मेरी स्वर्गारोहिणी यात्रा :- तारीख थी 2 अक्टूबर, सुबह सुबह करीब 6 बजे मै शॉप पर पहुंच चुका था

Tripoto
20th Nov 2020
Photo of मेरी स्वर्गारोहिणी यात्रा :- तारीख थी 2 अक्टूबर, सुबह सुबह करीब 6 बजे मै शॉप पर पहुंच चुका था by Gaurav Rana
Day 1

मेरी स्वर्गारोहिणी यात्रा :-

तारीख थी 2 अक्टूबर, सुबह सुबह करीब 6 बजे मै अपनी शॉप पर पहुंच चुका था क्योंकि उस दिन मेरे कुछ मित्र दिल्ली से केदारनाथ जा रहे थे और वह मुझसे मिलने वाले थे कुछ इंतजार के बाद वह तीनो (भानु प्रताप सिंह, मनोज कुमार, गोपाल दीक्षित) भाई लोग आ गए और हम बैठ कर बातें करने लगे क्योंकि मै अभी अभी केदारनाथ हो कर आया था तो मै अपना ताज़ा अनुभव शेयर करने लगा। फिर करीब आधा घंटा बात करने के बाद भाई लोग आगे के लिए रवाना हो गए पर मेरा मन भी उनके साथ ही चला गया और मेरे अंदर का राइडर जाग गया अब शॉप पर मेरा मन नहीं लग रहा था मै बहुत बैचैन हो गया तो मै वापस घर गया और अपनी पत्नी को बोला की मै कुछ दिन के लिए बाहर जा रहा हूं मेरे इस औचक फैसले से पत्निजी अचंभित थी पर वो समझ गई कि जो लोग मुझसे मिलने आए थे वो मुझे बैचैन कर गए है, तो उन्होंने मुझे परमिशन दे दी और मेरा सामान जो हर समय पैक होता है उसे बाइक पर लगाने में मेरी हेल्प करने लगी। इस बार मै अपने साथ कैंपिंग का सामान भी ले जाने लगा तो श्रीमती जी ने पूछा कि कितने दिन का प्रोग्राम है तो मैंने उनको 3 दिन का बोलकर उनसे और बच्चों से विदा ली। सुबह के 11 बज चुके थे और मै घर से निकल गया कोटद्वार की तरफ। रास्ते में अपने एक मित्र के जरिए मैंने एक -20 डिग्री का स्लीपिंग बैग लिया और आगे रवाना हो गया। मेरे मन में विचार बद्रीनाथ जी जाने का था तो मै शाम तक श्रीनगर पहुंच गया वहां खाना खाकर मै आगे बढ़ चला दिन ढल चुका था और मै बढ़ा जा रहा था आगे कि और क्योंकि मै रास्ते मै ज्यादा समय व्यर्थ नहीं करना चाहता था तो मैंने रात में भी ड्राइविंग चालू रखी और करीब 11 बजे मै कर्णप्रयाग पहुंच गया और वहां पर एक पुल के पास एक दुकान के आगे अपना टेंट लगाकर रात बिताने की व्यवस्था की और सो गया। सुबह करीब 4 बजे आंख खुली और मै फिर से आगे निकलने के लिए अपना टेंट और समान समेटने लगा। 5 बजे मै वहां से आगे बढ़ चला और करीब 11 बजे के आसपास मै जोशीमठ पहुंच चुका था। वहां पर कुछ विश्राम और नाश्ते के बाद मै आगे बद्रीनाथ के लिए निकल गया और शाम करीब 5 बजे के आसपास मै बद्रीनाथ पहुंच चुका था। मंदिर में दर्शन करके मै वहां से आगे माना गांव की और बढ़ गया और गांव में एंट्री ना होने के कारण वापस बद्रीनाथ जी आकर मै टेंट लगाने के लिए जगह की तलाश करने लगा तो एक भाई से बात करके मैंने उनके होटल के कंपाउंड में अपना टेंट लगा लिया और उस भाई के द्वारा ही गुपचुप तरीके से एक गाइड से बात करके उसे सवेरे 5 बजे आने को बोलकर और उसकी पेमेंट करके मै खाना खाकर सो गया। सवेरे 6 बजे गाइड ने आवाज़ देकर मुझे उठाया काफी थका होने के कारण आंख ही नहीं खुल सकी थी तो मै जल्दी जल्दी आगे की तैयारी में व्यस्त हो गया और 8 बजे तक सारी तैयारी पूरी करके हम लोग आगे बढ़ने को तैयार थे। नाश्ता करके 9 बजे हम दोनों लोग निकल पड़े आगे के लिए (अभी तक आपको शीर्षक से पता लग चुका है कि मै सतोपंत- स्वर्गारोहिणी की यात्रा के लिए ही आया था, तो अब कहानी आगे बढ़ते है)।

हम लोगो की यात्रा की शुरुआत सरस्वती नदी को पार करने से हुई, यह वही स्थान है जहां सरस्वती नदी, अलकनंदा नदी में समा जाती है। (यह मान्यता है कि सरस्वती नदी यहां से पाताल में चली जाती हैं)।
मेरा गाइड जो कि नेपाल का रहने वाला था उसे देखकर ही एहसास हुआ कि हमारी टीम बहुत बढ़िया है,  या शायद उसकी बॉडी लैंग्वेज के कारण। मेरी बाइक वहीं उस होटल में पार्क थी जहां मेंने रात्रिविश्राम किया था। साथ ले जाने वाले सामान के बारे में फैसला करना आसान नहीं था, चढ़ाई के दौरान एक ग्राम वजन भी ज्यादा लगता है, लेकिन जरूरत की सारी चीजे यही से ले जानी थी तो मेरा बेग कुछ ज्यादा ही बड़ा हो गया था और वजनी भी। खैर मेरे पास मेरा समान था और गाइड के पास उसका, हमने पोटर को ना ले जाने का फैसला रात को ही कर लिया था क्योंकि मेरा बजट कुछ कम था तो गाइड का कुछ पैसा बढ़ाने पर वो भी सहमत हो गया। खैर हमने माना गांव के पास से सरस्वती नदी पर बने पुल से पार करके अपनी यात्रा शुरू कर दी थी कुछ आगे चलते ही हमें वसूधारा और अलकापुरी की चोटियां नजर आने लगी थी। और हमारा पहला पड़ाव था लक्ष्मी वन जो कि अलकापुरी के ठीक नीचे और नदी के दूसरी तरफ है।माना से लक्ष्मी वन की दूरी 8 से 9 किमी है। सतोपंत की यह यात्रा पांडवो के साथ भी जोड़ी जाती है। सातोपंथ झील जिसे बैकुंठ धाम भी कहते है, जहां स्वयं विष्णु निवास करते हैं, वहीं स्थान पांडवो ने अपनी अंतिम यात्रा के लिए चुना और रास्ते में अलग अलग स्थानों पर देहत्याग किया, केवल युधिष्ठिर ही आगे जा पाए थे। हमारी पूरी यात्रा उसी पहाड़ी श्रृंखला जिस पर बद्रीनाथ स्थित है उसके दूसरी तरफ होने वाली थी। जिसका अर्थ यह था कि जिस नीलकंठ पर्वत को हमने बद्रीनाथ से देखा था, उसे मै उसके पीछे से भी देखने वाला था। शुरू में रास्ता बहुत हरा भरा था लेकिन कुछ आगे जाते ही वीरान इलाका शुरू हो गया था।
पतली पगडंडियों पर चलते हुए एक घंटा बीत चुका था तो मै एक जगह पर कुछ विश्राम के लिए रुक गया। वहां से चारो तरफ देखा तो बगल की पहाड़ी श्रृंखला पथरीली थी , जो साल भर में करीब 8 माह बर्फ से ढकी रहती है और करीब 4 किमी चलने के बाद मै एक ऐसे स्थान पर पहुंचा जहां पर बहुत से फूल खिले हुए थे। इसे आनंद वन कहते है। हालांकि अब यहां घास सूखने लगी थी। वहां पर एक पत्थर से पैर फिसलने से मै गिर गया जिससे मेरे हाथ में थोड़ी चोट आ गई, शास्त्रों के हिसाब से नकुल ने यही पर देहत्याग किया था, द्रोपदी की मृत्यु तो माना गांव मै ही हो गई थी। इसके आगे एक किमी का रास्ता बहुत कठिन था। यहां तक पहुंचते हुए हमारा पानी खतम हो चुका था और यहां पानी का कोई श्रोत भी नहीं था, तो हम आगे बढ़ चले। वहां से सीधी ढलान थी जो कि हमें नदी तक ले गई। वहां पर हमने पानी पिया और रास्ते के लिए अपनी बॉटल भर ली और आगे बढ़ चले। आगे का रास्ता खतरनाक था फिर एक बोल्डर जोन को पार करने के बाद हमें एक खड़ी चढ़ाई मिली और अब रास्ते कि कठिनाई का एहसास पूरी तरह से होने लगा। नीचे से मैंने ऊपर की तरफ बर्फ से लदे पहाड़ों की और देखा। गाइड ने बताया कि इस धारू ग्लेशियर कहते है।अब तक थकान कि वजह से मेरी गति भी पहले से धीमी हो चुकी थी।
दूर पहाड़ों पर मुझे भोजपत्र के पेड़ दिखाई देने लगे थे। यहां तक मैंने कई छोटी बड़ी धाराएं पार की थीऔर अब हम एक विशाल मैदान में थे।उसके आगे हमने एक लैंडस्लाइड जोन को पार किया और एक और मैदान में पहुंच गए जिसके ठीक सामने नदी के दूसरी तरफ वासूधारा वॉटरफॉल था।( कहते हैं कि यहां पर 8 वसूओ ने करीब 30 हजार साल तपस्या कि थी जिसके बाद नारायण ने प्रसन्न होकर उन्हें भक्ति का आशीर्वाद दिया था) तभी से इसका नाम वसु धारा पड़ा।
माना गांव से यह कुछ कुछ नजर आता है और लगता है कि करीब ही है लेकिन यहां पहुंचने में हम 5 घंटे लग चुके थे। अलकापुरी अब साफ साफ दिखाई देने लगा था और लक्ष्मी वन यहां से करीब 1 किमी ही रह गया था तो मै वहां पर करीब 1 घंटा बैठा रहा।और वसु धारा की सुंदरता को निहारता रहा।
अब आगे बढ़ना था तो निकल चले अब तक हम 12000 फीट की ऊंचाई पर आ चुके थे।फिर थोड़ी ही देर में हम लक्ष्मी वन पहुंच गए। वह भी एक छोटा सा मैदान ही है जिसके एक तरफ विशाल ऊंची पथरीली दीवार है तो दूसरी तरफ अलकनंदा नदी और उसके ठीक पीछे बर्फीली पहाड़ी है, अलकापुरी पर्वत का बेस यही है। मेरे सामने कुबेर पर्वत था और दाई तरफ अलकापुरी थी।

मैं तो मानो स्वर्ग में था मैं बहुत खुश था सारी थकान के बावजूद में बहुत रोमांचित महसूस कर रहा था। वहां पर ही हमने टेंट लगा लिया और वहीं पर रात बिताने का फैसला किया। वह रात मेरे जीवन की सबसे लंबी रात थी क्योंकि मुझे पूरी रात नींद नहीं आई। रात में तापमान 0 डिग्री से कम था और पता नहीं किसी जानवर की आवाज़ भी रह रह कर आ रही थी जो मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी तो मैंने अपने टेंट में अपना स्टोव जला लिया जिससे उजाला भी ही गया और रोशनी की वजह से वो जानवर भी उधर नहीं आया।
खैर अगला दिन निकल आया और मै अपने टेंट से बाहर आया तो मै एकदम से जड़वत हो गया मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। जो नजारा मेरे सामने था वैसा नजारा मैंने अपने पूरे जीवन में कभी नहीं देखा था, अलकापुरी पर्वत पर सूर्य की किरणे पड़ रही थी और उस पर पड़ी बर्फ सुबह की रोशनी में सोने की तरह दमक रही थी।
मै काफी देर तक उस नजारे में खोया रहा तब तक मेरे गाइड ने नाश्ता तैयार कर दिया था। तो अब मै नित्यकर्म से फारिग होकर नाश्ते पर टूट पड़ा। गर्म मैगी और चाय साथ में बिस्किट मज़ा आ गया नाश्ते का। ठंड बहुत अधिक थी पानी भी जम चुका था जिसे गर्म करके पिघलाकर इस्तेमाल किया गया।
अलकापुरी के ठीक नीचे एक ग्लेशियर दिखाई दे रहा था जो कि लाखों टन मिट्टी और पत्थरों से ढका था।अलकनंदा नदी के उद्गम को अब मै साफ साफ देख पा रहा था।इस हिस्से को भागीरथी खरक ग्लेशियर कहते है और इसी के बगल से हमें जाना था तो हमने नाश्ता किया, अपना सामान समेटा और निकल पड़े आगे की और। 
कुछ आगे जाने पर हमें चौखंबा ग्लेशियर दिखाई देने लगा था। आज चटख धूप निकली हुई थी और मौसम बहुत अच्छा था। इस जगह पर कहीं से एक कुत्ता आ गया और हमारे साथ साथ चलने लगा तो मैंने उसे कुछ बिस्किट खाने को दिए।
अब ऑक्सीजन की कमी खलने लगी थी कुछ आगे जाने पर मैंने अपने आप को दो ग्लेशियरों के बीच में पाया। दाई तरफ भागीरथी खड़क ग्लेशियर था तो बाई तरफ सतपंथ ग्लेशियर था। तो हम लोग बाई तरफ बढ़ चले अब तक वह कुत्ता मेरे साथ बहुत अच्छी तरह से घुल मिल चुका था। अलकनंदा नदी को विष्णुपदी भी कहा जाता है। मान्यता है कि यह विष्णुकुंड से निकलती है औरसतोपंथ ग्लेशियर के नीचे से बहती हुई अलकापुरी से बाहर आती है तो मैंने अलकनंदा के उद्गम स्थान को नमन किया और आगे बढ़ चला। रास्ता बहुत ही कठिन था और मैं जल्दी जल्दी थक जाता था, तो बैठ कर सुस्ताने लगता था और कुत्ता भी मेरे पास आकर बैठ जाता और फिर हम दोनों खेलने लगते। वह मुझसे कुछ कहता हुआ प्रतीत होता था पर मै मुरख उसकी जबान नहीं जानता था तो समझ नहीं पाया।
दोपहर में भी पानी जमा हुआ था, थोड़ा थोड़ा पानी ही बह रहा था जिसका हम यूज कर रहे थे पीने के लिए। वहां पर मुझे एक साधु वापस आते हुए मिले जिन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि आगे का रास्ता हरा भरा है और मै उड़ते हुए पहुंच जाऊंगा पर मुझे मालूम था कि ये मेरा हौसला बढ़ा रहे हैं ऐसा कहकर।
खैर हम उनसे विदा ले आगे कि और बढ़ चले थोड़ी डर चलने के बाद हम लोग सहस्त्र धारा पहुंच चुके थे यहां से मुझे स्वर्गारोहिणी ग्लेशियर साफ साफ नजर आने लगा। यह ऐसा नजारा था जिसको बयान करने के लिए मेरे शब्दकोश में शब्द ही नहीं है मेरी आत्मा तक में इस नजारे की एक अमिट छाप, छप चुकी थी।
सहस्त्र धारा के छोटे बड़े सैकड़ों झरने हमारे सामने थे, यह एक विहंगम दृश्य था। मेरी नजर उस नजारे से हट ही नहीं रही थी तो मै वहीं पर बैठ गया और नजारों को अपनी आंखों में कैद करने लगा। अब मुझे बहुत ज्यादा मज़ा आने लगा था। सामने स्वर्गारोहिणी, बाई तरफ सहस्त्र धारा और दाई तरफ सतपंथ ग्लेशियर और इनसे घिरकर मै सब कुछ भूल गया था, बस याद था तो वह पल जिसको में जी रहा था।
सहस्त्र धारा के ऊपर की तरफ जो ग्लेशियर है वह नीलकंठ पर्वत है। काफी छोटी छोटी धाराएं जम चुकी थी और बड़ी धाराओं का वेग भी कुछ कम ही था।
खैर अब हम आगे बढ़े तो थोड़ा चलने पार हमें एक मैदान मिला जहां पर हमने खाना बना कर खाया और 1 घंटा विश्राम किया और फिर आगे बढ़ गए।
करीब 1 किमी चलने के बाद हम चक्र तीर्थ पहुंच गए यही वह स्थान है जहां सहदेव ने शरीर त्याग दिया था। चक्रतीर्थ चारो तरफ से पहाड़ियों से घिरा हुआ एक मैदान ही है। यहां से चौखंबा पर्वत पास ही नजर आ रहा था।पीछे देखने पर नीलकंठ पर्वत की आभा मन को शांति का एहसास करा रही थी। अब यहां से रास्ता 50 डिग्री खड़ी चढ़ाई वाला था और हमारा पानी खतम होने वाला था और यहां पर पानी का कोई श्रोत भी नहीं था तो हमे थोड़े से पानी के साथ ही इस खड़ी चढ़ाई को पार करना था जो कि बहुत कठिन काम था। सामने चोटी पर एक लाल रंग का झंडा दिखाई दे रहा था और हमें उसी दिशा में चढ़ना था क्योंकि वह सही रास्ते की निशानी था। हमारा कुत्ता भोलू(मैंने उसे ये नाम दिया था) सबसे आगे था फिर गाइड और सबसे आखिर में मै चल रहा था।
जैसे जैसे मै ऊपर चढ रहा था, और भी ज्यादा नए नए ग्लेशियर दिखाई देने लगे थे। वहां पर उनके टूटने की आवाज़ भी रह रह कर गूंज उठती थी।
अब सांस लेने में दिक्कत होने लगी थी, ऑक्सीजन बहुत ही कम थी। चार कदम चढ़ने में ही सांस फूल जाती थी। फिर करीब 1 घंटे बाद हम ऊपर चोटी पर पहुंच गए को एक तलवार कि घार के जैसी थी।
अब हमे दूसरी तरफ नीचे उतारना था पर दिक्कत ये थी कि वहा की मिट्टी ढीली थी और कदम रखने के साथ पत्थर हिल रहे थे।ये पत्थर जिन्हें मोरेन कहते है उनके नीचे ग्लेशियर की एक मोटी लेयर होती है और वह नीचे नीचे ही पिघलती रहती हैं जहां वह ज्यादा पिघल जाती है वहां एक बड़ा ए रिया नीचे की तरफ धस जाता है। कोई नहीं जानता के नीचे के ग्लेशियर की क्या स्तिथि है, इसलिए यह भरोसा करके है चलना पड़ता है किकाम से कम आज सब कुछ ठीक रहेगा और सभी चीजे स्थिर रहेंगी।
अगला 3 किमी का रास्ता ऐसा ही था। पत्थर के ऊपर पत्थर रख कर रास्ते की निशानदेही की गई थी। यहां पर रुकना खतरनाक हो सकता था क्योंकि हम ग्लेशियर के ऊपर बिल्कुल बीचोबीच में थे, तो हम चलते रहे धीरे धीरे।

अगर मै इस ग्लेशियर के रास्ते की तुलना गोमुख ग्लेशियर वाले रास्ते से करू जो तपोवन तक जाता है तो यह रास्ता उसके मुकाबले मुझे सुगम लग रहा था, क्योंकि तपोवन जाते वक़्त मै 2 या 3 बार कमर तक ग्लेशियर में धस चुका था, जो कि मेरे लिए एक भयानक अनुभव था। खैर थोड़ी दूर एक और चढ़ाई पार कर हम लोग सतपंथ पहुंच गए।
यहां का नजारा बहुत ही दिलकश था। हमने वहां पर झील तक पहुंच कर पानी पिया और साथ में भर भी लिया। यहां पर चौखंबा हमे पूरा दिखाई दे रहा था जो बिल्कुल सामने था और धूप ने उस पर जादू सा कर दिया था तो मै एकटक उसे निहारता रहा। वह बिल्कुल सोने के तरह चमक रहा था। वह पल मेरे लिए विष्म्यकारी और सम्मोहित कर दिन वाला था जिस स्थान पर पहुंचने के लिए हमने इतनी कष्ट दायक यात्रा की थी वह हमारी आंखों के सामने था जहां तक स्वर्गारोहिणी का प्रश्न है वह चौखंबा पर्वत का नीचे का हिस्सा है जहां बर्फ पिघलने की वजह से सीढ़ी नुमा आकृति बनी हुई है कहते हैं कि युधिष्ठिर को स्वर्ग ले जाने के लिए विमान वहीं पर आया था।
मेरी भी स्वर्ग जाने कि इच्छा थी पर मुझे लेने कोई नहीं आया😭😭 और (तीन दिन इंतजार करने के बाद मै वहा से वापस चल पड़ा) इस लाइन का मतलब आपको लेख के आखिर मै पता चलेगा।😥😥

यहां पर माना ग्राम पंचायत ने एक पक्का कमरा बनवाया हुआ है और उसी के पास एक गुफा टाइप स्थान भी है, जहां पर हमने अपना टेंट लगा लिया ताकि बर्फीली हवाओं से कुछ राहत मिल सके।
मेरे दाई तरफ सतपंथ ग्लेशियर था और बाई तरफ सतपंथ झील, और उनके बीच आज में अपना टेंट लगा चुका था।
कुबेर पर्वत यहां से पूरा दिखाई दे रहा था। शास्त्रों के अनुसार यही वह स्थान है जहां से रावण सोना चुराकर लंका ले गया था और पूरी लंका को सोने से ढक दिया था।
मेरी नजर में ऐसे स्थान पर शांति से बैठना और प्रकृति को निहारना किसी मेडिटेशन से कम नहीं है और यही तो मै कर रहा था। हमारे साथ आया भोलू भी एकदम शांत था। फिर वह उठा और मेरे पास आया और फिर पलट कर झील कि तरफ जाने लगा, जैसे उसने मुझे पीछे आने का इशारा किया हो तो मैं भी उसके पीछे चल दिया और हम दोनों झील पर पहुंच गए, फिर भोलू झील में उतर गया तो मैंने भी अपने कपड़े उतारे और मै भी झील में नहाने को उतार गया। यह मेरे लिए एक खून जमा देने वाला अनुभव था क्योंकि मै माईनस डिग्री तापमान में एक खुली बर्फीली झील में नहा रहा था। मैंने झील में 5 डुबकी लगाई और फोरन बाहर निकाल आयाैर जल्दी से कपड़े पहन लिए। यह स्थान बैकुंठ धाम कहा जाता है और शास्त्रों के अनुसार यहां एक बार माला जपने पर एक लाख मालाओं का पुण्य प्राप्त होता है। मै वैसे ज्यादा धार्मिक तो नहीं पर ऐसे स्थान पर भगवान को पाने के चाहत प्रबल हो उठती है और जब फल इतना सुन्दर हो तो मैंने भी वहां पर दस मालाए पढ़ डाली जिसका अर्थ था दस लाख मालाए।वैसे मान्यता है कि इस जल में स्नान करने से मोक्ष कि प्राप्ति हो जाती है। इस झील में एकादशी में स्नान का बहुत महत्व है, कहते है कि इस दिन यहां पर ब्रम्हा, विष्णु और महेश तीनों त्रिदेव एक साथ स्नान करते हैं।और यही वह स्थान है जहां पर भीम ने शरीर त्याग किया था।
उसके बाद हमने यहां पर खिचड़ी बनाई और खाई, और फिर सोने के लिए अपने टेंट में घुस गए आज भोलू भी मेरे साथ मेरे टेंट में ही आ गया था और हम दोनों बहुत ही मीठी और सुकून भरी नींद के आगोश में चले गए।

रात में किसी समय मेरी आंख खुली तो मैंने टेंट से बाहर निकलकर आसमान कि तरफ देखा कसम से इतने तारे मैंने अपने जीवन में एक साथ कभी नहीं देखे जितने उस रात को वहा पर देखे।

सुबह मैंने अपने गाइड को कहा कि मै इस जगह पर 2 या 3 दिन और बिताना चाहता हूं और उसके लिए मै गाइड को अतिरिक्त शुल्क देने को भी तैयार था पर वह नहीं माना और वहा से चलने को कहने लगा मैंने उसे बहुत समझाया पर वह नहीं माना और आखिर में उसने मुझे वहीं छोड़ कर चले जाने का में बना लिया क्योंकि मै वहा से जाने को किसी भी कीमत पर तैयार नहीं हुआ।
मै मन बना चुका था कि अगर मुझे वहा पर अकेले भी रहना पड़े तब भी मै वहीं रुकूंगा।
मै अपने गाइड को वापस जाते हुए दूर तक देखता रहा इस आशा में कि वह शायद वापस आ जाय पर वह नहीं आया और भोलू भी उसके पीछे पीछे ही चला गया। अब मै वहां बिल्कुल अकेला रह गया था।

मैंने अपने मन से अकेलेपन के डर को दूर करने के लिए पहले स्नान किया और फिर ध्यान की मुद्रा में बैठ गया करीब आधा घंटे बाद मै वहां से उठा और अपने लिए नाश्ते का प्रबंध करने लगा।मैंने पहले मैगी बनाई और फिर चाय के लिए पानी चढ़ा दिया, तभी मुझे एहसास हुआ कि मै वहां अकेला नहीं हूं मैंने पलटकर देखा तो भोलू दूर से आता हुआ दिखाई दिया और आकर मुझसे खेलने लगा मैंने वह मैगी उसको खाने के लिए दे दी और अपने आप बस चाय से ही काम चला लिया क्योंकि मेरे पास खाने के लिए बस मैगी और बिस्किट ही थे और वह भी पर्याप्त नहीं थे मेरे और मेरे कुत्ते भोलू के लिए।

फिर काम खाने के बावजूद मैंने वहां पर 2 दिन और 2 राते और बिताई, भोलू बराबर मेरे साथ था।
आखिर 3 दिन उस स्वर्ग में बिताने के बाद मै वहा से वापस चल पड़ा और भोलू भी मेरे साथ चल दिया।रास्ता सब देखा हुआ था तो ज्यादा दिक्कत नहीं हुई एक या दो जगह रास्ता मिस जरूर हुआ पर आखिरकार मैं और भोलू शाम तक लक्ष्मी वन तक पहुंच गए। फिर मैंने वहा पर टेंट लगा कर रात बिताने का प्रोग्राम बनाया और अपने साथ के आखरी मैगी के पैकेट को बना कर खुद भी खाया और अपने कुत्ते भोलू को भी खिलाया। आज रात भोलू कुछ ज्यादा ही चौकन्ना नजर आ रहा था वह टेंट में भी नहीं आया बाहर ही कभी इधर कभी उधर घूमता रहा पूरी रात और मेरी पहरेदारी करता रहा।

खैर सुबह जल्दी उठकर मैंने वहा से विदा ली लेकिन भोलू अब मेरे साथ आने को तैयार नहीं था वह बार बार मुझसे दूर जा रहा था तो मैंने अपना बिस्किट का पैकेट जो आखरी था वह भोलू को खाने को दे दिया और वहा से चल पड़ा कुछ फिर जाकर पीछे देखा तो भोलू कहीं दिखाई नहीं दिया शायद वो जहां से आया था वहीं पर चला गया और मेरा इस सफर का सबसे प्यारा साथी मुझसे अलग हो गया अब मेरे पास खाने को कुछ नहीं था नाश्ता भी नहीं किया था तो में जल्दी जल्दी चलने लगा और आखिरकार शाम 6 बजे मुझे दूर से माना गांव नजर आने लगा मेरी चाल बढ़ गई भूख से हालात खराब हो रही थी क्योंकि कल रात से कुछ नहीं खाया था।
आखिरकार 8 बजे के आस पास मै माना गांव से कुछ दूर बने एक मंदिर तक पहुंच गया और उसके आहते में अपना टेंट लगा लिया तभी मुझे वहां एक आदमी दिखाई दिया आज पूरे चार दिन बाद किसी इंसान को देखा था तो मुझे रोना आ गया वह मेरे पास आया और मुझसे सब पूछने लगा तो मैने उसे सब बताया तो उसने बड़े प्यार से बात कि और मुझे अपने घर से दाल चावल लाकर दिए  मैं पूरे दिन से पानी के सिवा कुछ नहीं खाया था तो मैं उन पर टूट पड़ा और उस आदमी को धन्यवाद स्वरूप कुछ राशि देने की कोशिश की तो उसने मना कर दिया और केवल धन्यवाद लेकर चला गया। रात मैंने वहीं बिताई और अगले दिन सुबह उस होटल में पहुंच गया जहां मैंने अपनी बाइक खड़ी की थी। फिर होटल वाले को पैसा देकर बाइक उठाई और निकल चला वापस घर की और दिल में एक अजीब से संतोष और खामोशी के साथ।

समाप्त।

आपका अपना गौरव राणा