घुमक्कड़ी का एक अजीब ही दस्तूर होता है। हमको जो जगह अजनबी लगती है, वहाँ पहुँचने के कुछ घंटों के बाद वो जगह, वहाँ की गलियां सब कुछ अपना लगने लगता है। हम उस जगह, गांव या कस्बे में ऐसे बेपरवाह चलते हैं जैसे हम यहाँ सालों से रह रहे हैं। घूमते हुए ऐसे ही कई जगहें अपनी हो जाती हैं। इन जगहों से पहली बार मिलना अजीब होता है लेकिन उत्सुकता भी होती है। मैंने कुछ दिन पहले ऐसी ही एक शानदार जगह की यात्रा की। जगह का नाम है, चंदेरी।
मध्य प्रदेश का एक छोटा-सा शहर है, चंदेरी। हाल ही में मैंने इस जगह के बारे में सुना था। तब से इस जगह पर जाने का बड़ा मन था। किसी न किसी कारण से नहीं जा पा रहा था। फिर आया 2022 का फरवरी महीना और तारीख 11 फरवरी। मेरे घर से चंदेरी लगभग 250 किमी. दूर है। पहले हम दो लोग जाने वाले थे इसलिए स्कूटी से जाने का प्लान था लेकिन आखिरी वक्त में मैं अकेला रह गया। उसके बाद मैं बस से चंदेरी की यात्रा करने का मन बनाया।
5:40 की बस
11 फरवरी को सुबह 5 बजे उठा। मम्मी मुझसे भी पहले उठ चुकी थीं। उन्होंने रास्ते के लिए खाना बना दिया था। घर से कहीं जाओ तो मम्मी मना करने के बाद भी खाना बना ही देती हैं। अपना छोटा-सा पिठ्ठू बैग लेकर घुप्प अंधेरे में बस वाली जगह पर पहुँच गया। मैंने खिड़की वाली सीट पकड़ ली। बस में कुछ लोग थे और कुछ लोग मेरे बाद आए। 5:40 होते ही रोडवेज बस अंधेरे में चल पड़ी।
लोग इतने शांत थे कि बस के पुर्जे-पुर्जे की आवाज सुनाई दे रही थी। बस को खस्ता हालत में माना जा सकता है लेकिन हमें तो इसकी आदत है। जब तो उजाला नहीं हुआ, हमें बाहर का कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। थोड़ी देर बाद उजाला भी हो गया। बस हरे-भरे खेत और गांव के बीच से गुजरती जा रही थी। मेरा दिमाग तो तब झन्ना गया जब मुझे कुछ बदबू आई। मुड़कर देखा तो पीछे वाली सीट पर दो लोग बीड़ी पी रहे थे। कुछ देर बाद बीड़ी फूंकना बंद हो गया और मैं फिर से बाहर देखने लगा। लगभग 8 बजे बस ने झांसी पहुँचा दिया।
ललितपुर के लिए बस
झांसी से मुझे अब ललितपुर जाना था। ललितपुर बस या ट्रेन दोनों से जाया जा सकता है लेकिन इस समय कोई ट्रेन नहीं थी इसलिए बस से जाना मुझे ठीक लगा। झांसी बस स्टैंड काफी बड़ा है। मैं कभी ललितपुर गया नहीं था इसलिए बस का कुछ आइडिया नहीं था। पता किया तो अभी बस लगी नहीं थी। मैंने सुबह से कुछ नहीं खाया था इसलिए पास की दुकान से समोसा रायता ले लिया। रायते के साथ समोसा मेरा पसंदीदा नाश्ता है।
थोड़ी देर में बस आ गई और मैंने ड्राइवर के पास वाली सीट पकड़ ली। विधानसभा चुनाव की वजह से रोडवेज बस चुनाव में लगी हुई थी इसलिए बस में भीड़ भी ज्यादा थी। 8:55 पर बस ललितपुर के लिए चल पड़ी। झांसी के जेल चौराहे से होते हुए बबीना की ओर बढ़ चली। बस हाईवे पर दौड़ रही थी। सड़क के दोनों तरफ हरियाली ही हरियाली दिखाई दे रही थी। मुझे बस में खिड़की वाली सीट पर बैठना पसंद है। सबसे आगे कम ही बैठा था। यहाँ से बस का सफर और भी अच्छा लग रहा था।
फिर से बस...
रास्ते में एक टोल प्लाजा भी मिला। रास्ते में बबीना, तालबेहट और बंसी जैसी जगहें मिलीं। दो के घंटे के सफर के बाद मैं ललितपुर बस स्टैंड पर पहुँच चुका था। अब यहाँ से चंदेरी के लिए बस लेनी थी। ललितपुर से चंदेरी लगभग 40 किमी. की दूरी पर है। लोगों से पता किया तो चंदेरी जाने वाली बस की जगह बता दी लेकिन वहाँ बस नहीं था। बात करने पर पता चला कि थोड़ी देर में बस आएगी।
फरवरी के महीने में भी तेज धूप थी। थोड़ी देर बाद चंदेरी की बस आ गई। मैंने फिर से ड्राइवर के बगल वाली सीट पकड़ ली। इस बस में खूब भीड़ थी। लग ही नहीं रहा था कि यहाँ कोरोना जैसी कोई चीज है। थोड़ी देर बाद बस की ललितपुर को छोड़कर चंदेरी की ओर बढ़ गई थी। रास्ता सुंदर लग रहा था, वही खेत और हरियाली।
उत्तर प्रदेश से मध्य प्रदेश
रास्ते में एक जगह मिली राजघाट। राजघाट में बेतवा नदी पर बांध भी बना हुआ है। नदी के इस पार उत्तर प्रदेश है और पुल पार करते ही मध्य प्रदेश शुरू हो जाता है। मध्य प्रदेश में घुसते ही नजारे बदलने लगे थे। सड़क के दोनों तरफ हरियाली अब भी थी लेकिन समतल इलाके की जगह छोटे-छोटे पहाड़ दिखाई देने लगे थे। रोड भी काफी सपाट थी। बस अपनी स्पीड से बड़ी जा रही थी।
थोड़ी देर बाद चंदेरी का बोर्ड दिखाई दिया। पूछने पर बगल में बैठे आदमी ने दूर तलक दिखने वाली पहाड़ी की ओर इशारा किया और कहा, उस पहाड़ी के पार चंदेरी। मेरे मन में चंदेरी की ओरछा जैसी छवि थी। उस छवि को बरकरार रखने या तोड़ने के लिए चंदेरी जा रहा था। थोड़ी देर बाद मध्य प्रदेश टूरिज्म का ताना बाना होटल दिखाई दिया। घूमते हुए ऐसे आलीशान होटलों में ठहरना मुझे पैसों की बर्बादी लगती है। मुझे तो बस एक छोटा-सा कमरा चाहिए जिसमें रात को नींद ले सकूं।
चंदेरी
थोड़ी देर बाद चंदेरी आ गया। चंदेरी में एक तरफ ऊंची पहाड़ी दिखाई दे रही थी जिस पर किला जैसा कुछ बना हुआ था। चंदेरी में कई जगह पर सवारियों को उतारने के बाद बस चंदेरी के नये बस स्टैंड पर पहुँच गई। मैंने अपने लिए पहले से एक सस्ता होटल खोज लिया था जो बस स्टैंड से 1 किमी. था। लोगों से श्रीकुंज होटल का रास्ता पता किया और पैदल ही चल दिया।
पैदल चलने का एक फायदा ये था चंदेरी को जानने में आसानी होगी। कहीं पढ़ा था कि किसी नई जगह को अच्छे-से जानना है तो उस जगह को पैदल नापें। पहली नजर में चंदेरी काफी विकसित और बड़ा लग रहा था। लोगों और गाड़ियों की भीड़ भी बहुत थी। कुछ देर बाद मैं श्रीकुंज होटल के सामने खड़ा था। होटल काफी बड़ा था। रिसप्शेन पर पता किया तो कमरा 400 से लेकर 2800 रुपए तक का था। मैंने 400 वाला रूम देखा और बात पक्की कर दी।
होटल के कमरे में टीवी था लेकिन चल नहीं रहा था, मुझे जरूरत भी नहीं था। बाकी मेरे जरूरत की सारी चीजें कमरे में थीं। घर से खाना लाया था तो उसे खाया। चंदेरी को घूमने जाने का मन था लेकिन लंबे सफर की वजह से सिर दर्द हो रहा था। दिमाम में कुछ गुणा भाग किया और थोड़ी देर के लिए लेट गया। अभी तो मध्य प्रदेश के इस ऐतिहासिक और पुराने शहर में सिर्फ एंट्री हुई थी। इस शहर का गलियां, किले, महल और बावड़ियों को देखना था।
बादल महल
लगभग 1 घंटे बाद नींद टूटी। पहले तो मन किया कि लेटा रहता हूं फिर सोचा लेटकर क्या ही करना है? इस शहर को थोड़ा-बहुत देख लेते हैं। बादल महल पास में है तो वहीं से शुरू करता हूं। बादल महल का टिकट 25 रुपए का लिया और अंदर चला गया। बादल महल में महल जैसा कुछ नहीं है। बादल महल का पूरा परिसर हरा-भरा है और एक बड़ा-सा गेट बना हुआ है। पहले दूर से देखता हूं और फिर पास से देखता हूं।
बादल महल में बने 100 फुट ऊंचे इस दरवाजे को 15वीं शताब्दी में मालवा के राजा महमूद शाह खिलजी ने अपनी विजय की याद में बनवाया था। गेट की नक्काशी शानदार है। गेट के पीछे पहाड़ी पर किला दिखाई देता है। उसे देखने के लिए जैसे ही बाहर निकलता हूं। टिकट घर से आवाज आती है। मैं पास जाता हूं तो कैमरा देखकर 25 रुपए का टिकट लेने के लिए कहता है।
बादल महल का गार्ड कहता है कि चंदेरी में यहीं पर टिकट बनता है। यहाँ टिकट लेने का बाद म्यूजियम को छोड़कर कहीं और टिकट नहीं लेना पड़ता है। म्यूजियम में अलग से टिकट लेना पड़ता है। 25 रुपए का टिकट लेता हूं और किला का शॉर्टकट रास्ता पूछकर आगे बढ़ जाता हूं। पास में जामा मस्जिद है तो पहले वो देखने के लिए बढ़ जाता हूं।
जामा मस्जिद
जामा मस्जिद बाहर से काफी खूबसूरत लग रही थी। नक्काशी देखकर मन खुश हो गया। मस्जिद के अंदर गया तो बड़ा-सा बरामदा और एक पुराना पेड़ लगा हुआ था। पेड़ के पीछे तीन बड़े-बड़े गुंबद दिखाई दे रहे थे जो वाकई में खूबसूरत लग रहे थे। चंदेरी की जामा मस्जिद भारत की एकमात्र बिना मीनार की जामा मस्जिद है।
मस्जिद में बड़े-बड़े मेहराब, गलियारे और छज्जे हैं। जामा मस्जिद मध्य प्रदेश की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है। मस्जिद की आर्किटेक्चर और बारीकी नक्काशी को देखकर मैं बाहर निकल आया। मैं बादल महल की दीवार को रखकर आगे बढ़ने लगा। कुछ ही दूर चला था कि कुछ पुरानी-सी इमारत दिखाई दी। जिसके बाहर लिखा था, संत निजामुद्दीन के वंशज की कब्रें।
कब्रें ही कबें
घूमते हुए कभी-कभी ऐसी जगहें मिल जाती हैं जिनके बारे में आपको न तो इंटरनेट पर पता चलता है और न ही वो जगह आपके प्लान में होती हैं। मैं ऐसी ही शानदार जगह को देखने वाला था। अंदर घुसा तो चारों तरफ कब्रें ही कब्रें दिखाई दे रही थीं। अंदर कई मकबरें बने थे जिसके अंदर और बाहर कब्र ही कब्र थीं।
मकबरों और पत्थरों पर बेजोड़ नक्काशी उकरी हुई थी। मैंने सभी मकबरों को अच्छे से देखा। गुंबदनुमा मकबरे कुछ टूटे हुए भी थे। मकबरों में सुंदर जाली वाली खिड़की भी बनी हुई हैं। 15वीं शताब्दी की बनीं कब्रों को देखकर मैं फिर से चंदेरी की गलियों में था। बादल महल के गॉर्ड ने बताया था कि बादल महल के दीवार को रखकर आप शॉर्टकट रास्ते से किला पहुँच जाएंगे।
चंदेरी किला
लोगों से पूछते हुए आगे बढ़ता गया। कुछ देर बाद एक पुराना सा गेट मिला। जिसके पास में एक बोर्ड पर लिखा हुआ था, केन्द्रीय संरक्षित स्मारक चंदेरी किला। आगे चलने पर लंबा-सा पथरीला रास्ता दिखाई दिया। किले तक जाने के लिए थोड़ी ऊंची चढ़ाई थी। एक तरफ किला दिखाई दे रहा था और दूसरी तरफ चंदेरी शहर दिखाई दे रहा था। किले से औरतें अपने सिर पर लकड़ियां रखकर नीचे उतर रहीं थीं और मैं ऊपर की ओर जा रहा था।
कुछ देर बाद किला का बड़ा-सा गेट दिखाई दिया। अंदर घुसा तो कुछ छोटी-छोटी इमारतें दिखाई दीं। मैं जिस गेट से घुसा था वो किले का पीछे वाला रास्ता था और मैं जिस जगह पर खड़ा था उसे खूनी दरवाजा कहा जाता था। मुझे ये बात उस समय ये बात पता नहीं थी। हम पीछे के रास्ते से आए इसलिए हमें इसके बारे में पता भी नहीं था। कहा जाता है कि यहाँ पर गुनाहकारों को फांसी की सजा दी जाती थी।
जौहर स्मारक
आगे बढ़ा तो लंबा-सा रास्ता दिखाई दिया। हमें यहीं पर पता चला कि जो जगह अभी देखी है वो खूनी दरवाजा थी। यहाँ पर चंदेरी किले के बारे में लिखा था। मैं अभी मुख्य किले के अंदर नहीं गया था। किले के परिसर से चंदेरी बेहद खूबसूरत दिख रहा था। यहीं पर जौहर स्मारक भी है। कहा जाता है कि 1528 में बाबर ने चंदेरी के राजा मेदनी राय का मार दिया।
चंदेरी की रानी मणिमाला को ये पता चला कि राजा नहीं रहे। बाबर अपनी सेना के साथ किले में प्रवेश कर रहा है तो 1600 क्षत्राणियों के साथ रानी आग में कूद गईं। उस जौहर की याद में इस स्मारक को बनवाया गया था। जौहर स्मारक के पास में ही संगीत सम्राट वैजू बावरा की समाधि भी है। इसे देखने के बाद किले की मुख्य इमारत की ओर बढ़ गया।
दिन ढल रहा है!
चंदेरी किले को 11वीं शताब्दी में राजा कीर्ति पाल ने बनवाया था। 1504 में अलाउद्दीन खिलजी के जनरल आइन उल मुल्क ने अपने अधिकार में ले लिया। 1520 में चित्तौड़ के राजा राणा सांगा ने इस पर कब्जा किया। बाद में शेरशाह सूरी, बुंदेला और सिंधिया राजाओं के बाद अंग्रेजों के अधीन हो गया।किले के अंदर घुसा तो बीच में छोटी-सी बावड़ी देखी। किले में बहुत कम लोग थे। ईंटों के इस किले का सबसे खूबसूरत नजारा सबसे ऊंची जगह से दिखाई देता है।
इसी किले से मैंने सूरज को डूबते हुए देखा। जब सूरज लाल होकर दूर तरक पहाड़ियों में छिप रहा था और आसमां में लालिमा फैला रहा था। उस समय चंदेरी मुझे और भी खूबसूरत लग रहा था। थोड़ी देर में अंधेरा हो गया। होटल तक पहुँचने में चंदेरी में अंधियारा झुक गया था। कुछ देर चंदेरी की सड़कों पर टहला और फिर से कमरे में वापस आ गया। खाना खाने के बाद बेड पर लेटते ही कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। अब बस चंदेरी की सुबह का इंतजार था।
सुबह की सैर
सुबह 7 बजे नींद खुली। जल्दी-जल्दी तैयार होकर चंदेरी की सड़कों पर आ गया। सड़कें सुनसान थीं और दुकानें भी बंद थीं। सबसे पहले मैंने कटी पहाड़ी जाने का मन बनाया। कटी पहाड़ी शहर से थोड़ी दूर थी इसलिए सुबह-सुबह पैदल ही जाने का मन बन लिया। एक जगह चाय मिल रही थी तो चाय और पोहा लिया। दुकानदार ने बातों-बातों में कौशक महल, कटी पहाड़ी और बावड़ियों के बारे में बताया। उन्हों बताया कि कटी पहाड़ी से 2 किमी. दूर एक गांव है, रामनगर। वहाँ भी एक किला है। अब मुझे उसी रास्ते पर दो जगहें देखनी थी।
आगे बढ़ा तो सड़क किनारे एक छत्री दिखाई दी। 12 खंभों पर बनी इस छत्री में दो कबें भी बनी हुई हैं। मुगल और बुंदेली शैली में बनी इस छत्री को देखकर आगे बढ़े तो एक और छत्री दिखाई दी। ये पिछली वाली से कुछ बड़ी थी। दोनों छत्रियों का आर्किटेक्चर एक जैसा ही था। छत्रियों में साफ-सफाई की कमी थी। बाकी तो देखने लायक थीं। आगे चलने पर एक चौराहा आया। जहाँ से एक रास्ता कटी पहाड़ी की ओर और दूसरा रास्ता कौशक महल की ओर जाता है। मैं कटी पहाड़ी की ओर चल पड़ा।
कटी पहाड़ी
कटी पहाड़ी की ओर आगे बढ़ा तो मिर्जा खानदान की कब्र दिखाई दी। खेतों और पेड़ों के बीच बनी ये कब्र वाकई में शानदार थी। कब्र पर गंदगी भी बहुत थी और मेहराब में चमगादड़ों का घर भी बना हुआ था। सड़क की दूसरी तरफ एक तालाब मिला। जहाँ एक आदमी किनारे पर मछली पकड़ रहा था और दूसरा व्यक्ति नाव से मछली पकड़कर आया। मछली बड़ी और छोटी दोनों प्रकार की थीं। मुझे मछलियों के बारे में बिल्कुल जानकारी नहीं है।
आगे बढ़ने पर चंदेरी पीछे छूट गया। दोनों तरफ हरियाली और आगे पहाड़ दिखाई दे रहा था। कुछ देर बाद पैदल-पैदल कटी पहाड़ी पहुँच गया। पहाड़ को काटकर रास्ता बनाया गया था और एक बड़ा-सा दरवाजा भी बना हुआ था। 80 फीट ऊंचा, 39 फीट चौड़ी और 192 फीट लंबाई में पहाड़ को काटकर प्रवेश द्वार बनाया गया था। कटी पहाड़ी कतो 1490 में मालवा के राजा सुल्तान गयासशाह के शासनकाल में जिमन खां द्वारा बनवाया गया था।
रामनगर पैलेस
अब मुझे रामनगर किला जाना था जो लगभग 2 किमी. दूर था। चंदेरी की तरफ से मोटरसाइकिल आई। मैंने रामगर छोड़ने को कहा और वो तैयार हो गया। कुछ ही मिनटों में मैं रामनगर गांव में था। किला गांव को पार करने के बाद था। गांव में पैदल-पैदल चले जा रहा था। लोग अपने कामों में लगे हुए थे। बुंदेलखंड में जिस तरह के गांव होता है, वैसा ही गांव दिखाई दे रहा था।
कुछ देर बाद मैं एक पुरानी से इमारत के गेट पर खड़ा था। रामनगर महल को 1698 में चंदेरी के बुंदेला शासक दुर्जन सिंह ने बनवाया था। बाद में 1925 में ग्वालियर के शासक माधवराव सिंधिया ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। तीन मंजिला महल में घुसा तो पहले तो खूब सारे पेड़ मिले। महल में खूब सारे खंभे हैं। महल के पीछे बना तालाब नजारा खूबसूरत है। तालाब में नावें भी चलती हुई दिख रहीं है।
वापस चंदेरी
महल के दूसरे मंजिल पर बने कमरों में टूटा हुआ सामान बिखरा हुआ है। महल से बाहर निकलकर तालाब किनारे गया। वहाँ बैठे लोगों से नाव की सैर का रेट पूछा तो 100 रुपए बताया और कहा- नाव चलाने वाला आदमी 1 घंटे बाद आएगा। मैं उल्टे पांव लौट गया। अब मुझे वापस चंदेरी जाना था। रामनगर गांव को पैदल ही पैदल पार किया।
कुछ मोटरसाइकिल वाले चंदेरी की ओर गए लेकिन उन्होंने मोटरसाइकिल नहीं रोकी। काफी देर बाद एक व्यक्ति ने मेरे लिए गाड़ी रोक दी। कुछ ही मिनटों में चंदेरी लौट आया। बादल महल पर उतरा और चंदेरी की सड़कों पर चलने लगा। अब भूख लगने लगी थी। एक दुकान पर समोसा और कचौड़ी खाई और फिर एक नई जगह की ओर बढ़ गया। अब मुझे राजा रानी महल देखना था। रास्ते में ढोलिया दरवाजा मिला। मैं फिर से चंदेरी की गलियों में था। काफी चलने के बाद राजा रानी महल आ गया।
राजा रानी महल
राजा रानी महल एक नहीं बल्कि दो महल हैं। राजा महल सात मंजिला की इमारत है जिसमें नक्काशी शानदार है। इस ऊंचे से महल को देखने में मुझे काफी समय लग गया। राजा महल के पास में ही एक छोटा-सा महल है जिसे रानी महल के नाम से जाना जाता है। राजा रानी महल भूलभुलैया की तरह है। किले में बड़े-बड़े आंगन, नक्काशीदार खंभे और खूब सारी सीढ़ियां हैं। सफेद और स्लेटी बलुआ पत्थर से बना ये महल वाकई में खूबसूरत है।
पास में ही चकला बावड़ी भी थी तो उसको देखने के लिए निकल पड़ा। रास्ते में ऊंट की सार और पुरानी कचहरी मिली। रास्ते में मुझे एक घर में साड़ी बनती हुई दिखाई दी। मैंने उनसे उनको काम को देखने की अनुमति मांगी तो उन्होंने अंदर बुला लिया। नरेन्द्र कोली और उनकी मां अंदर थीं। मां जी ने बताया कि चंदेरी में साड़ियों का ही काम होता है। हम बनाकर दुकानदारों को देते हैं और वे बेचते हैं।
पूछने पर नरेन्द्र कोली ने बताया कि एक साड़ी को तैयार करने में 3-4 दिन लगते हैं। कुछ देर बाद मैं चकला बावड़ी के बाहर था। चकला बावड़ी काफी बड़ी थी और पानी भी काफी था। चंदेरी को बावड़ियों का शहर कहा जाता है। वहीं पर एक आदमी सफाई कर रहा था। उन्होंने बत्तीसी बावड़ी, मूसा और गोल पहाड़ी के बारे में बताया। मैं इन सभी बावड़ियों को देखना चाहता था लेकिन उससे पहले कौशक महल और म्यूजियम देखना जरूरी लग रहा था।
कौशक मह
कटी पहाड़ी की ओर जाने वाले चौराहे से कौशक महल के लिए ऑटो मिल गई। 10 रुपए और कुछ ही मिनटों में कौशक महल पहुँच गया। कौशक महल प्लस के आकार में बना हुआ है और चार बराबर-बराबर खंडों में बंटा हुआ है। अफगान शैली में बने इस महल की तीन मंजिल पूरी बनी हुई हैं और चौथी मंजिल अधूरी है। 15वीं शताब्दी में कौशक महल को मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी प्रथम ने जौनपुर विजय के उपलक्ष्य में बनवाया था।
कौशक महल की नक्काशी शानदार है। महल की चारों इमारतें एक जैसी बनी हुई हैं। इतनी ऊंची इमारत का 15वीं शताब्दी में बनना किसी अचंभे से कम नहीं है। ये महल उस समय के आर्किटेक्चर के बारे में बताता है। यहाँ हवा भी काफी चल रही थी और ठंडक भी थी। अब मुझे म्यूजियम देखना था। फिर से एक ऑटो ली और म्यूजियम पहुँच गया।
चंदेरी म्यूजियम
किसी भी नई जगह पर जाओ तो वहाँ के संग्रहालय में जरूर जाना चाहिए। म्यूजियम के लिए 5 रुपए का टिकट लिया और संग्रहालय देखने के लिए चल पड़ा। चंदेरी के संग्रहालय में कई जगहों से स्मारक और मूर्तियां लाई गईं है। इस म्यूजियम को 3 अप्रैल 1999 में लोगों के लिए खोला गया था।
म्यूजियम में वैष्णव दीर्घा, शैव और बौद्ध दीर्घा हैं। जिसमें बहुत सारी मूर्तियां हैं। इसके अलावी पूरे चंदेरी संग्रहालय परिसर में बेहद पुरानी पुरानी मूर्तियां हैं। पूरे म्यूजियम को देखने में काफी समय लग गया। चंदेरी को पैदल-पैदल घूमते हुए थकान होने लगी थी और पैर भी जवाब देने लगे थे। चंदेरी को अभी भी पूरा नहीं देख पाया। शायद एक बार और इस जगह पर आना पड़ेगा। चंदेरी के बारे में इब्नब्तूता ने ठीक ही कहा है, नगर बहुत बड़ा है और बाजारों में हमेशा बहुत भीड़ रहती है।
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