यात्रा... बस इसी शब्द के साथ ही मन ना जाने कितनी जगहों में घूमने निकल जाता है!
आज फिर से वही जिज्ञासा जाग सी गयी है! फिर प्लान से बनते जा रहे हैं मन में, कि कहाँ कहाँ घूमना है? और शायद वक़्त के साथ ये प्लान पुराने प्लानों की तरह प्लान हीं रह जाएँ!
वैसे क्यूरियस तो बचपन से रहीं हूँ, पर आज न जाने क्यूँ ऐसा लग रहा है थोड़ी गलती कर दी है मैंने! medical फील्ड में हूँ जहाँ दूसरे बच्चे 12-12 घंटे पढ़ते हैं, और मेरा मन बस 12 घंटे घूमने का रहता है! शायद इसी कारण मेरे दोस्त भी “हवा “ कहा करते हैं मुझे! जब मन चाहा, जहाँ चाहा पहुँच गए!
घूमना मेरे लिये एक ध्यान की तरह है, जहा मैं खुद को खो कर.. खुद को पाती हूँ, ये वो चीज़े है जो मुझे बनाये रखने में मदद करती है.
अक्सर अपने शहर शहडोल से भोपाल जाते समय मैं जो महसूस करती हूँ वो मेरी ज़िन्दगी का काफी अच्छा पार्ट लिये हुए है. रेलवे स्टेशन खुद आपने आप में एक एडवेंचर है. जहाँ आप एक साथ कई संस्कृतियों का लुत्फ़ उठा सकते हैं.. एक पुरानी घटना सी याद आ रही है आज के करीब 3 साल पहले जब मैं शहडोल से इंदौर जा रही थी...
एक छोटे से स्टेशन में एक माँ अपने बेटे को विदा कर रही थी .. उस माँ की नम आँखें और बेटे की लाचारी दोनों ने मेरी आँखों को भी नम सा कर दिया था..
ट्रेन में गुजरते नजारों को देखना... उन्हें महसूस करना.. कितना सुकूनदेह लगता हैं ना!
खैर ...
बचपन से ही एक बड़ा कर्रा सा चस्का रहा है घूमने को ले कर! लोगो को जानना, उनके कल्चर को समझना उनके व्यक्तित्व को जानना ... एक अच्छा खासा इंटरेस्ट का विषय रहा है मेरे लिये !
मुझे याद है मेरे बचपन में माँ के कहे शब्द “इसका एक पांव तो हवा में ही रहता है” तब मैं 5 या 6 साल की रहीं होउंगी. उस वक़्त ज्यादा तो नहीं जानती थी दुनिया के बारे में.. पर बस एक अलग सा सुकून मिला करता था.. कहीं जाना भी हो तो पापा के साथ उनके स्कूटर में आगे खड़े हो कर मैं अक्सर गाने गाया करती थी.
बचपन की यादें भी न लाख चाहो पीछा नहीं छोडती...
काफी कुछ है घूमने को.. एक्सप्लोर करने को पर ये वक़्त... समझ नहीं आता क्या करूँ.. और जब वक़्त मिलता है तब दूसरी समस्याएँ आने लगती हैं. कितना अच्छा होता न अगर ट्रेवलिंग फ्री होती तो... फिर तो शायद कोई मुझे दुबारा देख ही न पाता!
ढेर सारी इच्छाएं हैं...