घाघंरिया ट्रेक: सफर को यादगार बनाते हैं ये खूबसूरत पड़ाव और पहाड़!

Tripoto
Photo of घाघंरिया ट्रेक: सफर को यादगार बनाते हैं ये खूबसूरत पड़ाव और पहाड़! by Musafir Rishabh

घूमना, मेरी अब तक की जिंदगी में सबसे अच्छी चीज हुई है। जिंदगी में हर कोई घूमता ही रहता है लेकिन घूमने को ही मकसद बनाना बहुत कम लोग करते हैं। घुमक्कड़ी ऐसी चीज है जो हर बार कुछ नया देती है। नई जगह, नए एहसास लेकर आती है। नए लोगों से मिलने का मौका देती है, उस जगह के बारे में सोचने का, समझने का मौका देती है। अगर वो सफर पहाड़ों का हो तो इससे बेहतर सफर मेरे लिए कुछ नहीं हो सकता। यहाँ न कहीं जल्दी भागने की फिक्र है और न ही शहर का शोर। यहाँ आकर तो मैं एक अलग ही यात्रा पर निकल पड़ता हूँ। मैं एक बार फिर से उसी यात्रा के लिए पहाड़ों के बीच आ चुका था।

Tripoto हिंदी के इंस्टाग्राम से जुड़ें और फ़ीचर होने का मौक़ा पाएँ

प्रकृति की गोद में जोशीमठ

मैं जोशीमठ आ चुका था। मैं इस शहर को देखने लगा। पहाड़ पर होने वाले बाकी शहरों की तरह ही है ये शहर, जहाँ शांति और सुकून होता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन शहरों में कुछ नहीं होता है। यहाँ हर ज़रूरत का सामान मिल जाता है। शाम का वक्त और सफर के थकान की वजह से मैं ज्यादा दूर नहीं गया। मैं फिर से उसी तिराहे पर लौट आया। सबसे पहले वहीं तिराहे पर ही एक होटल लिया और फिर गपशप शुरू हो गई। जिस तीसरे दोस्त से मुलाकात हुई, उसे हम बाबा कह रहे थे और वो भी हमको बाबा कह रहा था।

रात हुई तो खाना खाने के लिए बाहर निकले। कुछ घंटे फिर से इस शहर को पैदल नापा और फिर चल दिए वापस अपने कमरे में। कल के सफर के बारे में बात हुई। उसके बाद तो तो बस बातें होती रहीं। बातें करते-करते कब नींद लग गई पता ही नहीं चला। सुबह जब नींद खुली तो मैं बालकनी में आ गया। ये जगह कितनी खूबसूरत है ये मैं सुबह की साफगोई में देख पा रहा था। चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे हरे-भरे पहाड़ हैं और उनके आसपास तैरते बादल। ये सब देखकर लग रहा था किसी ने मेरे सामने कैनवास में एक तस्वीर उकेरी दी हो। जिसमें खूबसूरती के लिए जो-जो किया जा सकता था, वो सब डाल दिया। पहाड़ से गिरता पानी इस दृश्य को और भी खूबसूरत बना रहा था।

मैं पहाड़ में कई जगह जा चुका था लेकिन इतना खूबसूरत नज़ारा पहली बार देख रहा था। लेकिन ये तो बस शुरूआत थी, ये सफर मुझे बार-बार अचंभित करने वाला था। हमें अपने सफर पर बहुत जल्दी निकलना था लेकिन किसी न किसी वजह से देर होती जा रही थी। हम वो सब सामान ले रहे थे जो अगले तीन दिन हमारे काम आने वाला था। हम तीन दिन इस सभ्यता से कटने वाले थे, जहाँ से ना हम किसी को संपर्क कर सकते थे और ना कोई हमें। अब फोन का एक ही काम बचा था, तस्वीरें लेना। हम कुछ देर बाद एक जीप मैं बैठ गए जो हमें 20 कि.मी. दूर गोविंदघाट तक ले जाने वाला था। हम फिर से गोल-गोल घूमने लगे। मैं पहाड़ों और पास में बहती नदी को देख रहा था। यहाँ अलकनंदा का एक अलग ही रूप देखने को मिल रहा था। पानी का प्रवाह इतना तेज था कि वो देखने में भयानक लग रहा था।

चुनौती की शुरूआत

कुछ ही देर बाद जीप से हम गोविंदघाट पहुँच गए। यहाँ से हमें दूसरी जीप पकड़नी थी जो हमें पुलना ले जाने वाली थी। गोविंदघाट से हमने डंडे खरीदे जिससे ट्रेकिंग करने में मदद मिलती है। हमें गोविंदघाट के स्टैंड जाना था, जो कुछ दूरी पर था। हमारा सफर शुरू हो चुका था, हम पैदल चल रहे थे। थोड़ा आगे चले तो एक हमें एक और संगम मिला। ये संगम अलकनंदा और लक्ष्मणगंगा के बीच था। हम समुद्रतल से 6,000 फीट की ऊँचाई पर आ चुके थे। हम उस जगह पर आ चुके थे जहाँ से हमें पुलना के लिए जीप लेनी थी। गोविंदघाट से पुलना की दूरी 4 कि.मी. है। आगे बहुत ज्यादा चलना होता है इसी वजह से ज्यादातर लोग जीप से ही जाते हैं। हम जिस जीप में बैठे थे उसने बताया कि गोविंदघाट से आगे कोई अपनी गाड़ी नहीं ला सकता। जो पुलना के स्थानीय निवासी हैं सिर्फ वही अपनी गाड़ी यहाँ ला सकते हैं। जो गाड़ी चलाते हैं, उन जीप की संख्या की भी सीमा है। जिसे परमिशन मिलती है वो ही जीप चला सकता है।

ये सब होने की वजह से ही सिर्फ 4 कि.मी. का किराया ₹40 है। थोड़ी देर बाद हम पुलना पहुँच गए। यहाँ से हमारी असली परीक्षा होने वाली थी। अब आजाद होने का समय आ गया था, अपने घुमक्कड़पने के रास्ते पर चलने का रास्ता मिल चुका था। यहाँ से हमें घांघरिया तक का ट्रेक करना था जो पुलना से 10 कि.मी. था। चुनौती ये नहीं थी कि हमें 10 कि.मी. चलना है, चुनौती थी अपने-अपने भारी बैग लेकर चलना। हमारा ट्रेक शुरू हो चुका था। हम रास्ते पर चल नहीं, चढ़ रहे थे। ये रास्ता पेड़ों से घिरा हुआ था जिस वजह से धूप नीचे तक नहीं आ पा रही थी। रास्ते में हमें खच्चर भी मिल रहे थे जो लोगों की मदद के लिए थे। बूढ़े, बच्चे और महिलाएँ खच्चर से जाएँ तो सही लगता है। लेकिन जब हट्टे-कठ्ठे नौजवान भी ऐसा करते तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता है।

रास्ता हरा-भरा है और पहाड़ों की ऊँचाई भी अच्छी-खासी है। बाबा बार-बार थक रहा था और उसके साथ के लिए मैं भी रूक रहा था। कुछ देर बाद हमें कई दुकानें मिलीं जिसमें से किसी एक में हम रूक गए। यहाँ हमने मैगी खाई और प्रकृति को निहारा। सामने ही पहाड़ से बहते पानी को देखकर अच्छा लग रहा था। सुकून क्या होता है, थकावट के बाद आराम क्या होता है? ये सब इस दुकान पर आकर समझ में आ रहे थे। चलते-चलते कभी-कभी रास्ता इतना शांत हो जाता कि लगता जैसे सिर्फ हम ही चल रहे हों। तब शांति इतनी होती कि थकावट भी आपको सुनाई देती है।

हम चले जा रहे थे लेकिन रूकते-रूकते। हम तीनों लोग एक साथ चल रहे थे और फिर हम सिर्फ दो बचे, मैं और बाबा। हमसे एक आगे निकल गया, बहुत आगे। लेकिन हम परेशान नहीं थे क्योंकि मुझे पता था कि आगे मिल ही जायेगा। इस जगह पर कोई भटकता नहीं है, हर कोई बढ़ता जाता है। वैसे ही जैसे हमारे बगल से नदी आगे बढ़ रही थी। हम अलकनंदा की विपरीत दिशा में बढ़ रहे थे। जिदंगी में और क्या चाहिए? ऐसा खूबसूरत सफर हो और उसमें पैदल चलता मैं।

आगे बड़ी-सी चट्टान पर छोटा-सा मंदिर मिला। पहाड़ों पर ऐसे छोटे-से मंदिर हर जगह मिल ही जाते हैं। मुझे इस मंदिर को देखकर तुंगनाथ का रास्ता याद आ गया, जब वहाँ भी इसी तरह का एक छोटा-सा मंदिर मिला था। रास्ते में जगह-जगह से पानी गिर रहा था। अगर वो जगह हमारी पहुँच में होती तो वो वाटरफाॅल बन जाता। वाटरफाॅल से खूबसूरत तो पहाड़ों से गिरने वाले पानी का ये दृश्य होता है। रास्ता कुछ ऐसा था कि पहले हम ऊपर की ओर चढ़ रहे थे और फिर नीचे की ओर उतर रहे थे। आगे बार-बार ऐसा हो रहा था। जब हम चढ़ते थे तब हमारी चलने स्पीड ज्यादा हो जाती और रूकने की संख्या ज्यादा हो रही थी। जब उतरते थे तब हम चलते भी तेज थे और रूकते भी कम थे।

एक मोड़ और खूबसूरत नज़ारा

मैं सफर में बार-बार मुड़कर देखता हूँ, शायद कुछ छूट गया हो तो पा लूँ। हम दोनों जब चलते ही जा रहे थे तब ऐसा ही एक मोड़ मिला जो नीचे की ओर जा रहा था। ये रास्ता लकड़ी से बंद था, इसलिए कोई इस रास्ते पर जाने की सोच नहीं रहा था। मैं सोच ही रहा था कि इधरा जाया जाए या नहीं। तभी बाबा ने कहा, चलते हैं जो होगा देखा जाएगा। किसी के साथ चलने का यही फायदा होता है। एक उम्मीद होती है साथ मिलकर भटकने की, साथ मिलकर ढूढ़ने की और सुस्ताने के भी। हम दोनों भी रास्ते से अलग हटकर नीचे जाने लगे। हम जैसे-जैसे आगे जा रहे थे मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी क्योंकि नदी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ने लगी थी। अब मुझे उस रास्ते की खोज से ज्यादा, उस नदी तक जाना था।

ये रास्ता जहाँ खत्म हुआ, वहाँ भगवान शिव का एक छोटा-सा मंदिर था। उसके सामने ही एक अंधेरी गुफा थी जिसमें बनी हुई थी। लेकिन आसपास कोई नहीं था। कुछ कदम दूर नदी थी, मैं उसी ओर चल दिया। नदी किनारे जाकर हम बैठ गये और इस दृश्य को देखने लगे। यहाँ कोई बादल नहीं थे लेकिन इस सफर का सबसे खूबसूरत दृश्य यही था। मेरे पैर पानी में थे और मैं उसे बहते देख रहा था। फुरसत से किसी चीज़ को देखते रहने का मतलब है, आप उससे मंत्रमुग्ध हो गए हैं। मैं इस जगह पर आकर मंत्रमुग्ध हो चुका था। मेरे बगल से कलकल करती नदी बह रही थी मेरे चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे हरे-भरे पहाड़ थे। सामने जंगल था, इन सबको देख रहा था मैं। मेरे जूते वहीं रेत पर पड़े थे, बैग को उसी मंदिर पर छोड़ आया था और मैं यहाँ बैठा था। ऐसा लग रहा था कि ये वक्त ठहरा रहे और मैं कुछ और ज्यादा देर यहाँ रूक सकें।

मैं बचपन में नदी किनारे एक खेल ज़रूर खेला करता था। पत्थर को पानी में फेंककर गुलाटी करते देखना। हम यहाँ भी वही करने लगे, बड़ा अच्छा लग रहा था फिर से बचपन में लौटकर। यहाँ आकर लग रहा था कि नीचे उतरने का फैसला सही था। इसलिए तो मैं कहता हूँ कि कभी-कभी रास्ता छोड़कर पगडंडी वाला रास्ता ले लेना चाहिए। नज़ारे बदलने से नज़रिया बदल जाता है। अगर वो रास्ता गलत भी होता है तो आपके पास वापस लौटने का भी एक रास्ता होता है। हमें भी लौटना था लेकिन यहाँ आकर एक बात तो समझ में आ गई थी कि ज़रूरी नहीं मंजिल ही खूबसूरत हो। कभी-कभी बीच में पड़ने वाले पड़ाव मंजिल से ज्यादा खूबसूरत होते हैं।

यहाँ के पहाड़ों और नदी के बीच रूके हुए हमें काफी वक्त हो गया था। शायद कुछ देर के लिए हम भूल ही गए थे कि हमारी मंजिल अभी आई नहीं है। हमें इस खूबसूरती के बीच में याद ही नहीं रहा कि हमारा एक साथी आगे हमारा इंतज़ार कर रहा है। हम जितने खुश हैं, शायद वो उतना ही परेशान हो। कुछ देर के लिए थमा हमारा सफर फिर से शुरू हो गया, हम फिर से चलने लगे। हम चल रहे थे क्योंकि हमारी मंज़िल नहीं आई थी। हम चल रहे थे क्योंकि हमारा एक साथी हमारे इंतज़ार में था। सबसे बड़ी बात अंधेरा होने लगा था। ये अंधेरा हमारे सफर को और भी रोमांचक बनाने वाला था।

हम दोनों जल्दी-जल्दी चल रहे थे क्योंकि हमें अपने तीसरे साथी तक पहुँचना था। हम कुछ दूर चले तो एक गाँव आया भुंडार। यहाँ लक्ष्मण गंगा अपने पूरे उफान पर थी। यहाँ हम एक बार फिर रूके क्योंकि हमें हमारा तीसरा साथी मिल चुका था। अब तक हम जंगल के छोटे-छोटे रास्ते में चल रहे थे जहाँ प्रकृति को कम देख पा रहे थे। यहाँ अचानक हम खुले मैदान में आ गए थे। चारों तरफ हरे-भरे पहाड़ थे और वहीं से उफनती आ रही थी, लक्ष्मण गंगा। यहाँ दो नदियों का संगम था, लक्ष्मण गंगा और शिव गंगा। मुझे इस संगम से ज्यादा अच्छा लग रहा था वो छोटा-सा पुल जिसे हम पार करने वाले थे। मुझे ये कच्चे पुल जाने क्यों पसंद हैं? मुझे ऐसे पुलों पर रूकने से ज्यादा इनको देखना बहुत पसंद है।

सुंदर तस्वीर-सा दृश्य

अभी तो हम ठहरे हुए थे और देख रहे थे उन पहाड़ों को। पहले मुझे हर जगह के पहाड़ एक जैसे लगते थे लेकिन अब इन पहाड़ों का अंतर समझता हूँ। यहाँ पहाड़ों में खूबसूरती भी है और शांति भी। खूबसूरत दृश्य था, पहाड़ों से कलकल करती नीचे आती नदी, आसपास पहाड़ और उसके बीच में एक कच्चा पुल। यहाँ आकर हर कोई एकटक इस नज़ारे को देखना चाहेगा। हम कुछ देर वहाँ ठहरे और इस सुंदर तस्वीर से विदा ली। हमने वो कच्चा पुल पार किया और आगे बढ़ चले। पहाड़ों में, खासकर नदी किनारे एक चीज़ आम है, छोटे-छोटे पत्थरों से एक श्रृंखला बनाना। पुल के पार भी यहाँ बड़े पत्थरों से ऐसा ही कुछ बना हुआ था। मैं उसको देखने के लिए करीब गया। वहीं खड़े स्थानीय व्यक्ति ने बताया उसको छूना नहीं। अगर वो गिर गया तो एक हजार रुपए देने पड़ेंगे।

पहाड़ों में आकर शहर की हर चीज़ छूट गई थी लेकिन ये जुर्माना नहीं पीछे नहीं छूट रहा था। उन पत्थरों को दूर से देखकर हम आगे बढ़ गए। हम आधा रास्ता तय कर चुके थे और आधा अभी बाकी था। सूरज ना होने के बावजूद शाम होने की थी। हम अंधेरे से पहले पहुँचना चाहते थे। लेकिन अब वो असंभव सा प्रतीत हो रहा था। हम यहाँ भी कुछ देर ठहरे और फिर से आगे बढ़ पड़े। कभी-कभी रास्ता इतना खूबसूरत होता है कि हम मंज़िल की फिक्र करना छोड़ देते हैं। ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ। हम रास्ते में इतना ज्यादा रूके कि शाम होने को थी और हम अभी भी अपने सफर पर थे। अब हमने तय किया कि कम रूकेंगे। जिससे जल्दी-जल्दी घांघरिया पहुँच सकें।

हम घांघरिया जल्दी पहुँचने की सोच रहे थे और आगे का रास्ता हमें रोकने के लिए तैयार खड़ा था। अब तक हम जिस रास्ते पर चल रहे थे। उस पर कभी ढलान थी और कभी चढ़ाई। लेकिन अब रास्ता सिर्फ चढ़ाई का था और ऊपर से अंधेरा। अंधेरा तो था लेकिन हमें चलना तो था ही इसलिए हम आगे बढ़ने लगे। मैं और बाबा साथ थे और हमारा तीसरा साथी हमेशा की तरह आगे निकल गया था। हम और बाबा आपस में बात कर रहे थे और सुन रहे थे बगल में बह रही नदी की आवाज़। अब देखने के लिए बचा था तो सिर्फ अंधेरा। उसी अंधेरे में हम बढ़ते जा रहे थे।

हम अपनी बातों में इतने मग्न थे कि अंधेरे के बारे में कुछ फिक्र ही नहीं कर रहे थे। थोड़ी देर बाद देखा कि एक लड़का दौड़ता हुआ हमारी तरफ आ रहा है। पास आया तो देखा कि ये तो हमारा ही दोस्त है। मैंने पूछा क्या हुआ, वापस क्यों लौट आये? उसने बताया कि मैं बहुत देर से तुम लोगों का इंतजार कर रहा था। जब तुम नहीं आये तो फिक्र हो रही थी। तब वही कुछ लोगों ने बताया कि अंधेरे में यहाँ भालू मिल सकता है। अब हम तीनों साथ तो थे लेकिन भालू का डर भी था। चांदनी रात की वजह से रास्ता खोजने में परेशानी नहीं हो रही थी। हम तो अब भी सही से चल रहे थे लेकिन बाबा धीमा हो गया था। शायद थकावट उस पर हावी हो गई थी।

रात का सन्नाटा

हम अब थोड़ी देर चलते और ज्यादा देर रूकते। हम जब रूकते तो मैं वो आसमान की तरफ देखता। मैंने इतनी खूबसूरत रात और इतना खूबसूरत आसमान नहीं देखा था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं एक रात किसी पहाड़ पर चढ़ते हुए चांदनी रात देखूँगा। चांदनी रात की वजह से नदी दूधिया सफेद लग रही थी। इन सबके बावजूद एक सन्नाटा चारों तरफ पसरा हुआ था। जो थोड़ा-थोड़ा डर भी दे रहे थे। उसी सन्नाटे के बीच से हम आगे बढ़ते जा रहे थे। हम कुछ आगे बढ़े थे तभी सामने कुछ चमकता हुआ दिखाई दिया। उस चीज़ को देखकर हमारे कदम ठिठक गए।

हमें अंदाज़ा भी नहीं था कि वो चीज़ क्या है? ऐसा लग रहा था कि वो किसी जानवर की आँखे हैं। हम कुछ देर वहीं खड़े रहे। जब वो चीज़ हिली नहीं तो हम डरते-डरते आगे बढ़े। उस जगह पर पहुँचकर देखा तो पता चला कि पत्थर पर सफेद चाक का निशान है। हम फिर से आगे बढ़ने लगे। इस घने जंगल में दूर-दूर तक कोई नहीं दिखाई दे रहा था। तभी पीछे-से कुछ आवाज़ें सुनाई दी। कुछ हमारे जैसे नौजवान थे, इनको देखकर अच्छा लगा। अब हमारे भीतर से डर थोड़ा कम हो गया था और घांघरिया पहुँचने का जज्बा शुरू हो गया था।

हम उनके साथ ही चलना चाहते थे लेकिन हम नहीं चल पाए। बाबा बार-बार रूक रहा था और हमें भी रूकना पड़ रहा था। फिर भी हम साथ थे तो कोई दिक्कत नहीं थी। कुछ देर बाद ऐसी जगह आई जहाँ दुकानें थीं। बहुत देर बाद लगा कि इस जंगल में भी कोई रहता है। हम वहाँ बहुत देर ठहरे रहे और फिर से आगे बढ़ चले। रात के अंधेरे के बाद हमारी चाल कुछ यूँ थी कि पहले हम अपनी चाल में चल रहे थे, फिर खच्चर की तरह खुद को ढो रहे थे और अब रेंग रहे थे। बाबा हम दोनों को सहारा बनकर चल रहा था।

श्रेय: बेस्ट पिक्चर।

Photo of घाघंरिया ट्रेक: सफर को यादगार बनाते हैं ये खूबसूरत पड़ाव और पहाड़! by Musafir Rishabh

कुछ देर बाद हमें कुछ रोशनी दिखाई दी। अचानक चेहरे पर खुशी आ गई। ये ठीक वैसे ही खुशी थी जैसी घर जाने पर होती है।हम आगे बढ़ ही रहे थे तभी आस-पास के पहाड़ों को देखने की कोशिश की। रात के अंधेरे की वजह से सब कुछ साफ-साफ नहीं दिख रहा था। फिर भी ये पहाड़ आसमान से बातें कर रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे बाहुबली का दृश्य सामने चल रहा हो। आसमान से बातें करता ये पहाड़ और उससे गिरता झरना। मैं इस विशालकाय पहाड़ को देखकर अवाक था। मैं बस उसे देखकर मुस्कुराए जा रहा था। हम कुछ देर रूककर उसी पहाड़ को देखने लगे।

रात की घनघोर छंटा

कुछ आगे बढ़े तो रोशनी के पास आये तो देखा चारों तरफ सिर्फ टेंट ही टेंट लगे हुए हैं। यहाँ टूरिस्ट टेंट में आसमान के नीचे रात गुजारते हैं। लेकिन हमें तो घांघरिया जाना था जो अभी भी एक किलोमीटर दूर था। मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है जब मंजिल पास आती है तो चाल धीमी हो जाती है। घांघरिया दूर नहीं था इसलिए हम धीमे-धीमे चले जा रहे थे। हम फिर से जंगल में आ गए थे। हम जब तक घांघरिया नहीं पहुँचे, हम उस विशालकाय पहाड़ के बारे में बात करने लगे। हमने एक-दूसरे से कहा, सुबह सबसे पहले इस जगह को देखने आएँगे।

श्रेय: कर्ली टेल्स।

Photo of घाघंरिया ट्रेक: सफर को यादगार बनाते हैं ये खूबसूरत पड़ाव और पहाड़! by Musafir Rishabh

थोड़ी देर बाद हम एक गली में खड़े थे और वहीं एक बोर्ड पर लिखा था, घांघरिया। हम घांघरिया आ चुके थे लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ था। उस सफर पर जाने से पहले हम बिस्तर पर पसरने के लिए ठिकाना ढूँढ़ना था। घांघरिया की गलियों में ठिकाना खोजते-खोजते एक जगह मिल गई। जगह अच्छी नहीं थी। लेकिन रात ही गुजारनी थी इसलिए हमने यहीं रूकने का फैसला लिया। इस गहरी रात से पहले मैंने बहुत कुछ पा लिया था। इसे लंबे सफर में बहुत सारे ठहराव थे। कुछ आराम करने के लिए, कुछ खूबसूरती को निहारने के लिए। इस रात के बाद ही पता चला कि खूबसूरत सिर्फ दिन ही नहीं होते, रात भी होती है। मैंने आज के सफर को एक मुस्कुराहट के साथ वापस याद किया और कल के सफर के लिए तैयार होने लगा। अब तक हमारा सफर पड़ाव का था, असली सफर तो अब शुरू होने वाला था। खूबसूरती का सफर, चुनौती का सफर।

आप भी अपने सफर की कहानियाँ Tripoto पर लिखें और हम उन्हें Tripoto हिंदी के फेसबुक पेज पर आपके नाम के साथ प्रकाशित करेंगे। सफरनामा लिखने के लिए यहाँ क्लिक करें।

कैसा लगा आपको यह आर्टिकल, हमें कमेंट बॉक्स में बताएँ।

बांग्ला और गुजराती में सफ़रनामे पढ़ने और साझा करने के लिए Tripoto বাংলা और Tripoto ગુજરાતી फॉलो करें

Tripoto हिंदी के इंस्टाग्राम से जुड़ें और फ़ीचर होने का मौक़ा पाएँ।