घुमक्कड़ी का एक अपना मिजाज होता है। घूमना हमारी जिंदगी की तरह ही है। कभी इसका सफर बहुत अच्छा होता है और कई बार सफर वैसा नहीं होता है, जैसा हम चाहते हैं। मुझे पहाड़ों में यात्रा करना बेहद अच्छा लगता है। कुछ समय से पहाड़ों में किसी न किसी वजह से नहीं जा पा रहा था लेकिन अब आया था तो कुछ नई जगहों पर जाने का मन था। उत्तराखंड में ऐसी ही एक जगह की मैंने यात्रा की, लंढौर।
हम सुबह 6:30 पर देवप्रयाग की मुख्य सड़क पर खड़े थे। पहले हमने टिहरी जाने का सोचा था लेकिन किसी वजह से वो प्लान कैंसिल हो गया। अब हम देहरादून जाने वाली बस के लिए खड़े थे। हमारे सामने काफी देर तक टिहरी की बस खड़ी रही लेकिन हम उस पर नहीं चढ़े। कुछ देर बाद टिहरी वाली बस चली गई लेकिन ऋषिकेश और देहरादून वाली बस अब तक नहीं आई थी।
ऋषिकेश
मुझे यहीं पता चला कि देहरादून जाने के लिए पहले ऋषिकेश जाना होगा। बस तो नहीं आई थी लेकिन हमें एक शेयर्ड जीप मिल गई थी। जिसका किराया साधारण किराये से थोड़ा ज्यादा था। हम सुबह की ठंडी हवा और खूबसूरत नजारों के बीच ऋषिकेश के लिए जा रहे थे। लगभग दो घंटे बाद हम ऋषिकेश के बस स्टैंड पर थे। मेरे दोस्त की एक ऑनलाइन मीटिंग थी इसलिए हम दो घंटे एक कैफे में बैठे रहे।
मीटिंग खत्म होते ही हम बस स्टैंड पर गये। जहां देहरादून के लिए बस लगी हुई थी। हम बस में जाकर बैठ गये। बस अपने समय पर चल पड़ी और समय पर देहरादून पहुंचा भी दिया। हमने बस स्टैंड पर ही एक कमरा ले लिया। देहरादून पहुंचते-पहुंचते हमें काफी देर हो गई थी और अब मेरे काम का समय हो गया था। कुछ देर के लिए मैं सो गया और फिर देर रात तक काम करता रहा। कुल मिलाकर इस दिन हमने कुछ भी नहीं घूमा।
मसूरी
अगले दिन हम सुबह-सुबह होटल से निकले। अब हमें मसूरी के लिए बस पकड़नी थी। हमारे सामने आईएसबीटी था लेकिन मसूरी के लिए बस देहरादून रेलवे स्टेशन पर बने बस स्टैंड से मिलती है। मुझे ये बात पहले से पता थी सो मुझे किसी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। रेलवे स्टेशन जाने वाली टैक्सी पर बैठे और कुछ देर बाद पहुंच भी गये। रेलवे स्टेशन पर घुसते ही देखा की मसूरी वाली बस निकल रही थी। हम जल्दी से उसमें चढ़ गये।
बस में बहुत ज्यादा भीड़ नहीं थी। बस देहरादून शहर से होते हुए जा रही थी। इस शहर में मैंने कुछ महीने नौकरी भी की थी। मुझे वो जगह याद आ रही थीं, जहां मैं जाया करता था। 5-6 किमी. के बाद देहरादून खत्म हुआ और हम मसूरी के घुमावदार रास्ते पर चलने लगे। कुछ साल पहले ऐसी ही एक बस से मैं मसूरी गया था। उस समय तो मेरी हालत खराब हो गई थी। इस बार ऐसा कुछ नहीं हो रहा था और खिड़की वाली सीट भी तो अपने पास ही थी।
बस जैसे-जैसे ऊपर बढ़ते जा रही थी, नजारे और भी सुंदर होते जा रहे थे। कुछ जगहों से पूरा देहरादून दिखाई दे रहा था। ऐसे नजारे देखकर मन ही मन में खुशी होती है। जब सड़क किनारे बहुत सारे होटल दिखाई देने लेगे तो हम समझ गये कि मसूरी आने वाला है। कुछ देर बाद बस रूकी और हम नीचे उतर गये।
कमरा और स्कूटी
अब हमें रहने का एक ठिकाना खोजाना था। पहले हमने एक लोकप्रिय हॉस्टल के यहां फोन किया। हॉस्टल के रेट सुनकर दिमाग ही झन्ना गया। अब हम लाइब्रेरी रोड से लाइब्रेरी चौक की ओर बढ़ने लगे। वहां पर कुछ लोग कमरे दिलाने के लिए खड़े थे। एक बुजुर्ग व्यक्ति को अपनी जरूरत और बजट का कमरा दिलाने को कहा। वो हमें एक नीचे जाती हुई सड़क पर ले जाने लगे। काफी नीचे जाने के बाद होटल पहुंचे।
वहां एक कमरा हमें पसंद आ गया और वो हमारे बजट में भी था। सबसे अच्छी बात इतने कम रेट में हमें बॉलकनी से सुंदर नजारे वाला रूम मिल गया था। हमने सामान रखा और बाहर निकल गये। अब हमें लंढौर जाना था। लंढौर मसूरी से 7 किमी. की दूरी पर था। लाइब्रेरी चौक पर स्कूटी रेंट पर मिल रही थी। हमने लंढौर स्कूटी से जाने का तय किया। कुछ देर बाद स्कूटी से लंढौर जा रहे थे।
लंढौर
हमें लंढौर जाने का रास्ता तो नहीं पता था लेकिन ये पता था कि लोगों से पूछते-पूछते लंढौर पहुंच ही जाएंगे। मसूरी से थोड़ा आगे बढ़ने पर हमने पेट्रोल पंप से पेट्रोल भरवाया और फिर लंढौर के रास्ते पर बढ़ गये। मैं सोचता था कि लंढौर मसूरी से 7 किमी. दूर है तो रास्ता थोड़ा सुनसान टाइप होगा लेकिन लंढौर तो मसूरी से बिल्कुल सटा हुआ है।
कुछ देर बाद हम पतले रास्ते पर चलने लगे। रास्ता कुछ देर तक ऊबड़-खाबड़ और चढ़ाई वाला था। रास्ते के एक तरफ लोगों के घर और होटल थे तो दूसरी तरप हरी-भरी घाटी दिखाई दे रही थी। इन सुंदर नजारों को देखते हुए कब हम लंढौर की गलियों में पहुंच गये, हमें खुद ही पता नहीं चला।
अब हमें लाल टिब्बा जाना था। मैं सोचता था कि लाल टिब्बा का मतलब कोई ऐसी जगह होगी, जहां ट्रेक करके पहुंचा जा सकता है लेकिन जब हम वहां पहुंचे तो वहां एक दुकान थी। जिसकी छत पर चढ़कर लोग फोटो ले रहे थे। उस दुकान की छत पर जाने के लिए बढ़े तो दुकानदार ने बताया कि छत पर जाने का 50 रुपए का टिकट लगेगा या फिर दुकान से कुछ लेना होगा। हमने उस दुकान का मेन्यू देखा तो हमारा छत पर जाने का मन ही नहीं हुआ।
बेक हाउस
मसूरी भीड़भाड़ वाली जगह है और लंढौर में सुकून ही सुकून है। पूरा रास्ता घने जंगलों से भरा हुआ है जो इस जगह को और भी खूबसूरत बनाता है। मसूरी के इतने पास होने के बावजूद यहां बेहद शांति है। लंढौर अंग्रेजों की बसाई हुई जगह है। उन्होंने ब्रिटेन के एक गांव के नाम पर इस जगह का नाम रखा। लंढौर एक छावनी क्षेत्र है। इस जगह के बाद अब हमें लंढौर बेक हाउस जाना था।
हम फिर से लंढौर के शांत और खूबसूरत रास्ते पर थे। ऊपर-नीचे जाने वाले रास्ते पर चलते हुए हम लंढौर के बेक हाउस पहुंच गये। लंढौर का बेक हाउस छोटी-सी इमारत में था। लंढौर का ये बेक हाउस लगभग 100 साल पुराना है। लंढौर बेक हाउस आज भी पुराना लेकिन सुंदर लगता है। लकड़ी की कुर्सियां और टेबल बेक हाउस में रखी हुई हैं। खिड़की किनारे ऐसी ही एक टेबल पर हम बैठ गये। बेक हाउस में हमने तीन अलग-अलग चीजें खाईं लेकिन उनका नाम अब मुझे याद नहीं है।
चार दुकान
बेक हाउस के अंदर तो खूबसूरती थी ही, बाहर का नजारा भी शानदार था। खिड़की के बाहर चीड़ का सुंदर जंगल दिखाई दे रहा था। लंढौर बेक हाउस में लगभग 1 घंटे का समय बिताने के बाद हम बाहर आ गये। हम कुछ मिनटों के बाद लंढौर में ही चार दुकान पर थे। चार दुकान लंढौर का एक पुराना इलाका है, जहां कुछ दुकानें हैं। इन दुकानों पर खाने के लिए काफी कुछ मिल रहा था। हमने यहां मोमोज और बर्गर का स्वाद लिया।
हम कुछ देर शांत लंढौर में ऐसे ही टहलते रहे। इसके बाद हमने स्कूटी उठाई और मसूरी के लिए वापस चल दिए। लंढौर के बारे में जितने अच्छे तरीके से कहा गया है, लंढौर वैसा ही खूबसूरत है। हमारा सफर तो अभी चल ही रहा था। हमें अभी काफी सारी जगहें देखनी थी।
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