भागलपुर का परिचय
सिल्क सिटी के नाम से जाना जाने वाला भागलपुर, बिहार के बड़े शहरों में से एक प्राचीन शहर है, जो महाभारतकालीन सूतपुत्र कर्ण की नगरी यानि अंग प्रदेश थी | भागलपुर पटना से लगभग 225 किलोमीटर और कोलकता से 475 की दुरी पर रेलवे की लूप लाइन रेलखंड पर स्थित है | इस रेलखंड पर, रेलवे की उदासीनता की वजह सेआने-जाने के लिए ट्रेन की उपलब्धता बहुत ही कम है, जिसकी वजह से हमेशा मारा-मारी मची रहती है | वैसे अभी ये मेरी कर्मभूमि है, पर मुझे ये शहर गंदगी की वजह से कुछ खास पसन्द नहीं | इन सबके वाबजूद यहाँ विश्व प्रसिद्ध विक्रमशिला महाविहार के भग्नावशेष, बटेश्वर स्थान जो गुरु वशिष्ठ की निवास और उनकी तपो भूमि थी, जैन धर्म के 12वें तीर्थंकर वासुपूज्य का जन्मस्थान और उनके तप और ज्ञान नगरी भी है । वासुपूज्य जी ने मंदार पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया । मंदार पर्वत हिन्दुओं की आस्था का भी केंद्र हैं, पर्वत के तलहटी में भगवान बिष्णु का मन्दिर पापहरनी सरोवर के बीचों - बीच अवस्थित है | भागलपुर महर्षि मेंहीं की तपोभूमि (कुप्पघाट) भी है, जिन्होंने संतमत की स्थापना की | यही वो भूमि भी है, जहाँ चंदू सौदागर और बिहला की कथा का जन्म हुआ | अब और क्या बताऊँ - हाँ, कुछ बदनुमा दाग भी हैं | यहीं भागलपुर का आंखफोडवा कांड हुआ, क्या नहीं समझे, अरे भाई गंगाजल फिल्म नहीं देखी वो सारी कहानी असली हैं और वो भागलपुर में घटी थी | भागलपुर का हिन्दू-मुस्लिम दंगा याद होगा शायद कुछ लोगों को | सिल्क सिटी मतलब भागलपुर चादर के बारे में सुना होगा, लिनेन खादी के बारे में जानते होगें | अरे, अरे मैं तो भागलपुर की कतरनी चावल और चुडा के साथ यहाँ के सफ़ेद मालदह आम और जरदालू की अति मोहक खुसबू और स्वाद तो भूल ही गया| ये सब मिलकर बनाते हैं भागलपुर | वैसे तो विक्रमशिला महाविहार एक बार 2011 में जा चुका हूँ, जिज्ञासा फिर से बलवती हो रही थी | इस बार अपनी " बसंती " मतलब बाइक से यहाँ घूम आने का निर्णय ले लिया | पर ऑफिस में कई लोग ऐसा करने से मना कर रहे थे, कारण था वर्षों से राजमार्ग संख्या 33 (NH 33) की भागलपुर से कहलगांव तक खस्ता हालत | लोगों ने बताया हालत पहले से बेहतर है, बेहतर से मतलब आप वो मत समझ लीजिएगा कि हेमा मालिनी के गाल वाला | बेहतर से मतलब पाँच-पाँच फीट के गड्डे नहीं हैं और सड़क ढूँढना नही पड़ेगा | वरना एक महीने पहले खेत कहाँ और सड़क कहाँ पता ही नहीं चल रहा था | पर एक अच्छी बात यह भी थी कि राजमार्ग संख्या 33 (NH 33) को नौगछिया से जोड़ने वाला विक्रमशिला सेतु मरम्मत कार्य के लिए लगभग 25-30 दिनों तक बन्द कर दिया गया था, जिसकी वजह से वाहनों का आवागमन नगण्य ही था, जिसकी वजह से हमें परेशानी उतनी नहीं होने वाली थी | ऑफिस में एक नये-नये आए सहकर्मी संजय घोष जो बंगाल के रहने वाले हैं, भी साथ चलने को तैयार हो गए तो बस इरादा पक्का हो गया |
" दादा रूम पार्टनर ने फिल्म देखकर रात में बैटरी डेड कर दी, सुबह अलार्म बजा ही नहीं | मुझे 10 मिनट दीजिए, मैं हाजिर होता हूँ | "
खैर, फिर वापस आया और बंगाली मोशाय को उल्टा पुल से नीचे से लेकर 7:15 बजे फिर से बसंती हवा से बातें करने लगी | बातचीत से पता चला कि बंगाली मोशाय को ज्वार चढ़ा है, मैंने मना किया मत जाओ पर बंगाली प्राणी बड़े घुमक्कड होते हैं | मेरा तो मानना है कि उत्तर भारत में बंगाली सबसे ज्यादा घूमने-फिरने होते हैं | बिहार के कुछ लोगों को ही घुमक्कडी के कीड़े काटते हैं |
तो हम थे माता शीतला जगदम्बा मन्दिर में माता के शरण में, आज महालय है तो माता का पूजन भी चल रहा था | हमने कुछ पल रूककर सर झुकाया और इधर-उधर देख निकल पड़े अपने अगले पड़ाव की ओर | सबसे अच्छी बात ये हुई की मातारानी के दरबार से आगे बढ़ने पर सड़क ने हमें परेशान नहीं किया और हम पहुँच गए बटेश्वर स्थान | बटेश्वर स्थान और विक्रमशिला महाविहार एक दूसरे से लगभग तीन किलोमीटर की दुरी पर हैं | हमने वहाँ पहुँच बसंती को सही जगह देख खड़ा किया और चल पड़े गंगा मैया की गोद में डुबकी लगाने |
बटेश्वर स्थान प्रभु राम के गुरु वशिष्ठ मुनि की कर्मस्थली रही है। वशिष्ठ मुनि द्वारा ही बाबा बटेश्वर मंदिर के शिवलिंग की स्थापना पुराणों में वर्णित है, जो एक छोटी सी पहाड़ी पर बिल्कुल ही गंगा के तट पर ही है । मन्दिर के पास ही एक गुफा भी है, ऐसी मान्यता है कि यह गुरु वशिष्ठ मुनि की गुफा है | वैसे जानकारी के लिए बता दूँ भारत में तीन बटेश्वर स्थान है। एक आगरा के पास यमुना नदी के किनारे , दूसरा मुरैना के पहाडिय़ों में तथा तीसरा कहलगांव में गंगा के तट पर छोटी सी पहाड़ी पर । बटेश्वर स्थान में भी विवाद है कि असल में इन तीनों में कौन सा गुरु वशिष्ठ मुनि द्वारा स्थापित बाबा बटेश्वर मन्दिर है । तीनों अपना - अपना दावा पेश करते हैं , ख़ैर हमें इससे क्या । एक घुमक्कड़ को तो घूमने - देखने और आंनद लेने से मतलब है , हमें कौन सा गुरु वशिष्ठ मुनि से मिलना है । वैसे मैंने यहाँ के इतिहास को खंगालने के लिए विशेष मेहनत भी नहीं की, क्योंकि हमारा सारा ध्यान विक्रमशिला महाविहार पर केंद्रित था |
बसंती खड़ी कर मुश्किल से दस कदम ही चला होऊंगा कि घाट पहुँच गया | साफ-सुथरी जगह ढूंढते रह गए पर हर जगह वही हाल, फिर हार कर एक जगह डेरा डाला और दोनों ने एक - एक कर डुबकी लगाई | ये मेरी गंगा में डुबकी लगाने के चंद गिने चुने डुबकीयों में शामिल हो गया | मजा तो बहुत आया गंगा की पावन जल में अपने को निर्मल कर, पर बाहर आकर पता चला कि मेरी रुद्राक्ष की माला गंगा मैया ने बलिदान ले ली | चलो कुछ बुरे कर्म कम हुए, गंगा मैया ने प्रतीक रूप में मेरी रुद्राक्ष की माला ले ली | झटपट कपडे डाल हम चंद क़दमों पर मौजूद बटेश्वर मंदिर पहुच गए | हमारे सहयात्री मित्र ने पूजा करने की इक्छा जताई तो उन्हें फूल-धूप-बत्ती की एक डलिया दिला दी, पर महोदय जिद करने लगे कि आपको भी लेना होगा | मैंने उनको लाख समझाया भाई मैं बस मत्था टेक लूँगा, आपकी फूल-पत्ती से ही चढ़ा लूँगा पर वो मानने को तैयार ही नहीं हुए और अंततः उन्होंने एक और डलिया ले ली |
हम छोटी सी पहाड़ी पर मौजूद बटेश्वर मंदिर पहुँच वहाँ से गंगा के वृहंगम और अलौकिक रूप और नजारों को निहारते रहे, दिल को काफी सुकून मिल रहा था | फिर हमने मान्यता अनुसार, गुरु वशिष्ठ मुनि द्वारा स्थापित बाबा बटेश्वर के दर्शन किये, जबरदस्ती के पकडाए फूल-पत्ती, प्रसाद-अगरबत्ती को जैसे तैसे निपटा रहा था कि बाबू मोशाय ने फिर टोका - " कुछ तो बचा के रखो दादा, और भी भगवान हैं उनको भी चढाना है | " अब ये दादा मुझ से वो सब करवा रहे थे जिससे हम भागते रहे आज तक | अगरबत्ती जलवाया, वहाँ मौजूद सबके दरबार में अंत तक बचे फुल पते को चाढवाया, अगर कहीं भी फाकी मारता तो- करके आखिर पूजा-पाठ करवा लिया | मुझे मालूम था भोले सब देख रहे हैं, सारा पुण्य ई बंगाली दादा को ही देने वाले हैं | मेरा ताबड़तोड़ मोबाईल फोटोग्राफी साथ-साथ चल रहा था |
पूजा पाठ के बाद अब बंगाली दादा को भुख लगी थी, लगना भी था 10:30 बजने वाले थे | मैंने तो गरमा-गरम पराठे उडाएं थे सुबह-सुबह वो अभी तक साथ निभा रहे थे | नीचे आकर एक-एक समोसे खाकर आगे बढ़ने को था कि बंगाली मोशाय को जलेबी बनती नजर आ गई | हमने दही-जलेबी का भोग लगाया और आगे बढ़े |
विक्रमशिला विश्वविद्यालय के भग्नावशेष
11 बजे हम महाविहार के बाहर खड़े थे | मंजिल पर पहुँचने की खुशी बंगाली मोशाय के चेहरे पर साफ दिख रहा था | यहाँ चारों ओर सन्नाटा फैला था, एक्के-दुक्के लोग नजर आ रहे थे और वो भी शायद वहाँ काम करने वाले मजदूर और कर्मचारी ही थे | हमने प्रवेश टिकट लिया, जो 25 रूपये का था और अन्दर प्रवेश कर सीधे चल पड़े भग्नावशेष की ओर, यहाँ एक सुन्दर और सुसज्जित संग्रहालय भी है जिसे हम वापसी में देखेंगे |
महाविहार के भग्नावशेष पहुँच बंगाली मोशाय तो जैसे आश्चर्यचकित थे, मैं पहले भी आ चुका था शायद इसलिए मेरी प्रतिक्रिया वैसी नहीं थी | दुर-दुर तक फैले अवशेष, उसके चारों ओर सुन्दर और करीने से सजे-कटे हरे घास के मैंदान इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे | कितने साफ-सुथरी जगह देख किसी को भी अनायास विश्वास हो ही नहीं सकता कि ये जगह बिहार में है | तारीफ करनी पड़ेगी यहाँ की मेनेजमेंट की, जवाब नहीं | सैकड़ों एकड में फैला क्षेत्र , पर गंदगी, धुल-मिटटी का नामोनिशान तक नहीं | जगह इतनी साफ-सुथरी की बंगाली बाबु तो एक-दो बार तो कहीं भी लेट गए, जब में फोटो और वीडियो लेने में व्यस्त था | जो मुझे उनके तबीयत ठीक न होने का आभास बार-बार दे जाती पर वो मनाने को तैयार भी नहीं थे | हमने वहाँ के एक-एक अवशेषों को घूम-घूम कर देखा, अपने गौरवशाली इतिहास पर गर्व किया और सैकड़ों फोटो लिए, एक विडियों भी बनाया जिसे " " के यूट्यूब चैनल पर देखा जा सकता है | यायावर एक ट्रेवलर
जैसी कि मान्यता है, करीब चार सदियों बुलंदियो की कई उचाई छूने के बाद तेरहवीं सदी की शुरुआत में मुस्लिम आताताई इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी , जिसे बख्तियार खिलजी के नाम से भी जाना जाता है , कुतुबुद्दीन एबक का एक सैन्य सिपहसालार था, ने आक्रमण कर ना सिर्फ इस महाविहार को पूरी तरह नष्ट किया बल्कि उसने इसके पहले 1225 ई0 से 1235 ई0 के बीच में नालंदा विश्वविद्यालय को भी नष्ट किया | इन महाविहारों को नष्ट करने के दौरान उसने यहां उपस्थित हजारों बौद्ध भिक्षुओं की भी निर्ममता से हत्या कर दी और महाविहारों को बुरी तरह से तोडा-फोड़ा | यहाँ के पुस्तकालयों में हजारों की संख्या में पांडुलिपियां रखी थी जिसे इस आताताई ने आग लगा दी | ज्येष्ठ धर्म स्वामी लामा ने (1153-1216 ई0) तथा कश्मीरी विद्वान शाक्य श्रीभद्र ने (1145-1225 ई0) ने विक्रमशिला को प्रसिद्ध विद्या केन्द्र के रूप में देखा था। लेकिन पुन: धर्म स्वामी लामा जब 1235 ई0 में नालन्दा आये तब उन्होंने विक्रमशिला विश्वविद्यालय को नहीं पाया। इससे निष्कर्ष निकलता है कि 1225 ई0 से 1235 ई0 के बीच मुस्लिम आक्रमणकारियों ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया था। इस सन्दर्भ में 'तबकाते नासिरी' से भी जानकारी मिलती है। लामा तारानाथ ने लिखा है कि तुरूष्क आक्रमणकारियों ने इस महाविहार को सुनियोजित तरीके से नष्ट-भ्रष्ट किया। संपूर्ण महाविहार में आग लगा दी गई। मूर्तियों को भी टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़ दिया गया तथा यहाँ के विश्वविख्यात पुस्तकालयों को भी जला दिया गया। तारानाथ के अनुसार तुरूष्क आक्रमणकारियों ने इस महाविहार का विध्वंस कर उसके समीप ही महाविहार की ईटों और पत्थरों से एक किले का निर्माण किया और उस किले में वे कुछ समय तक रुके रहे।
विक्रमशिला के बारे में सबसे पहले खोजबीन प्रसिद्ध साहित्यकार राहुल सांस्कृत्यायन ने शुरू की और इसे भागलपुर से पश्चिम की ओर सुल्तानगंज के निकट होने का अनुमान लगाया । उसका मुख्य कारण था कि अंग्रेजों के जमाने में सुल्तानगंज के निकट एक गांव में बुद्ध की प्रतिमा का भूगर्भ से मिलना । किन्तु अंग्रेजों ने विक्रमशिला के बारे में पता लगाने का प्रयास नहीं किया और यह भूगर्भ में ही लंबे समय तक छुपा रहा | सौ एकड़ से ज्यादा भू-भाग में स्थित इस विश्वविद्यालय की खुदाई की शुरुआत साठ के दशक में पटना विश्वविद्यालय द्वारा की गई थी | अब तक हुए उत्खनन द्वारा प्राप्त भग्नावशेष को देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसे कितनी बर्बरतापूर्ण ढंग से ध्वस्त किया गया । मुख्य स्तूप तथा इसके मेहराबदार कमरे और मुख्य-स्थल के मंदिरों की खुदाई का श्रेय डॉ. बी. एस. वर्मा को जाता है। डॉ. वर्मा ने यहाँ 1972 से 1982 तक के दस साल तक विश्वविद्यालय स्थल में छुपे पुरातात्विक वस्तुओं की खुदाई करवाई ।
इस विश्वविद्यालय के सर्वाधिक प्रतिभाशाली भिक्षु दीपंकर ने दो सौ ग्रंथो की रचना की। जिस समय चीनी यात्री ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रहा था, उस समय विद्यार्थियों की संख्या करीब दस हजार और शिक्षकों की संख्या डेढ़ हजार थी। ऐसा कहा जाता है कि यहां के पुस्तकालय में हजारों की संख्या में पुस्तकें और संस्मरण उपलब्ध थे। उल्लेखनीय है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग कन्नौज के राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आया तो उसने लगभग छह वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। उसके ग्रंथ सी-यू-की से तत्कालीन भारतीय समाज व संस्कृति के बारे में भरपूर जानकारी मिलती है। ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय शिक्षक परिवार का हिस्सा भी था। कहा जाता है कि वह अपने साथ भारत से बुद्ध के कोई एक सौ पचास अवशेषों, सोने, चांदी व चंदन की लकड़ी से बनी बुद्ध की मूर्तियां और करीब साढ़े छह सौ पुस्तकों की पांडुलिपियां ले गया था। यह भगवान बुद्ध में उसकी आस्था का प्रमाण है। महान विद्वान शीलभद्र नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उन्होंने अपने ज्ञानपुंज से नालंदा विश्वविद्यालय को जगत-प्रसिद्ध किया।
ह्वेनसांग ने अपने विवरण में अपने समय के महान विद्वान शिक्षकों- धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणपति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, आर्यदेव, दिगनाग और ज्ञानचंद्र आदि- का उल्लेख किया है। ये शिक्षक अपने विषयों के साथ-साथ अन्य विषयों में भी पारंगत, निपुण और ज्ञानवान थे। पाल शासक गोपाल द्वितीय के समय में यहाँ से प्राप्त की गई 'प्रज्ञापारमिता' की पाँडुलिपि अभी भी ब्रिटिश संग्रहालय में सुरक्षित है।
उत्खनन में एक ग्रंथाकार का अवशेष भी मिला है जिसे देखने से प्रतीत होता है कि यह ग्रंथागार कभी काफी समृद्ध रहा होगा। भोजपत्र एवं तालपत्र ग्रंथों को नष्ट होने से बचाने के लिए ग्रंथागार में शीतोष्झा व्यवस्था थी। ग्रंथागार की दो दीवारों के बीच पानी बहा करता था जो ताप मान को हमेशा सामान्य बनाए रखता था। इन उपायों को देखने से यही प्रतीत होता है कि इस भवन का निर्माण पुस्तकालय के लिए ही किया गया होगा। इसमें बौद्ध पांडुलिपियों का अच्छा संग्रह था।
खुदाई स्थल में नीचे उतरते जो अवशेष हैं वो लगभग 60 फीट लंबे -चौड़े एक चबूतरे पर स्थित इस खंडहर की दीवारों और पक्की ईंटों के पाए क्षतिग्रस्त हैं। इस खुदाई से तिब्बती विद्वानों द्वारा वर्णित केन्द्रीय चैत्य के सत्यापित हो जाने से महाविहार के प्रायः सभी भवनों का प्रकाश में आना निश्चित हो गया है। यहाँ 50 फीट ऊँचे और 75 फीट चौड़े भवन के रूप में एक प्रधान चैत्य था। भूमि - स्पर्श मुद्रा में भगवान बुद्ध की प्रतिमा प्राप्त हुई है। पूर्वी और पश्चिमी भवन में पद्यासन (पदमासन ) पर बैठे अवलोकितेश्वर की कांस्य-प्रतिमा प्राप्त हुई है। यहाँ अवस्थित स्तूप को देखने से ऐसा मालूम होता है कि कक्षाओं में प्रवेश के लिए यही मुख्य मंडप है। इसकी दीवारों मे चारों ओर टेराकोटा ईंटें लगी हैं जिनकी दशा बहुत खराब है।
स्तूप के चारों ओर टेराकोटा की मूर्तियाँ लगी हैं। इन मूर्तियों में बुद्ध धर्म और सनातन धर्म से सम्बन्धित चित्र बने हैं। खुदाई के दौरान मठ पूर्णरूपेण चतुष्कोणीय है। यह 330 वर्गमीटर में फैला है। इसमें 28 कमरे हैं। इसके अलावा 12 भूगर्भ कोष्ठ बने हैं। इसका प्रयोग चिंतन-कार्य के लिए किया जाता था। केन्द्रीय चैत्य मीटर ऊँचा है। इसके केन्द्र के चारों ओर विपरीत दिशा के अराधना गृह में दो प्रदक्षिणा-पथों का निर्माण किया गया है। सभी प्रदक्षिणा पथों के ताखों में मिट्टी के पकाए हुए अनेक देवी-देवताओं , पशु-पक्षियों , जानवर और अनेक सांकेतिक वस्तुओं का चित्रण पाया गया है। इसके अलावा खुदाई में यहाँ तंत्र-साधना के गुफा भी प्रकाश में आए हैं और वहाँ महाविहार-अंकित एक मुद्रा भी मिली है।
विक्रमशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा का माध्यम संस्कृत भाषा थी। पाल शासकों के काल में बौद्ध धर्म के तहत तंत्रज्ञान (वज्रयान) का विकास हुआ। विक्रमशिला सबसे बड़ा तांत्रिक केन्द्र था। महाविहार में पढ़ाई जाने वाली तंत्र में सिद्धि के लिए छात्र वर्तमान में उत्खनन-स्थल से दो किलोमीटर दूर , शांत गंगा के किनारे बटेश्वर-स्थान जाते थे। बटेश्वर-स्थान आज भी सिद्ध-पीठ के नाम से विख्यात है।
विक्रमशिला की उत्खनन के दौरान कई दुर्लभ चीजें निकली, कुछ यहाँ हैं और कुछ यहाँ से कई अन्य जगहों पर भेज दिया गया | संग्रहालय दो मंजिला भवन में था और वो भी अति सुसज्जित और व्यवस्थित | यहाँ मोबाईल का उपयोग निषिद्ध था, इस वजह से कोई फोटो न ले सका | संग्रहालय घूमने के दौरान सिर्फ दो लोग आये और हम से पहले चले गए| और कोई था नहीं इस वजह से दो-दो सुरक्षा गार्ड हम पर निगरानी रखे थे, जबकि पहले ही वहाँ हाई-सिक्योरिटी डिवाइस भी लगी थी | कई दुर्लभ चीजों को देखने का मौका मिला पर सबसे ज्यादा खून उस वक्त खौल उठा जब मैंने भाले, फरसे और तलवार की कुछ मुट्ठे देखे | मिटटी में पड़े-पड़े इनकी हालत खराव हो चुकी थी, पर ये वही हथियार थे जिनसे यहाँ के सभी गुरुओं और शिष्यों का बेदर्दी से कत्लेआम किया गया | एक शिलालेख पर सोमपुर महाविहार का उल्लेख था, उसकी एक फोटो संग्रहालय में देखने को मिली जो सीढियों के पास लगी थी पर सुरक्षा में लगे पहलवानों ने इसकी भी फोटो लेने नहीं दिया | यह भी बिल्कुल प्रतिकृति थी विक्रमशिला स्तूप की | जैसा शिलालेख पर जानकारी मिली की उसका भी निर्माण धर्मपाल द्वारा ही किया गया था | अब यह जगह शायद बंगलादेश में है |
वापस चलने के पहले हमने मैंगो फ्रूटी की एक बड़ी बोतल ली पर भूख लगी थी इसलिए बैग में रख लिया, खाने के बाद आम का स्वाद लिया जायेगा | आते वक्त हमें कहलगाँव में एक होटल नजर आ गया तो हमने वहाँ रुकर चावल-दाल, तीन सब्जी और सलाद से सजी थाली का भोग लगाया और फिर 4 बजे तेज रफ़्तार से घर की ओर चल पड़े, क्योंकि हमें अँधेरा होने से पहले घर पहुँचाना था | वापस आते वक्त हमने सिर्फ दो ब्रेक लिए एक खाने के लिये और एक भागलपुर की सीमा में पहुचकर जूस पीने के लिये जो हमने महाविहार के बाहर ख़रीदा था | हम 5:40 बजे अपने घर पहुँच गये |
पटना से 250 किलोमीटर व भागलपुर से 50 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है | यह राजमार्ग संख्या 33 (NH 33) से नौगछिया से विक्रमशिला सेतु द्वारा जुड़ा जुआ है |
यहाँ तक पहुँचने का मुख्य साधन रेल-मार्ग है, निकटवर्ती रेलवे स्टेशन कहलगाँव है, पर यहाँ आसपास ठहरने और खान-पान की कोई व्यवस्था नहीं है | विक्रमशिला महाविहार भागलपुर से करीब 50 किलोमीटर की दुरी पर ही है | यहाँ तक जाने के लिए निजी गाड़ी या भागलपुर से गाड़ी लेकर पहुँचा जा सकता है, पर .... भागलपुर से कहलगाँव की सड़क ऐसी है कि केदारनाथ और गंगोत्री की यात्रा भी आसान लगेगी बजाय विक्रमशिला तक पहुँचने के । ठहरने के लिए भागलपुर शहर का सहारा लेना होगा । वैसे तो भागलपुर से कहलगांव का सफर लोकल ट्रेन से किया जा सकता है अगर आप ट्रेन में सवार हो पाएं | ट्रेन की संख्या अत्यंत ही गिनी-चुनी है इस वजह से ट्रेन भेड़-बकरियों की तरह भरे होते हैं | हम तो ट्रेन से जाने की हिम्मत ही नहीं कर सकते |
फिर मिलते हैं अगले यात्रा पर, तब तक स्वस्थ रहिए, मस्त रहिए और यायावरी करते रहिये | इस यात्रा के दौरान लिये गए अन्य फोटो →
https://youtu.be/KNk2HpGSG3s
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