सलाम नमस्ते केम छू दोस्तों 🙏
वैसे तो मेरा और लखनऊ का पुराना नाता हैं पर जब से मेरी दीदी वहा रहने लगी हैं तब से वहा मेरा आना जाना लगा ही रहता है। हर बार किसी ना किसी काम करने के चक्कर में मैं लखनऊ भ्रमण से वंचित रह जाता था पर इस बार मैंने सोचा कि स्पेशली लखनऊ भ्रमण पर निकलते हैं जगह घूमने के लिए नहीं खाने के लिए।
नवाबों के शहर लखनऊ में जब स्ट्रीट फूड का जिक्र होता है तो हजरतगंज इलाके का नाम सबसे पहले आता है, हजरतगंज में एक खुबसूरत बाजार है जहाँ के टुंडे कबाब और इदरीस की बिरयानी पिछले कई दशको से पुरे विश्व में प्रसिद्ध है, बाजार का नाम है चौक बाजार| चौक बाज़ार अपने अंदर अवध का इतिहास समेटे पुराने लखनऊ में अकबरी दरवाजे से गोल दरवाजे तक यही कोई 500-700 मीटर के दायरे में फैला है|
आजकल जाम के मारे इस बाजार में पिछले कई सालो में काफी बदलाव आया है मगर यंहा मिलने वाले अवधी खाने का स्वाद वही है जो नवाबो के दौर में होता था| लखनऊ जाने वाले पर्यटकों में शायद ही कोई एसा पर्यटक होगा जिसे यंहा मिलने वाले अवधी खाने और चाट का जायका ना पसंद हो| मुझे इस बार लखनऊ भ्रमण के दौरान मौका मिला चौक जाकर टुंडे कबाब और इदरीस की बिरयानी खाने का, टुंडे कबाब खाने में जितने स्वादिष्ट है उसका इतिहास उतना ही रोचक है जो की इस लेख में मै आपको बताऊंगा|
मै बड़े इमामबाड़ा से जब चौक की तरफ चला तो सूर्यास्त होने वाला था और जैसा मैंने चौक के बारे में सुना था की शाम ढलते ढलते चौक और भी जवान हो जाता है, बिलकुल सच बात निकली| लोग दिन भर की थकान के बाद लखनवी स्वाद का लुत्फ उठाने चौक बाजार में उमड़ पड़े, कश्मीरी चाय के साथ समोसा, बिरयानी और गोलगप्पे खाने वालो की जबरदस्त भीड़| शाही टुकडो की लज्जत चख रहे लोग टुंडे कबाब और इदरिस की बिरयानी के चटखारे ले रहे थे|
मुझे चाट खाने का शौख कम है इसलिए मै चौक चौराहे पर रुकने की बजाय टुंडे कबाब वाले की तरफ चल पड़ा| लेकिन टुंडे कबाब से 500-700 मीटर पहले एक छोटी सी दूकान आती है ‘ इदरीस की बिरयानी’ | जिसका नाम पढ़ते ही एक गीत याद आया जो डॉ. सुनील जोगी ने लिखा है की
तुम इदरीस की बिरयानी हो मै कंकड़ वाली दाल प्रिये , मुश्किल है अपना मेल प्रिये ये प्यार नहीं कोई खेल प्रिये
मैंने 5 साल पहले जब पहली बार ये गीत सुना था उसी वक्त से इदरीस की बिरयानी मेरे दिमाग में घूम रही थी हालाँकि मै नहीं जानता था के ये क्यूँ मशहूर है इतनी| खैर मै 5 साल बाद मै उसी दूकान के सामने खड़ा था, एक साधारण सी दूकान उसमे बैठने को कुछ कुर्सी और एक बड़ी सी मेज, बाहर चूल्हे पर पकती बिरयानी|
इदरीस की बिरयानी
इदरीस की बिरयानी की ये दूकान 1968 में मोहम्मद इदरीस नाम के एक शक्श ने शुरू की थी, उनके पिता उस समय लखनऊ के एक जाने माने बावर्ची थे और उनसे ही उन्होंने ये ख़ास बिरयानी बनानी सीखी थी| अभी हाल में इदरीस भाई के बेटे मोहम्मद हमजा दूकान सम्भालते है, उनके अनुसार बिरयानी का एक डेग ( पतीला ) तैयार होने में 3 घंटे लगते है और दिन में 20 डेग बनाये जाते है| तांबे के डेग में बिरयानी को कोयले के चूल्हे की धीमी आंच पर पकाया जाता है और उसमे हलके मसाले और दूध, मलाई मिलाई जाती है जो इसके स्वाद का राज है|
दूकान में बैठकर खाने की व्यवस्था अच्छी नहीं है सो मैने बिरयानी तो नहीं खाई मगर उनसे 2-3 मशहूर वैरायटी पूछ ली जिनमे से एक है दम बिरयानी और एक मटन बिरयानी| मटन बिरयानी को बनांते समय उसमे जाफरानी और मक्खन मिलाया जाता है बाद में उसे कोरमा और प्याज के साथ परोसा जाता है जो इसके स्वाद को और बढ़ा देते है| मटन बिरयानी ही यंहा सबसे बिकने वाली बिरयानी है अगर आप कभी जाते हो इनकी दूकान पर तो पैक करा कर घर या होटल पे ले जा कर खा सकते है अन्यथा दूकान पर खाने के लिए इंतजार करना पड़ सकता है |
इदरीस की बिरयानी न खा पाने के अफ़सोस के साथ मै विशव प्रशिद्ध टुंडे कबाब वाले की तरफ चल पड़ा, टुंडे कबाब का इतिहास भी काफी रोचक है |
टुंडे कबाब
मुह में रखते ही पिंघलने वाले टुंडे के कबाब की कहानी सदी भर पुरानी है, उस दौर में लखनऊ पर नवाब राज करते थे , नवाब साहब को कबाब बहुत पसंद थे मगर उनकी ढलती उम्र ने उनके दांतों को कमजोर कर दिया जिसकी वजह से वो अपने पसंदीदा कबाबो का लुत्फ नहीं उठा पा रहे थे| इस ढलती उम्र और कबाबो की आशकी ने नवाब साहब को एक अनोखा मुकाबला करवाने के लिए मजबूर कर दिया| मुकाबला कुछ यूँ था के अवध और आसपास के सभी बावर्चियों को कहा गया की जो सबसे मुलायम और रसीले कबाब बनाएगा उसे नवाब साहब द्वारा शाही नजरानो और तोहफों से सम्मानित किया जाएगा| मुकाबला शुरू हुआ आसपास के इलाके से कई बावर्ची आये और सबने कबाब बनाये मगर उस मुकाबले को एक शक्श ने जीता जिनका नाम था हाजी मुराद अली | हाजी साहब के कबाब नवाब को सबसे मुलायम और बेहतरीन लगे और उसी दिन से वो कबाब अवध में मशहूर हो गये, अब उन कबाब को टुंडे नाम देने के पीछे भी एक कहानी है| जैसे किसी इंसान की एक टांग नहीं होती तो उसे लंगड़ा कहा जाता है वैसे ही जिस इंसान के एक हाथ नहीं होता उसे टुंडा कहा जाता है| हाजी मुराद साहब के एक हाथ नहीं था इसलिए उनके द्वारा बनाये गये इन कबाबो का नाम पड़ा टुंडे के कबाब|
इदरीस की बिरयानी और टुंडे कबाब के अलावा भी चौक बाजार में कई अन्य अवधी व्यंजन है जो दुनिया भर में प्रशिद्ध है जैसे की निहारी कुलचा जो की लखनऊ का पसंदीदा नाश्ता है | चौक बाजार में शाकाहारी लोगो के लिए भी कई विकल्प है जैसे की मक्खन मलाई, दौलत की चाट और लब-ऐ-मशूक |
टुंडे कबाब की दूकान का पता
151, फूल वाली गली चौक, लखनऊ (उ.प्र )
शाम का समय चौक घूमने के लिए सर्वोतम समय है, लखनऊ का चौक बाज़ार काफी व्यस्त इलाका है इसलिए यहाँ मिलने वाला स्ट्रीट फूड ज्यादा स्वच्छ नहीं होता ज्यादातर दुकानों पर सबके सामने उनको पकाया जाता है और कई बार देखने से ही दिल भर जाता है इसलिए कोशिश करके एक दिन के लिए स्वच्छता को नजर-अंदाज कर लखनऊ के जायको का चटखारा ले सके|
दिन में रूमी दरवाजा और इमामबाड़ो को देखने के बाद चौक में सफ़र का अंत करना मेरे लिए वाकई में एक यादगार दिन बन गया अगर कभी फिर से लखनऊ जाने का मौका मिला तो जरुर अन्य व्यंजन भी चख कर देखूंगा| हो सकता है लेख में मैंने जानकारी कम दी होगी क्यूंकि मुझे फूड ब्लॉगिंग का अनुभव काफी कम है इसलिए चौक बाजार से जुड़ा कोई सुझाव हो तो कमेंट करके बता सकते हो|