रोमांच क्या होता है? ये हेमकुंड साहिब ट्रेक पर समझ आया!

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Photo of रोमांच क्या होता है? ये हेमकुंड साहिब ट्रेक पर समझ आया! by Musafir Rishabh

मैं अपने सफर को वैसे ही लिखने की कोशिश करता हूँ, जैसा मैं उस समय सोच रहा था। पर हमेशा ऐसा हो नहीं पाता है। हर बार लगता है कि कुछ रह-सा गया है। मैं उस झिलमिल रात को सुनहरे शब्दों में दर्ज करना चाहता हूँ। चलते-चलते जो चिड़चिड़ापन आया उसको लिखना चाहता हूँ। शायद ऐसा करने पर मुझे अपना सफर अच्छे-से याद रहता है। ताकि जब भी मैं यादों के उस पन्ने से गुज़रुँ, तो मुड़-मुड़के अपने सफर को याद कर सकूँ। घूमते वक्त मैं कुछ अलग हो जाता हूँ, शायद कुछ नया पाने की तलाश में। एक पड़ाव पर मैं खड़ा था और आगे के सफर को पा लेना चाहता था। ये चुनौती भी है और इस सफर की खूबसूरती भी।

सफर की शुरुआत: ताज़गी भरी सुबह

Photo of रोमांच क्या होता है? ये हेमकुंड साहिब ट्रेक पर समझ आया! 1/2 by Musafir Rishabh
घांघिरया

सुबह-सुबह नींद खुली तो सिर थोड़ा भारी लग रहा था। सर्दी और जुकाम ने पकड़ लिया था, लेकिन सफर का उत्साह तो अब शुरू हुआ था। घांघरिया में ये हमारी पहली सुबह थी। रात के अंधेरे में घांघरिया को हम सही से देख नहीं पाए थे। घांघरिया, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी के रास्ते में पड़ने वाला एक छोटा-सा गाँव है। घांघरिया 3049 मीटर की ऊँचाई पर उत्तरी हिमालय पर बसा है। देखने में ये कहीं-से गाँव नहीं लगता। यहाँ चारों तरफ आपको होटल और रेस्टोरेंट ही मिलेंगे। कोई घांघरिया से आए या हेमकुंड साहिब से, उसका पड़ाव घांघरिया में ज़रूर रहता है। सर्दियों के समय ये रास्ता बर्फ से भर जाता है और यहाँ के लोग नीचे गोविंदघाट चले जाते हैं। इसलिए कुछ ही महीने होते हैं जब यहाँ ऐसा खुशनुमा माहौल होता है। सारी गलियाँ गुलज़ार रहती हैं, हर जगह चहल-पहल रहती है।

हम घांघरिया के ऐसे ही किसी होटल में सुबह की चाय की लुत्फ उठा रहे थे। आसपास पहाड़ ही पहाड़ नज़र आ रहे थे। घांघरिया में नेटवर्क आते हैं लेकिन तीन दिन से हमारी तरह नेटवर्क भी अपनी दुनिया से कट चुके थे। घांघरिया को देखकर मुझे एवरेस्ट मूवी याद आ गई। बिल्कुल वैसा ही नज़ाारा मुझे यहाँ नज़र आ रहा था। यहाँ के स्थानीय लोग अपने घोड़े और बास्केट लेकर लाइन से खड़े थे। कुछ लोग चाय का मज़ा ले रहे थे तो कुछ अपनी बोनी के लिए टूरिस्टों से मोल-भाव कर रहे थे। आगे के सफर के लिए हमारे पास दो खूबसूरत जगहें थी, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी। घांघरिया से फूलों की घाटी करीब 4 किलोमीटर दूर थी और हेमकुंड साहिब 6 किलोमीटर दूर। काफी विचार के बाद हम तीनों पहले सफर के लिए हेमकुंड साहिब के लिए राजी हुए। अब हमारी मंजिल थी हेमकुंड साहिब।

हेमकुंड साहिब के लिए कूच

घांघरिया से निकले ही थे, एक खूबसूरत नज़ारे ने हमारा स्वागत किया। दो छायादार पहाड़ों के बीच से एक रोशनी-सा चमकता पहाड़ नज़र आ रहा था। उस पहाड़ से भी ज्यादा खूबसूरत लग रहा था खुला आसमान। ऐसा लग रहा था कि आसमान भी खुशी से चहक रहा हो। थोड़ा ही आगे बढ़े तो एक और खूबसूरत नज़ारा हमारा इंतजार कर रहा था। चारों तरफ पहाड़ और उसके बीच से गिरता झरना। अभी तक मैं पहाड़ों के बीच झरने को बस दूर से देख रहा थे। ये नज़ारा मेरे खूबसूरत पलों में कैद हो गया।

हम इस ट्रेक में सिर्फ चढ़ रहे थे, उतरने का तो कहीं नाम ही नहीं था। जिस वजह से हम बहुत जल्दी थक रहे थे और बार-बार रूक रहे थे। हमारे सामने दो परेशानी थी। पहली परेशानी, हमें 12 बजे के पहले पहुँचना था। अगर देरी हुई तो गुरूद्वारे की अरदास में शामिल नहीं हो पाएँगे। दूसरी परेशानी थी बैग। हम बैग को घांघरिया में रख सकते थे लेकिन जोश-जोश में बैग को ले आया था। उसका खामियाजा अब थकावट के रूप में झेल रहा था। हम कुछ दूरी का टारगेट डिसाइड कर रहे थे और वहाँ तक पहुँचने की कोशिश कर रहे थे। कोशिश इसलिए क्योंकि वहाँ भी पहुँचना मुश्किल हो रहा था। जब मैं थक जाता तो मेरा साथी बैग ढोता और जब वो थक जाता तो मैं बैग उठाता। इस तरह हम धीरे-धीरे बढ़ रहे थे।

चलते हुए हम कुछ नहीं देख पा रहे थे उस समय तो सिर्फ चलना ही नाकाफी हो रहा था। जब कहीं रूकते तो सामने के खूबसूरत नज़ारों में खो जाते। इतनी ऊँचाई से हम घांघरिया को देखते और बौने नज़र आते लोगों को। ऐसी ही एक जगह पर हम खड़े थे तभी चारों ओर कोहरा छा गया। अब हमें कुछ नहीं दिखाई दे रहा था सिवाय इस कोहरे के। उसी कोहरे में हम लोग आगे बढ़ गए। हेमकुंड साहिब के ट्रेक पर हजारों लोग हमारे साथ जा रहे थे। कुछ लोग तो ट्रैवल कंपनियों के साथ इस ट्रेक को कर रहे थे। एक ग्रुप में कम से कम 20 लोग थे और ऐसे ही 4-5 ग्रुप थे। सभी ग्रुप में दो-दो गाइड होते हैं जो उनके साथ बराबर चलते रहते हैं। ऐसे ही चलते-चलते हमें एक 60 साल का नौजवान शख्स मिल गया।

वो हमारे साथ ही कदम मिलाकर चल रहे थे। उन्होंने एक घाटी की ओर इशारा करके बताया कि पहले ये चढ़ाई वाला रास्ता नहीं था। वो रास्ता बहुत सीधा और आसान था। बाद में बाढ़ और आपदा की वजह से वो रास्ता बंद हो गया। फिर इस रास्ते को बनाया। जो चढ़ाई के लिए बहुत कठिन माना जाता है। कुछ देर बाद मौसम ने फिर से करवट ली। कोहरे के बाद अब बारिश शुरू हो गई थी। हमारे पास पोंचा एक था और लोग दो। तब तय हुआ जो बैग टांगेगा, वही पोंचा का हकदार होगा। मैं बिना पोंचा और बैग के चलने लगा और मेरा साथी अब बैग के साथ बढ़ रहा था। हम रास्ते में बातें करते जा रहे थे और आंकलन कर रहे थे कि 12 बजे से पहले पहुँच पाएँगे या नहीं।

हम लंबी चढ़ाई से बचने के लिए बहुत सारे शाॅर्टकट ले रहे थे। काफी पेड़ों के बीच से तो कभी पहाड़ों के बीच से। कुछ देर बाद बारिश रूक गई। जिसका मतलब था हम बैग की कमान मेरे कंधों पर आने वाली थी। बारिश के बाद फिर से मौसम साफ हो गया था और हम फिर से खूबसूरत नज़ारों के बीच आगे बढ़े जा रहे थे। कुछ देर बाद एक दुकान आई, जिस पर हम कुछ ज्यादा देर रूकें। मैं बैग की वजह से काफी परेशान था। तब मैंने अपनी समस्या दुकान वाले को बताई, उसने बैग को अपनी दुकान पर रखने को कहा। बच्चे को खिलौने मिलने पर जो खुशी होती है, वही खुशी मुझे इस दुकानदार की बात सुनकर हो रही थी। मैंने उसे धन्यवाद कहा और खुशी-खुशी रूके हुए सफर को रफ्तार दी। कुछ देर बाद दुकानों का मुहल्ला मिला। यहाँ करीब 20-25 दुकानें एक साथ थी। हर जगह एक ही जैसी चीजें बिक रही थीं लेकिन सब की सब महंगी। सोचिए 10 रुपए वाली किटकैट 30 रुपए में मिल रही हो। तो फिर सस्ता ही क्या मिलेगा?

खूबसूरत ग्लेशियर

मेरे कंधे पर अब कोई भार नहीं था लेकिन थकान अब भी हो रही था। जितना मैं बैग के साथ चल रहा था, अब भी उतना ही चल रहा था। ये ट्रेक काफी थकान वाला हो रहा था। कहीं-कहीं खूबसूरत नज़ारा दिखता तो लगता कि अब यहीं रूक जाता हूँ और इस दृश्य को निहारता हूँ। उसके बाद ख्याल आता है इतना चढ़ने के बाद हार नहीं मान सकता। थके शरीर और तेज मन से आगे बढ़ने की कोशिश करता हूँ। उसके बाद सफर का सबसे खूबसूरत दृश्य दिखाई दिया। मेरे सामने एक लंबी सफेद चादर एक पहाड़ पर पसरी हुई थी। ये एक ग्लेशियर है जिसे यहाँ के लोग अटकुलुन ग्लेशियर बोलते हैं।

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थकान के बावजूद इस ग्लेशियर को देखने के बाद चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई। ये ग्लेशियर बहुत दूर तक फैला था और फैली थी दूर तक उसकी खूबसूरती। इसे देख मानो लग रहा था कि किसी ने सफेद मखमली चादर सूखने डाली हो। अब तक मैंने बचपन से ग्लेशियर के बारे में सुना था लेकिन आज वो पहाड़ मेरे एकदम सामने था। इसे देखना मेरे लिए वैसा ही था जैसा पहली बार पहाड़ को देखना। तब भी मैं उस खूबसूरती को बयां नहीं कर पा रहा था और इसे देखकर भी ऐसा ही कुछ महसूस कर रहा था। आप बस उस दृश्य के बारे में सोचिए नीचे पहाड़, ऊपर पहाड़, आसपास भी पहाड़ और उसी एक पहाड़ पर दूर तलक बस बर्फ ही बर्फ। कितना खूबसूरत होता है न हरे पहाड़ और बर्फ वाले पहाड़ का मिला जुला नजारा।

कुछ देर तक ग्लेशियर को देखने के बाद जब उसकी खुमारी कम हुई तो हम धीरे-धीरे आगे बढ़ गए। जैसे-जैसे ऊपर बढ़ रहे थे चलने की रफ्तार बहुत कम और रूकने का समय बहुत ज्यादा था। एक बार फिर से मौसम ने अंगड़ाई ली और बारिश ने अपना मोर्चा संभाल लिया। अब हम एक ऐसी जगह पर आ चुके थे। जहाँ से हमारे पास दो रास्ते थे एक तो गोल-गोल चलते जाओ, जैसा अब तक चलते आ रहे थे। दूसरा सीढ़ियाँ, जो कठिन तो थीं लेकिन सफर में कुछ नया लग रहा था। हम उसी सीढ़ियों से आगे बढ़ने लगे। हमने रास्ते में एक गाइड से सीढ़ियों की संख्या पूछी तो उसने हजार बताईं। अब तो लग रहा था कि जल्दी से हेमकुंड साहिब पहुँच जाऊँ। ये सफर खत्म होने को नाम ही नहीं ले रहा था।

आखिरी कदम

सीढ़ियों पर कुछ देर तो सही से चले और फिर थकावट हम पर हावी हो गई। हम यहाँ भी खूब रूक रहे थे और आते-जाते लोगों से ‘और कितना दूर’ पूछ रहे थे। जब हमें घने कुहरे में दूर से हेमकुंड साहिब का गेट दिखा तो ऐसा लगा कि बस यही तो देखना था। मैंने उस गेट के लिए एक लंबी दौड़ लगाई और जाकर हेमकुंड साहिब के गेट पर रूका। चारों तरफ कोहरा ही कोहरा था। हम देर से पहुँचे थे, अरदास हो चुकी थी। हम सीधे लंगर में पहुँच गए। लंगर में खिचड़ी, प्रसाद और गर्म-गर्म चाय मिली। जब गर्म-गर्म चाय का पहला घूंट अंदर गया तो मज़ा ही आ गया। ये लंगर मुझे सालों-साल याद रहने वाला था।

श्रेय: उत्तराखंड टूरिज्म

Photo of हेमकुंट साहिब, Uttarakhand, India by Musafir Rishabh

समुद्र स्तर से 4,329 मीटर की ऊँचांई पर स्थित हेमकुण्ड साहिब सिखों का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। हेमकुंड का अर्थ है, हेम यानी कि बर्फ और कुंड यानी कि कटोरा। कहा जाता है कि इसी जगह पर सिखों के दसवें और अंतिम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पिछले जीवन में ध्यान-साधना की थी और नया जीवन पाया था। सिखों का पवित्र तीर्थ हेमकुंड साहिब चारों तरफ से बर्फ की सात पहाड़ियों से घिरा हुआ है। हेमकुण्ड साहिब गुरुद्वारा की खोज 1930 में हवलदार सोहन सिंह ने की थी। हेमकुंड साहिब गुरूद्वारे के पास ही एक सरोवर है। इस सरोवर को अमृत सरोवर कहा जाता है। यह सरोवर लगभग 400 गज लंबा और 200 गज चैड़ा है। हेमकुंड साहिब ही वो जगह है, जहाँ राजा पांडु योग करते थे।

आ अब लौट चलें!

मौसम हमारे साथ नहीं था, इसी वजह से हम साफ-साफ कुछ नहीं देख पाए। हमें कोहरे में ही झील को देखना पड़ा। कुछ देर रूकने के बाद हम फिर से वापस हो लिए। हम कुछ देर ही आगे बढ़े तो एक नई समस्या सामने आ गई। मेरे साथी का पर्स गायब था। जेब में था नही, इसका मतलब कहीं गिर गया था। वो वापस हेमकुंड साहिब गया और करीब घंटे भरे बाद वापस लौटा। उसका चेहरा बता रहा था कि उसका पर्स नहीं मिला था। मैं सोच पा रहा था कि सफर में अगर पर्स खो जाए तो कितना मुश्किल होगा। मेरे साथ ऐसा होता तो पक्का टूट जाता। शायद वो भी अंदर से टूट चुका था। उसके लिए ये ट्रेक हमेशा बुरी याद के तौर पर रहने वाला था।

Photo of रोमांच क्या होता है? ये हेमकुंड साहिब ट्रेक पर समझ आया! by Musafir Rishabh

वो एक जगह बैठ गया था, वो आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं था। उसने मुझे जाने का कहा लेकिन मैं उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहता था। वो कुछ देर अकेला रहना चाहता है, उसने कहा। मैं फिर भी रूका रहा लेकिन उसे जोर देकर मुझे जाने को कहा। तब मैं आगे बढ़ गया। चढ़ना जितना कठिन है, उतरना उतना ही आसान है। हम लौट नहीं रहे थे, चढ़ने के लिए वापस जा रहे थे। मौसम फिर बदला और सब कुछ साफ हो गया। रास्ते में ही एक झरना मिला, हम उसी पहाड़ी पर कुछ पलों के लिए ठहर गये। मैं अब हमारे पास समय ही समय था। मैं उस तेज धार में बहते पानी को देख रहा था। मेरे सामने शांत पहाड़ भी थे और तेज बहती नदी।

कुछ देर ठहरने के बाद आगे चलने के लिए जैसा ही उठा मैं फिसल गया। अचानक मैं अंदर से डर गया, अगर थोड़ी फिसलन और होती तो मैं पानी में होता। मैं संभलकर, रूककर उस पहाड़ से नीचे उतरा। तब मन ही मन एहसास हुआ पहाड़ भी खतरनाक है और नदी भी डरावनी। मेरा सिर चकरा रहा था, शायद लगातार चलने से या इतनी ऊँचाई पर आने की वजह से। हम फिर से आगे बढ़ने लगे। अब नीचे उतरने में थोड़ा अंतर आ गया था। मेरे उतरने में भी और मेरे स्वभाव में भी। ऐसा लग रहा था कि दिमाग फट रहा है, टांगे बस में नहीं हैं और चिड़चिड़ापन जोरों पर है। अब फिर से मेरे कंधे पर बैग था जिसे लेकर उतरना और भी मुश्किल हो रहा था। चलते-चलते कई बातें दिमाग में चल रही थीं। थकावट की वजह से मन कर रहा था, सफर यहीं खत्म किया जाए और वापस लौटा जाए। वापस जब घांघरिया लौटा और बिस्तर पर पड़ा तो फिर अगले दिन ही उठा।

सफर में कई बार ऐसा होता है जब थकावट दिमाग पर हावी हो जाती है। ऐसे में अपने अुनुभव से बता रहा हूँ अपना दिमाग अपने साथ लेकर जाएँ। अगर वहाँ हार जाते हैं तो आप बहुत कुछ हार सकते हैं। एक सफर को पूरा करना, बहुत कुछ जीत लेने जैसा है। मैंने हेमकुंड साहिब का ट्रेक करके बहुत कुछ सीखा है, बहुत कुछ जाना है। अंत में एक चीज याद रहती है वो खूबसूरत सफर। हेमकुंड का ये ट्रेक मेरे लिए कठिन ज़रूर रहा हो लेकिन यादगार हमेशा रहेगा।

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