पूरब का वेनिस है कोच्चि
प्रभाकर मणि तिवारी
एर्नाकुलम जेटी से चली मोटर वाली बोट या फेरी के दूसरे पड़ाव तक पहुंचने पर उसके कंडक्टर ने चिल्लाकर कहा—फोर्ट कोच्चि. वहां जेटी से बाहर निकलते ही मानो किसी अलग ही दुनिया में पहुंच गए हों. सहसा यकीन नहीं होता कि यह भी भारत का ही हिस्सा है. डच, पुर्तगाली और ब्रिटिश स्थापत्य कला समेटे मकान और सड़कों पर साइकिल से घूमते विदेशी युवक-युवतियां. फोर्ट कोच्चि की सड़कों पर घूमते हुए लगता है किसी यूरोपीय शहर में घूम रहे हों. देश के दक्षिणी छोर पर बसे केरल के इस तटवर्ती शहर को अरब सागर की रानी यूं ही नहीं कहा जाता है. यहां पुर्तगाली, यहूदी, ब्रिटिश, फ्रेंच, डच और चीनी संस्कृति का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है. इसे पूरब का वेनिस भी कहा जाता है. वजह--वेनिस की तरह ही यहां मोटर बोट भी आवाजाही के प्रमुख साधन हैं.
हम सुबह ही तिरुअनंतपुरम से कालीकट जाने वाली जनशताब्दी से कोई तीन-सवा तीन घंटे का सफर तय कर एर्नाकुलम पहुंचे थे. कोच्चि पहुंचने के लिए यही रेलवे स्टेशन है. इस छोटे सफर में रास्ते में क्विलोन और अलेप्पी या अलपुझा जैसे स्टेशनों को देख कर इतिहास की स्कूली किताबों के अध्याय आंखों के सामने सजीव हो उठे थे. एर्नाकुलम पहुंच कर स्टेशन के पास ही एक होटल में ठहरने की व्यवस्था थी. हमारे एक पारिवारिक मित्र ने यह इंतजाम किया था. अपने लंबे दक्षिण भारत दौरे की सूची में पहले तो कोच्चि का नाम ही नहीं था. बाद में देखा कि एक दिन अतिरिक्त समय है तो हमने तिरुअनंतपुरम से कोच्चि जाने का कार्यक्रम बना लिया था. लेकिन वहां पहुंच कर लगा कि यहां नहीं आते तो कितना कुछ छूट जाता.
होटल के कमरे में नहाने-धोने के बाद हमने स्टेशन के बाहर प्री-पेड बूथ से जेटी तक जाने के लिये एक आटो रिक्शा लिया. किराया बेहद सस्ता. महज बारह रुपए. राजधानी तिरुअनंतपुरम के मुकाबले यह शहर बेहद सस्ता है. परिवहन से लेकर होटलों के किराए और खान-पान तक में. जेटी पर पहुंच कर जब फोर्ट कोच्चि जाने के लिये बोट की टिकट लेने खिड़की पर पहुंचे तो एक और सुखद आश्चर्य. किराया था प्रति व्यक्ति महज चार रुपए. हम तीन लोग थे. सो टिकट लेकर सीधे बोट में.
एर्नाकुलम से फोर्ट कोच्चि तक जाने के दो रास्ते हैं. सड़क मार्ग से भी वहां पहुंचा जा सकता है. लेकिन कोच्चि बंदरगाह की खूबसूरती का लुत्फ उठाने के लिए हमने जल मार्ग से जाने का फैसला किया. एक ओर बंदरगाह और दूसरी ओर समुद्र के किनारे मरीन ड्राइव पर खड़ी गगनचुंबी इमारतों का नजारा देखते और तस्वीरें खींचते हुए हमारी बोट कब फोर्ट कोच्चि पहुंच गई, इसका पता ही नहीं चला. तंद्रा तब टूटी जब कंडक्टर ने कहा—फोर्ट कोच्चि.
जेटी से बाहर निकलने के बाद एक आटो रिक्शा वाले से बातचीत की, जो थोड़े मोल-भाव के बाद दो सौ रुपए में पूरा फोर्ट कोच्चि इलाका घूमाने पर सहमत हो गया.
इस शहर का इतिहास जितना पुराना है, संस्कृति उतनी ही विविध. कोच्चि 14वीं सदी से ही देश के पश्चिमी तट पर मसालों के व्यापार का प्रमुख केंद्र रहा है. यह शहर देश की पहली यूरोपीय कालोनियों में शुमार है. वर्ष 1530 तक यह भारत में पुर्तगाली शासन का मुख्य उपनिवेश था. उसके बाद पुर्तगालियों ने इसके लिए गोवा को चुना. बाद में डच और ब्रिटिश शासकों ने इस पर कब्जा किया. प्राचीन यात्रियों और व्यापारियों ने अपने लेखन में कोच्चि का जिक्र कोसिम, कोचिम, कोचीन और कोची के तौर पर किया है. कोचीन का यहूदी समुदाय इसे कोगिन पुकारता था. सिनेगाग की मुहर पर अब भी यही नाम है.
इस शहर का नाम आखिर कोचीन कैसे पड़ा, इसे लेकर भी कई कथाएं प्रचलित हैं. एक तबके का मानना है कि यह मलयाली शब्द कोचू अझी से बना है जिसका अर्थ है छोटा द्वीप. एक अन्य धारणा के मुताबिक, यह कासी शब्द से बना है जिसका मतलब है बंदरगाह. पंद्रहवीं सदी में यहां पहुंचे इतालवी नाविक निकोलो दा कोंती और उसके बाद 17वीं सदी में आए फ्रा पाओलिन ने लिखा है कि समुद्र को बैकवाटर्स से जोड़ने वाली नदी के नाम पर इस शहर का नाम कोच्चि पड़ा. बहरहाल, पुर्तगालियों के यहां पहुंचने के बाद सरकारी कामकाज में कोचीन नाम का ही इस्तेमाल होने लगा. वर्ष 1996 में इसका नाम बदल कर पुराने मलयाली नाम से मिलता-जुलता कोच्चि रख दिया गया.
पुर्तगालियों के आगमन से पहले का कोच्चि का इतिहास काफी धुंधला है. इस शहर के इतिहास में पुर्तगालियों का आगमन एक अहम पड़ाव साबित हुआ. कोच्चि के राजाओं ने इन विदेशियों का स्वागत किया क्योंकि उन्हें कालीकट के जमोरिन के साथ दुश्मनी के चलते एक शक्तिशाली सहयोगी की तलाश थी. केशव राम वर्मा के शासनकाल में यहूदियों को भी राजकीय संरक्षण हासिल था. यह लोग मूल रूप से कोदनगलूर से व्यापार के मकसद से कोच्चि पहुंचे थे.
डच शासन के तहत कोचीन सबसे ज्यादा संपन्न रहा. कोच्चि का बंदरगाह 17वीं शताब्दी में डच के अधीन हो गया था. यहां से मिर्च, इलायची, अन्य मसाले और औषधियों के साथ ही नारियल की जटा, नारियल और खोपरा निर्यात किये जाते थे.
वर्ष 1500 में पुर्तगाली नाविक पेड्रो अल्वारेस कैब्रल ने यहां भारतीय भूमि पर पहली यूरोपीय बस्ती की स्थापना की. भारत के समुद्री मार्ग को खोजने वाले वास्कोडिगामा ने वर्ष 1502 में पहले पुर्तगाली व्यापार केंद्र की स्थापना की और पुर्तगाली वायसराय अलफांसो-द-अल्बुकर्क ने यहां वर्ष 1503 में पहला पुर्तगाली किला बनवाया. वर्ष 1663 में डचों के यहां पहुंचने तक यह शहर पुर्तगाली मालिकाना में रहा. शहर में अब भी पुर्तगाली स्थापत्य कला की बहुतायत देखने को मिलती है. अरब सागर के किनारे गांधी बीच के पास ही वास्कोडिगामा स्क्वायर भी है.
फोर्ट कोच्चि में पुर्तगालियों की ओर से वर्ष 1503 में बनाया गया सेंट फ्रांसिस चर्च भारत में पहला यूरोपीय चर्च होने के कारण मशहूर है. यहां कुछ समय के लिए वास्कोडिगामा को दफनाया गया था. बाद में उनके पार्थिव अवशेष पुर्तगाल ले जाये गये. लेकिन उस कब्र के पत्थर को आज भी देखा जा सकता है. चर्च के बाहर तरह-तरह की कलाकृतियां और पत्थर बिकते हैं. आम पर्यटक चर्च की भीतर जाकर भी तस्वीरें खींच-खिंचा रहे थे. हम भला पीछे क्यों रहते.
अन्य गिरजाघरों के साथ ही यहां हिन्दू मंदिर, मस्जिदें और मत्तनचेरी का ऐतिहासिक सिनेगाग (यहूदी उपासना गृह) मौजूद हैं. चौथी शताब्दी में बसा कोच्चि का यहूदी समुदाय भारत में सबसे पुराना था. हालांकि हज़ारों सदस्यों में से लगभग सभी 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक इजराइल चले गये थे.
जेटी से सबसे पहले हम अरब सागर में लगे विशालकाय चाइनीज फिशिंग नेट देखने गए जो यहां की दर्शनीय चीजों में शुमार है. एक कतार में लगे इन विशालकाय जालों को एक साथ पानी के भीतर जाते और हजारों मछलियों के साथ बाहर निकलते देखना अपने आप में एक अनूठा अनुभव है. चीनी जाल केरल के मछुआरों की रोज़ी-रोटी का मुख्य साधन हैं.यह जाल काफी पुराने हैं. माना जाता है कि चीन के शासक कुबलई खान के दरबार से झेंग ही नामक एक चीनी यात्री इनको लेकर कोच्चि आया था. चीन के अलावा पूरी दुनिया में सिर्फ यहीं इस जाल का इस्तेमाल होता है.
वर्ष 1506 में बना बिशप हाउस कभी पुर्तगाली गवर्नर का आवास हुआ करता था. यह परेड ग्राउंड के पास एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है. भवन का सामने का हिस्सा विशाल गोथिक मेहराबों से सजा है. फोर्ट कोच्चि में देखने के लिए इतना कुछ है कि एक दिन में सबको समेटना संभव नहीं है. डच महल भी काफी आकर्षक है. यह महल मूल रूप से पुर्तगालियों ने वर्ष 1556 में बनवा कर कोचीन के तत्कालीन राजा वीर केरला वर्मा को भेंट किया गया था. बाद में डच का इस पर अधिकार हो गया. उन्होंने 1663 में किले की मरम्मत कराई और इसे नया रूप दिया. इस किले में कोचीन के कई राजाओं का राज्याभिषेक हुआ था. इस किले में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों से संबंधित पेंटिंग्स बनी हुई है. अब इसे संग्रहालय बना दिया गया है.
बोलघट्टी महल को देखने के लिए रोजाना काफी तादाद में पर्यटक यहां आते हैं. डच व्यापारियों ने बोलघट्टी द्वीप पर यह बोलगाट्टी पैलेस बनवाया था जो हालैंड के बाहर आज भी सबसे पुराना डच पैलेस है. इस महल को अब एक लक्जरी होटल में तब्दील कर दिया गया है. बोलघट्टी में एक गोल्फ कोर्स भी है. यहां पर लोग पिकनिक मनाने भी आते हैं.
यह शहर बरसों तक मसालों के कारोबार का प्रमुख केंद्र रहा. वर्ष 1341 में पेरियार नदी में आई भयावह बाढ़ में कोडनगलूर के पास बने पोर्ट मुजिरिस के नष्ट होने के बाद कोच्चि की अहमियत बढ़ी. पंद्रहवीं सदी में एडमिरल झेंग ही के जहाजों के काफिले के साथ यहां पहुंचे चीनी यात्री मा हुआन की लेखनी में कोच्चि का जिक्र मिलता है. उसके बाद 1440 में आने वाले इतालवी यात्री निकोलो दा कोंती ने भी इस शहर के बारे में लिखा है. आजादी के समय कोचीन देश का पहला राज्य था जिसने अपनी मर्जी से भारतीय संघ में शामिल होने पर सहमति दी थी.
20वीं सदी की शुरूआत में कारोबार बढ़ने की वजह से कोच्चि बंदरगाह को विकसित करने के लिए मद्रास के तत्कालीन गवर्नर लार्ड विलिंग्डन ने हार्बर इंजीनियर राबर्ट ब्रिस्टोव को वर्ष 1920 में कोचीन भेजा. ब्रिस्टोव ने 21 वर्षों की अथक मेहनत के बाद कोचीन को देश के सबसे प्रमुख बंदरगाहों की कतार में खड़ा कर दिया.
कोच्चि में पर्यटन एक प्रमुख व्यवसाय है. देशी-विदेशी पर्यटकों की आवक के मामले में कोच्चि का स्थान केरल में पहले नंबर पर है. यह शहर दक्षिणी नवल कमांड का मुख्यालय और भारतीय कोस्ट गार्ड का प्रदेश मुख्यालय भी है.
शहर में जगह-जगह मसालों की दुकानें सजी नजर आती हैं. साथ ही मुन्नार के चाय बागानों की चाय भी बिकती है. कहा जाता है कि इन मसालों की खशबू ही वास्कोडिगामा को कोच्चि तक खींच लाई थी. डच पैलेस के पास 1568 में बना यहूदी उपासना स्थल यानी सिनेगाग की इमारत चीनी और बेल्जियन चीजों से सजी है. यहां पहुंचते ही पुराने कोचीन की यादें ताजी हो जाती हैं. इस तंग गली में वाहनों की आवाजाही पर पाबंदी है. आप आराम से पैदल घूम सकते हैं. मुख्य मंदिर के भीतर जाने के लिए जूते उतारने पड़ते हैं और पांच रुपए का टिकट भी लेना होता है. हमने टिकट तो ले लिया लेकिन वहीं तक गए जहां तक बिना जूते उतारे जा सकते थे.
समुद्रतट पर भीड़भाड़ नहीं थी. इसलिए वहां घूमना अच्छा लगा. घूमते-घूमते जब थकावट महसूस हुई तो वहां एक स्टाल पर जाकर नारियल पानी पिया. यूं तो पूरे केरल का प्राकृतिक सौंदर्य अद्वितीय है. लेकिन कोच्चि में जो बात है वह कहीं नहीं है. यह अपने सौंदर्य से ज्यादा अपने इतिहास और धनी सांस्कृतिक विरासत के लिए मशहूर है.
कोच्चि की गलियों में घूमते हुए दिन कैसे निकल गया, इसका पता ही नहीं चला. अफसोस भी हुआ कि कम से कम एक रात यहां रुक पाते तो बेहतर होता. लेकिन कम से कम इस बात की खुशी भी हुई कि अपने दक्षिण भारत के दौरे में हमने आखिरी मौके पर इस शहर को शामिल कर लिया था. बैकवाटर का जिक्र किए बिना केरल का कोई यात्रा वृत्तांत पूरा हो ही नहीं सकता. हमने भी कोई दो घंटे तक इसका लुत्फ उठाया. नारियल के पेड़ों के बीच से गुजरती हमारी छोटी-सी नाव एक अलग ही दुनिया में पहुंचने का आभास देती रही.
वापस एर्नाकुलम जेटी पर पहुंचने के बाद कुछ देर हमने वहां झील के किनारे बनी मरीन ड्राइव पर बिताया. वहीं एनर्जी पार्क भी है. मरीन ड्राइव एक खूबसूरत जगह है जहां बैठकर दूर जाती नौकाओं और लंगर डाले खड़े विशाकलकाय जहाजों को देखते हुए कैसे समय बीत जाता है, इसका आभास नहीं होता. वहां से फिर आटो से ही होटल. रात दस बजे कोयंबटूर के लिए ट्रेन पकड़नी थी. वहां से अगली सुबह ऊटी.
हां, एर्नाकुलम में जिस होटल में ठहरे थे उसके बगल में ही एक सरदार जी के ढाबे का जिक्र किये बिना कोच्चि की कहानी शायद अधूरी ही रह जाएगी. बरसों पहले कोच्चि जाकर बसे उस सरदार ने एक स्थानीय महिला से शादी की है. वह महिला ही पूरा ढाबा चलाती है. हम कोलकाता से कोई 12 दिन पहले निकले थे. उसके बाद चेन्नई, रामेश्वर, कोडाईकनाल, कन्याकुमारी और तिरुअनंतपुरम घूमने के दौरान हम दक्षिण भारतीय खाना ही खा रहे थे. कोच्चि के इस ढाबे में कोई दो हफ्ते बाद तंदूरी रोटी, चावल और पनीर की सब्जी मिली तो घर जैसा अहसास हुआ. हमने दिन में वहीं खाया था और रात को स्टेशन निकलने से पहले भी वहीं जमकर डिनर लिया. केरल में हमने कई जगहें देखीं, लेकिन कोच्चि का यह सफर हमेशा यादगार रहेगा. दोबारा लौटने के वादे के साथ हमने बारह घंटे के सफर के बाद इस शहर से विदा ली. यहां तक पहुंचना आसान है. एर्नाकुलम रेलवे स्टेशन देश के प्रमुख शहरों से जुड़ा है. इसके अलावा कोच्चि में एक अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा भी है जहां से देश के तमाम शहरों के लिए उड़ानें हैं.