जिद का गणित ... शोध का विषय है। लौटते शाम हो गई और पहाड़ से घिरे नैनी झील किनारे की इमारतों की बल्बों और स्ट्रीट लाइट की रोशनी में खामोशी से अपनी पनाह में रह रहे मछलियों को रात की लोरी सुनाने लगी। झील के बासिंदें मछलियां सुबह और शाम में ही अहसास कर पाती हैं कि उनका पनाहस्थल महफूज है। झील के उत्तरी छोर पर बङा सा मैदान है जिसका फर्श पक्का किया हुआ है । खेलने के अलावा यह सार्वजनिक सभा के लिए इस्तेमाल होता हैै । यहीं नैैैना मदिर के समीप ऊनी वस्त्रों की मंडी भोटिया बाजार है जहां हमने भी कुछ ऊनी वस्त्र खरीदे । यहां उचित कीमत पर स्वेटर, जैकेट आदि खरीदा जा सकता है । माल रोड पर स्थित दुकानों से हस्तशिल्प की वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं । रात में माल रोड पर लुढकते हमने नोटिस किया कि नैनीताल और हिल स्टेशनों की तुलना में स्पेसियस और यहाँ कि सङकें चौङी हैं, मार्केट में भी जान है। जान शायद इसलिए भी कि नैनीताल में ही उतराखंड का हाईकोर्ट और गवर्नर हाउस मौजूद है। अंग्रेजी राज की लकङी से बने कुछ ही विरासतें अब नैनीताल में बची हुई हैं। दिल्ली तरफ से आये लोग ज्यादा जान पङे। जोङों के बीच हम तीन बेजोङे लोग ...एक टीस लेकिन तब कि सच्चाई यही थी जिसे बूझे मन से हमने स्वीकार कर ली थी।
पहाड़ का जीवन मैदान -सा नहीं होता। यहाँ आबादी का धकमपेल नहीं। सङक पर चलने का अनुशासन याद दिलाते रहता है कि प्रकृति की गोद में की गई किसी बादमाशी के लिए निश्चय ही दंड मिलेगा। देवभूमि में ईश्वर के साक्षात् मुस्तैदी से सबूत को तोङने मरोङने की गुंजाइश नहीं होती। कोई दलील नहीं कोई वकील नहीं । यातायात अपराध के लिए त्वरित दंड वाली न्याय प्रणाली !! शायद इसीलिए यहाँ ट्रैफिक पुलिस नहीं दिखा। ...पहाड़ों का सुबह थोङा धीरे--धीरे जवां होता है। सन्यासियों के लिए एकदम माकूल। शायद इसलिए देवता यहाँ बिना अवरोध के भक्तों को टाइम मुहैया करा सकते हैं ! हम पतित मैदान का लगाव छोङ कैसे देते ! 04 जनवरी की सुबह पवन,अश्विनी साक्षात्कार देने हल्द्वानी निकले (मेरा 05 को होना था) और मैं सङक पर सुबह की रोशनी में पहाङों पर उतर रहे गुनगुने धूप को देखने निचली सङक पर उतर आया जो नैनी झील से लगी हुई है। कहा जाता है कि यह सङक जानवरों और भारतीयों के लिए निर्धारित था जिसके बगल वाली ऊंची सङक पर खङे अंग्रेज कूङा-कङकट फेंक दिया करते थे। शुक्र था कि तब पान गुटका की खोज नहीं हुई थी वर्ना....। अब अंग्रेज नहीं थे और काले अंग्रेजों के सदारत में मुझे 'जानवर पथ' पर चलने में कोई चिंता नहीं करनी थी। चलता गया और निहारता गया नैनी झील और उसमें पलने वाली मछलियों को जो सुबह बेखौफ मेरी तरह किनारे पर अंठखेलियां कर रही थीं। एक चाय देना भाई कह कर मैं एक जानकार युवा चाय दुकानदार से जब रूबरू हुआ तो पता चला कि जनवरी में बर्फबारी क्यों अब तक नहीं हुई। ग्लोबल वार्मिंग शब्द के अर्थ से वह चायवाला परिचित था। एक नयी बात कह गया कि यहाँ पहले जमाने में बांज के पेङ काफी बङी संख्या में होते थे जो अब काफी कम बचे हैं ,वे भी ठंड बढाने और स्थानीय पर्यावरण को रेगुलेट करने का काम करते थे। बांज बांझ नहीं था ...अद्भुत ...!
( 3 Travellers Amit Lokpriya , Ashwini Kumar & Pawan Kumar )
कैसे जाएं :-
निकटतम हवाई अड्डा 71 किलोमीटर दूर पंतनगर है । दिल्ली से यहां के लिए उङाने हैं । निकटतम रेलवे स्टेशन 35 किलोमीटर दूर काठगोदाम है जो सभी प्रमुख नगरों से जुड़ा हुआ है । नैनीताल राष्ट्रीय राजमार्ग 87 से जुड़ा हुआ है।
कब जाएं :- गर्मी में मार्च से जून तक और बर्फवारी देखने के उद्देश्य से दिसम्बर से लेकर फरवरी तक ।
© अमित लोकप्रिय
amitlokpriya@gmail.com