दशरथ मांझी: पर्वत से भी ऊँचे एक पुरुष की कहानी (Dashrath Manjhi: The Mountain Man) - Travel With RD

Tripoto
16th Mar 2018
Photo of दशरथ मांझी: पर्वत से भी ऊँचे एक पुरुष की कहानी (Dashrath Manjhi: The Mountain Man) - Travel With RD by RD Prajapati

बिहार के गया से लगभग तीस किलोमीटर दूर एक गाँव है गहलौर (अत्री ब्लॉक), पहाड़ी के किनारे किनारे जाती एक लम्बी वीरान सी सड़क, एक ओर से पूरी तरह पहाड़ी से घिरे होने के कारण सबसे नज़दीकी शहर (वजीरगंज) जाने के लिए 70-80 किलोमीटर का लम्बा चक्कर, और तो और पीने का पानी भी लाने के लिए रोज़ाना पहाड़ी के ऊपर चढ़कर तीन किलोमीटर की कठिन पथरीली डगर। तो ये थी बिहार के उस सुदूर गाँव के बाशिंदों की पीड़ा । लेकिन ग्रामीणों के लिए अभिशाप बन चुके इस पर्वत को झुकाने वाले युगपुरुष का जन्म भी शायद अब इस धरती पर ही चुका था ।

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गेहलौर घाटी: दशरथ मांझी पथ

एक दिन पर्वत पार करने के क्रम में ही एक महिला लड़खड़ा कर गिर जाती है और उसका मटका फूट जाता है ।

बुरी तरह जख्मी उसका इलाज सिर्फ इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि शहर की दूरी थी सत्तर किलोमीटर, यातायात के साधन भी उपलब्ध ना थे। अगर पहाड़ नहीं होता तो दूरी सिर्फ सात किलोमीटर होती और उसकी जान बचायी जा सकती थी। राह देखता उसका पति, इस घटना से खिन्न हो जाता है, और विवश हो जाता है, एक क्रांतिकारी इतिहास का सृजन करने को । अपने हाड़-मांस के शरीर से उस कठोर पर्वत का सीना चीरने को । जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ, दशरथ मांझी की, जिन्हें आज सम्मानपूर्वक मांझी द माउँटेन मैन के नाम से जाना जाता है, पिछले वर्ष इसी नाम से उनके जीवन पर एक फिल्म भी रिलीज़ हो चुकी है। मांझी द माउंटेन मैन।

बोध गया देख लेने के बाद सोचा की जब गया तक आ ही गया हूँ, फिर उस महान पुरुष की कृति देखे बिना यहाँ से भाग जाना उनका असम्मान ही होगा। गया से उनके गाँव गहलौर जाने के लिए बसें तो चलती है, मगर शाम को अधिक अँधेरा हो जाने पर वापस आने में परेशानी हो सकती है, इसीलिए सुबह-सुबह ही चलकर दोपहर तक वापस आ जाने में ही भलाई है। लेकिन ये सब बातें भला हमें पहले ही बताता कौन? दोपहर के ढाई बज रहे थे, और पता चला की अगर बस से चले भी जाते हैं तो वापस आते-आते अँधेरा हो जायेगा और फिर बस नहीं भी मिलेगी। उस मार्ग में ऑटो भी नहीं चलते। फिर भी किसी तरह एक ऑटो वाला जाने के लिए तैयार हो गया।

गया से गहलौर के लिए सफ़र शुरू हो चुका था। माउंटेन मैन के बारे उनपर बनी फिल्म देखकर सबसे पहले जानकारी प्राप्त हुई थी। बस इन्ही ख्यालों में डूबा था और अचानक ऑटो वाले ने कहा कि, "अरे वो रहा दशरथ जी का घर!" दो-चार झोपड़ियों के बीच एक छोटा सा मकान और रोड पर खेलते हुए बच्चे। एक बुजुर्ग महिला हमारे ऑटो में आकर बैठ गयी और उनसे मैंने गाँव के बारे में कुछ पूछा। उन्होंने सबसे पहले ही कह दिया की दशरथ जी के घर से तीन किलोमीटर आगे ही वो पहाड़ी है, जिसे उन्होंने बाईस साल तक काटा था। इसे आज दरअसल गाँव के लोगों को पानी लाने के लिए रोज़ाना पहाड़ी पार कर जाना पड़ता था, इसी क्रम में दशरथजी की पत्नी एक अकेला आदमी कैसे लगातार 22 साल तक एक पर्वत को काटने का धैर्य जुटा सकता है, यह वाकई आश्चर्यजनक है। गया से 12 किलोमीटर बाद एक मोड़ है- भिंडस मोड़ । यहाँ से एक रास्ता वज़ीरगंज और एक रास्ता गहलौर की ओर मुड जाता है। गहलौर जाने वाली सड़क एक वनस्पतिहीन पहाड़ी के किनारे किनारे होकर ही जाती है, दूर-दूर तक सिर्फ खेत नजर आते हैं, और इक्के-दुक्के सवारी गाड़ियाँ। आबादी भी काफी कम, लेकिन सिर्फ रास्ता चकाचक है।

यह इलाका देखने पर बिहार जैसे राज्य के 'विकास' की असलियत पता चलती है। न ढंग का कोई स्कूल, न कोई हॉस्पिटल। इसी बीच अगर कहीं एक छोटा सा यात्री पड़ाव भी दिख जाये तो, वहाँ भी संगमरमर पर किसी नेता का नाम लिखा मिलेगा। "मैं मांझी जी की बहू हूँ", हम सब बहुत खुश हुए यह जानकर की इतने महान व्यक्ति के परिवार के किसी सदस्य से मुलाकात भी हो गयी। मैंने पूछा की सरकार ने आपके परिवार को कुछ दिया? उन्होंने कहा कुछ ख़ास नहीं, सिर्फ पहाड़ी के पास उनके नाम एक विश्रामालय बनवा दिया, और घर के आगे एक मूर्ति! बाकि परिवार आज भी वही गरीबी में ही जी रहा है। फिल्म बनाने वाले भी आये थे, लेकिन उनको क्या? यहाँ अच्छी-खासी कहानी मिली, कमाकर चले गए। दशरथ जी का देहांत सन 2007 में ही नई दिल्ली के एम्स में कैंसर से लड़ते हुए हो चुका है। इस गाँव को लोग दशरथ मांझी के गाँव के नाम से ही जानते है, "दशरथ नगर" आज इसका औपचारिक नाम है। हमलोगों ने जैसे ही घाटी की ओर कदम बढाया, ग्रामीण बड़ी उत्सुकता से हमें देखने लगे! सोचते होंगे भला ये भी कोई घूमने की जगह है! साइकिल से गुजरते हुए कुछ ग्रामीणों से बातचीत के दौरान पता चला की दशरथ जी यही पर बैठा करते थे, अपना हथौड़ा और छेनी लेकर। कितना धैर्य रहा होगा! कुछ लोग उनका हौसला बढ़ाते, कुछ पागल भी कहते। अपने ही परिवार के लोग भी खिलाफ ही थे, लेकिन उनका इरादा उस पर्वत से भी ज्यादा अटल था। फगुनिया (फागुनी देवी) एक दिन गिरकर बुरी तरह जख्मी हो जाती है, और शहर दूर होने के कारण सही समय पर इलाज नहीं हो पाता। वो दम तोड़ देती है। अगर पहाड़ बाधा नहीं होता तो शहर की दूरी सत्तर के बजाय सात किलोमीटर ही होती और उसका इलाज हो सकता था। इस घटना ने दशरथ जी को झकझोर कर रख दिया। अंत में खुद ही पहाड़ काटने की ठान ली। लेकिन यह भी कोई आसान काम न था। रोजी-रोटी की भी समस्या थी। छोटे-छोटे बच्चे थे। फिर भी जूनूनी होकर अपने भेड़-बकरियों को भी बेच डाला, और फावड़ा , हथौड़ा, छेनी खरीद लिया। दिन-रात एक कर पहाड़ काटते-काटते उनकी उम्र 24 से 46 हो गयी। तब जाकर सन 1982 के आस पास 365 फीट लम्बी, 25 फ़ीट गहरी और 30 फीट चौड़ी सड़क बनी। इतना ही नहीं, बाद में सरकार से सड़क, स्कूल, अस्पताल आदि के लिए रेल की पटरियों के किनारे-किनारे पैदल ही चलकर दिल्ली तक का रास्ता नाप लिया और वहाँ अपनी याचिका दी। बाद में उनके दुनिया से जाने के चार साल बाद 2011 में आख़िरकार सरकार ने इसकी सुध ली, और सड़क को और चौड़ा कर दोनों ओर जोड़ने वाली सड़क को आगे बढाया, जिसे दशरथ मांझी पथ का नाम दिया गया। कहते हैं की ताजमहल मुहब्बत की एक मिसाल है, क्योंकि उसे एक बादशाह ने बनवाया था। बादशाह के पास तमाम साधन और नौकर-चाकर थे। लेकिन उस बेचारे गरीब के पास क्या था, सिवाय अपने श्रम के, खून-पसीना बहाने के? अपनी मुहब्बत के लिए उस गरीब ने पर्वत को चीर कर रास्ता बना डाला। साथ ही यह मुहब्बत आगे चलकर गाँववालो के लिए भी वरदान बन गयी। अब आप मुहब्बत की असली मिसाल किसे कहेंगे?

दशरथ मांझी

Photo of गहलौर, Bihar, India by RD Prajapati

एक प्रसिद्द गीतकार ने कहा है-

"बनाकर ताजमहल किसी बादशाह ने, हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मजाक"

लेकिन आज दशरथ साहब ने गरीबों की मुहब्बत की लाज रख ली है। वे सदैव एक जन-नायक के तौर पर जाने जायेंगे, उनकी मिसाल युगों-युगों तक दी जाती रहेगी। गहलौर घाटी मुहब्बत के एक और ताज के रूप में जानी जाती रहेगी।

अब गहलौर से कुछ पन्ने-

दशरथ मांझी जी का घर

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गहलौर घाटी : मुख्य प्रवेश द्वार

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