पंजाब के 10 दर्शनीय ईतिहासिक गुरुद्वारे - जिनकी यात्रा किए बिना पंजाब की यात्रा अधूरी है|

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Photo of पंजाब के 10 दर्शनीय ईतिहासिक गुरुद्वारे - जिनकी यात्रा किए बिना पंजाब की यात्रा अधूरी है| by Dr. Yadwinder Singh
Day 1

1. श्री हरिमंदिर साहिब अमृतसर
श्री हरिमंदिर साहिब अमृतसर सिख धर्म का प्रमुख केन्द्रीय धार्मिक स्थल है| अमृत सरोवर के बीच शुशोभित श्री हरिमंदिर साहिब आलौकिक दृश्य पेश करता है| देश विदेश में बैठे हर सिख की इच्छा रहती है श्री हरिमंदिर साहिब के दर्शन करने के लिए| अमृत सरोवर की खुदाई चौथे गुरु रामदास जी 1577 ईसवीं ने करवाई थी | पांचवे गुरु अर्जुन देव जी ने 1588 ईसवीं को अमृत सरोवर को पक्का करवाया| छठे गुरु हरगोबिन्द साहिब जी ने श्री हरिमंदिर साहिब के सामने 1606 ईसवीं में अकाल तख्त साहिब का निर्माण करवाया| शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह ने हरिमंदिर साहिब में सोने चढ़ाया और परिक्रमा में संगमरमर लगवाया| सोने की चमक की वजह से इसको गोलडन टैंकर का नाम भी दिया गया| श्री हरिमंदिर साहिब में हर रोज एक लाख के करीब श्रदालु दर्शन करने के लिए आते हैं| पंजाब में सबसे ज्यादा पर्यटक अमृतसर में ही आते हैं|
पंजाब के दस सबसे महत्वपूर्ण गुरुद्वारा साहिब में श्री हरिमंदिर साहिब का पहला नंबर आता है|

2. तख्त श्री केशगढ़ साहिब आनंदपुर साहिब
सिख धर्म के पांच पवित्र तख्तों में से एक तख्त श्री केशगढ़ साहिब  जो पंजाब के जिला रोपड़ में चंडीगढ़ से 90 किमी और रोपड़ से 45 किमी दूर हैं। सिख ईतिहास में आनंदपुर साहिब का बहुत महत्व है, यहां दर्शन करने के लिए बहुत ईतिहासिक गुरुद्वारे और किले हैं। आनंदपुर साहिब को नौवें पातशाह गुरु तेग बहादुर जी ने कहलूर रियासत ( बिलासपुर) के राजा से जमीन खरीद कर बसाया था।
केशगढ़ साहिब एक ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ है। इसी जगह पर साहिबे कमाल कलगीधर पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ईसवीं की बैशाखी पर खालसा पंथ की सथापना की। आज केशगढ़ साहिब सिख धर्म के पांच सबसे महत्वपूर्ण गुरुद्वारों में से एक हैं। 1699 ईसवीं की बैशाखी को एक भारी इकट्ठ को संबोधित करते हुए गुरु गोबिंद सिंह जी ने एक शीश की मांग की जो जुल्म के खिलाफ लड़ सके, एक एक करके पांच शिष्य आगे आकर  अपने शीश गुरु जी को देने के लिए आगे बढ़े। बाद में यहीं पांच शिष्य गुरु जी के पांच पयारे बने। जिनके नाम निम्नलिखित हैं...
भाई धरम सिंह
भाई दया सिंह
भाई मोहकम सिंह
भाई हिम्मत सिंह
भाई साहिब सिंह
गुरु जी ने इन पांच शिष्यों को अमृत छकाया और खालसा पंथ की सथापना की। आज भी देश विदेश से श्रद्धालु केशगढ़ साहिब में माथा टेकने आते हैं। केशगढ़ साहिब की ईमारत बहुत शानदार और विशाल हैं। केशगढ़ साहिब गुरु जी का एक किला भी था, दूर से देखने पर आपको सफेद रंग के किले के रूप में दिखाई देगी केशगढ़ साहिब की ईमारत। केशगढ़ साहिब के अंदर गुरु ग्रंथ साहिब जी एक सुंदर पालकी में बिराजमान हैं। वहीं अंदर दरबार में गुरु जी के बहुत सारे ईतिहासिक शस्त्र भी संगत के दर्शनों के लिए रखे हुए हैं, जैसे खंडा, कटार, सैफ, बंदूक,नागिनी बरछा आदि। इसके साथ गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज के पवित्र केश और एक कंघा भी रखा हुआ है। यहां पर रहने की और लंगर की उचित वयवस्था हैं। जब भी आप पंजाब घूमने आए तो इस ईतिहासिक धरती को नमन करने आनंदपुर साहिब जरूर जाना।

3. तख्त_श्री_दमदमा_साहिब
सिख धर्म के पवित्र पांच तखतों में से एक  तखत श्री दमदमा साहिब की जो पंजाब के बठिंडा जिले में तलवंडी साबो नामक कस्बे में हैं। हर सिख की इच्छा होती हैं कि वह अपने जीवन काल में पांचों तखत साहिब की यात्रा दर्शन करें।पांच तखतों में से तीन तखत तो पंजाब में ही है।
1. श्री अकाल तख्त साहिब अमृतसर
2. तखत श्री केशगढ़ साहिब आनंदपुर साहिब
3. तखत श्री दमदमा साहिब तलवंडी साबो
दो तखत साहिब गुरूद्वारे पंजाब से बाहर है,
4. तखत श्री हरिमंदर जी पटना साहिब बिहार
5. तखत सचखंड श्री हजूर साहिब नांदेड़ महाराष्ट्र
आज हम बात करेंगे तखत श्री दमदमा साहिब के ईतिहास और महत्व की।
#तखत_श्री_दमदमा_साहिब
इस पवित्र जगह को नौवें गुरु तेग बहादुर जी और दसवें पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी की चरण छोह प्राप्त हैं। गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज आनंदपुर साहिब से चल कर चमकौर साहिब के युद्ध के बाद माछीवाड़ा, रायकोट, मुक्तसर के युद्ध के बाद जनवरी 1705 ईसवीं में यहां आए थे और इसी जगह पर उन्होंने अपना कमरकसा खोल कर दम लिया था , तभी यह जगह दमदमा साहिब के नाम से मशहूर हो गई। गुरु जी यहां नौ महीने से भी जयादा समय तक रहे। इसी पावन धरती को गुरु काशी का वर दिया जहां आज सिख धर्म की शिक्षा के  संस्थान और यूनिवर्सिटी बनी हुई है। इस पावन धरती पर ही गुरु गोबिंद सिंह जी ने भाई मनी सिंह जी से श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी के पावन सरूप को संपूर्ण करवाया। यहां पर ही शहीदां मिसल के सरदार शहीद बाबा दीप सिंह जी की देख रेख में गुरूबाणी पढ़ने लिखने सीखने के लिए एक टकसाल शुरू की गई । बाबा दीप सिंह जी की याद में यहां सुंदर बुरज बना हुआ है। यहां पर संगत के दर्शन के लिए बहुत ईतिहासिक वस्तुओं को रखा गया है जो गुरूओं से संबंधित हैं
1. श्री साहिब पातशाही नौंवी
2. निशाना लगाने वाली बंदूक
3. तेगा बाबा दीप सिंह
तख्त श्री दमदमा साहिब की ईमारत बहुत आलीशान हैं। यहां पर रहने के लिए बहुत सारी सरांय बनी हुई है। लंगर की उचित सुविधा हैं।   तखत श्री दमदमा साहिब बठिंडा शहर से 30 किमी दूर हैं।

श्री हरिमंदिर साहिब अमृतसर

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तख्त श्री केश गढ़ साहिब आनंदपुर साहिब

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तख्त श्री दमदमा साहिब जिला बठिंडा

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Day 2

4. गोईदवाल साहिब
पंजाब के जिला तरनतारन के गोईदवाल साहिब  को  दस में से सात गुरुओं की चरणछोह प्राप्त है।  गोईदवाल साहिब सिख धर्म का पहला तीर्थ हैं  जिसे तीसरे गुरु अमरदास जी महाराज ने दूसरे गुरू अंगद देव जी के आदेश पर बसाया था। गुरु अमरदास जी को 73 साल की उमर में गुरगद्दी मिली थी और 95 साल की उमर में वह गोईदवाल साहिब में ही  जयोति जोत समा गए।
सिख धर्म में गोईदवाल साहिब के दर्शन का विशेष महत्व हैं इसी शहर में पांचवें गुरू अर्जुन देव जी महाराज का जन्म हुआ। चौथे गुरु रामदास जी तीसरे गुरू जी के दामाद थे जिन्होंने अमृतसर शहर की सथापना की, पांचवें गुरू अर्जुन देव जी चौथे गुरू जी के पुत्र थे  बहुत सारे गुरूद्वारे हैं गोईदवाल साहिब में दर्शन के लिए।
गुरूद्वारा बाऊली साहिब
यह गोईदवाल साहिब का सबसे महत्वपूर्ण गुरूद्वारा हैं जहां 84 सीढियों वाली बाऊली बनाई तीसरे गुरू अमरदास जी  ने  महाराज ने|   श्रदालु इस बाऊली में सनान करते हैं बाऊली साहिब का जल बहुत पवित्र और ठंडा है। यह शहर बयास नदी के किनारे पर बसा हुआ है। तरनतारन से गोईदवाल साहिब की दूरी 23 किमी हैं और अमृतसर की दूरी 50 किमी हैं। गुरूद्वारा साहिब की ईमारत बहुत भव्य और शानदार हैं |

5. दरबार साहिब तरनतारन
तरनतारन शहर को पांचवे  गुरु अर्जुन देव जी ने बसाया। गुरु जी ने दो गांव खारा और पलासौर की जमीन 1,57000 मोहरे देकर खरीदी और ताल की खुदवाई की और शहर की सथापना की जिसका नाम तरनतारन रखा गया। तरनतारन साहिब का सरोवर पंजाब के गुरुद्वारों में सबसे बड़ा सरोवर हैं। तरनतारन सरोवर की परिक्रमा को शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह ने पकका करवाया और दरबार साहिब की ईमारत को सोने की मीनाकारी से नवीन रुप दिया। दरबार साहिब तरनतारन की ईमारत सामने से देखने से बिल्कुल हरिमंदिर साहिब अमृतसर की तरह लगती हैं कयोंकि सोने की मीनाकारी दोनों जगह पर महाराजा रणजीत सिंह ने करवाई हैं। दरबार साहिब तरनतारन सरोवर के एक कोने में बना हुआ हैं जिसके पीछे विशाल सरोवर दिखाई देता है। दर्शनी डियूढ़ी के रास्ते से हम दरबार साहिब में प्रवेश करते हैं। दरबार साहिब तरनतारन का नकशा भी पंचम गुरु अर्जुन देव जी ने खुद बनाया हैं और हरिमंदिर साहिब अमृतसर का भी। महाराजा रणजीत सिंह के पौत्र कंवर नौनिहाल सिंह ने दरबार साहिब की परिक्रमा के एक कोने में एक विशाल मीनार का निर्माण करवाया जहां से बहुत दूर तक सुरक्षा को मद्देनजर नजर रखी जा सकती थी। दरबार साहिब के दर्शन करके मन निहाल हो जाता हैं। यहां लंगर और रहने की उचित सुविधा हैं अमृतसर से तरनतारन शहर की दूरी सिर्फ 25 किमी हैं अमृतसर के साथ आप तरनतारन दरबार साहिब को भी अपने टूर में जरूर शामिल करें।

6. गुरूद्वारा_बेर_साहिब
सुलतान पुर लोधी जिला कपूरथला

यह ईतिहासिक गुरू द्वारा गुरू नानक देव जी से संबंधित हैं। सुलतानपुर लोधी पंजाब के कपूरथला जिले की तहसील हैं जो कपूरथला से 28 किमी, जालंधर से 50 किमी, मेरे घर से 85 किमी और चंडीगढ़ से लगभग 200 किमी दूर हैं।
गुरूद्वारा_बेर_साहिब
वैसे तो इस शहर में बहुत सारे गुरू द्वारे हैं लेकिन सबसे मशहूर बेर साहिब हैं, इस ईतिहासिक जगह में एक नदी जिसे पंजाबी में वेई नदी कहा जाता हैं, उसमें गुरू नानक देव जी रोज सनान करते थे और प्रभु भक्ति में लीन हो जाते थे, बेर के वृक्ष के नीचे बैठ कर सिमरन करते थे आज भी वह बेर का ईतिहासिक वृक्ष मौजूद है, जिसके नाम पर ही गुरू द्वारा बेर साहिब पड़ा हैं। इस शहर में ही गुरू नानक देव जी ने जपुजी साहिब और मूल मंत्र की रचना की। इसी शहर में गुरू जी ने मोदीखाना में नौकरी की, इसी शहर में गुरू जी के दोनों पुत्रों का जनम हुआ।
सिख ईतिहास में इस शहर का बहुत महत्व हैं।

गोईंदवाल साहिब

Photo of पंजाब by Dr. Yadwinder Singh

दरबार साहिब तरनतारन

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गुरुद्वारा श्री बेर साहिब सुलतान पुर लोधी

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Day 3

7. गुरुद्वारा_परिवार_विछौड़ा_साहिब
जिला रोपड़
यह ईतिहासिक गुरुद्वारा दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी से संबंधित है | बात
दिसंबर 1704 ईसवीं की होगी   गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज मुगलों और औरंगजेब की नजरों को अच्छे नहीं लगते थे कयोंकि गुरु जी जुल्म के खिलाफ लड़ने के लिए एक शक्तिशाली सैना का निर्माण कर लिया था, सिख धर्म की सथापना करके  कयोंकि सिखों ने औरंगजेब के चैलंज का दलेरी से सामना करना शुरू कर दिया था जिसकी अगवाई खुद गुरु जी कर रहे थे। आनंदपुर साहिब की धरती दिल्ली के तख्त के फरमान नहीं मानती थी, कयोंकि गुरु जी जुलम करने और जुल्म सहने दोनों के खिलाफ थे। मई 1704 ईसवीं में लाहौर, सरहिंद, दिल्ली से मिलकर मुगल सैना और कुछ पहाड़ी राजा की सैना ने इकट्ठा होकर आनंदपुर साहिब घेर लिया  यह घेरा छह महीने मई 1704 ईसवीं से दिसंबर 1704 ईसवीं तक रहा  तब तक मुगल सैना भी थक चुकी थी और आनंदपुर साहिब में भी किले में खाने पीने का सामान कम हो रहा था। मुगलों ने कुरान की कसम खाकर गुरु जी को परिवार और सिखों को आनंदपुर साहिब छोड़कर जाने की फरियाद की और कहा आपको कुछ भी कहा नहीं जाऐगा। सिखों ने भी गुरु जी को चले जाने के कहा, गुरु जी को मुगलों की बात पर यकीन नहीं था, फिर भी सिखों के कहने पर परिवार और सिखों के साथ आनंदपुर साहिब दिसंबर 1704 ईसवीं को छोड़ दिया, अभी छह सात किलोमीटर तक ही गए होगे मुगल सैना ने पीछे से हमला कर दिया। गुरु जी परिवार और सिखों के साथ रोपड़ की ओर बढ़ रहे थे, सिख सैनिक मुगल सेना के साथ लड़ते हुए ही आगे चल रहे थे। जहां आजकल गुरुद्वारा परिवार विछौड़ा बना हुआ है वहां पास ही सिरसा नदी बहती हैं जिसमें उस समय बाढ़ आई हुई थी, इस जगह पर गुरु जी ने कुछ समय आराम किया। जब गुरु जी  अपने परिवार और सिखों के साथ बाढ़ से उफनती हुई सिरसा नदी पार करने लगे तब गुरु जी का परिवार तीन हिस्सों में बंट गया  गुरु जी  अपने दो बड़े बेटों अजीत सिंह, जुझार सिंह और कुछ सिखों के साथ रोपड़ होते हुए चमकौर साहिब पहुंचे|
दूसरे हिस्से में गुरु जी पत्नी और कुछ माताएं भाई मनी सिंह के साथ दिल्ली पहुंच गई।
तीसरे हिस्से में गुरु जी की माता गुजरी जी और छोटे साहिबजादे को गुरु घर का रसोइया गंगू अपने घर गांव खेड़ी ले गया, जिसने धोखा देते हुए ईनाम के लालच में आकर माता जी और छोटे साहिबजादे को मोरिंडा थाने में खबर देकर गिरफ्तार करवा दिया, जो बाद में सरहिंद में नीवों में चिन कर शहीद हुए। गुरु जी का सारा परिवार धर्म और देश के लिए शहीद हो गया इसीलिए उन्हें सरबंसदानी कहा जाता है जिस जगह गुरु जी का परिवार बिछड़ा था वहां आजकल गुरुद्वारा बना हुआ है। शत शत नमन हैं ऐसे संत सिपाही गुरु जी को  आज भी जब कभी इस जगह दर्शन करने जाता हूँ तो आखें नम हो जाती हैं जहां गुरू जी का परिवार बिछ़डा था। यह जगह आनंदपुर साहिब से 26 किमी और रोपड़ से 15 किमी दूर है। आईए कभी पंजाब की धरती को घूमने जहां की धरती कुरबानियों से भरी पड़ी है।

8. गुरुद्वारा_चमकौर_साहिब
जिला रोपड़
यह ईतिहासिक गुरुद्वारा  चमकौर साहिब के ईतिहासिक युद्ध की गवाही भरता है| दिसंबर 1704 ईसवी में गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज ने अपने परिवार और कुल 400 या 500 सिखों के साथ आनंदपुर साहिब को छोड़ दिया, जिस किले को मुगलों और पहाड़ी राजाओं की सैना ने मई 1704 ईसवी से घेरा डाला हुआ था। मुगलों ने कुरान की कसम खाई थी कि आप किले को छोड़ जाईये, आपको कुछ नहीं कहा जायेगा, लेकिन जब 20 दिसंबर 1704 ईसवी को गुरू जी ने किला छोड़ दिया तो मुगलों और पहाड़ी राजाओं ने गुरू जी के ऊपर हमला कर दिया।
आनंदपुर साहिब और रोपड़ के बीच सरसा नंगल नामक एक नदी बहती हैं, उस नदी में उस समय बहुत भयंकर बाढ़ आई हुई थी, गुरु जी का परिवार यहां तीन हिस्सों में बंटकर बिछड़ गया, इस जगह पर अब गुरुद्वारा परिवार विछोड़ा साहिब बना हुआ हैं, यह बात है 21 दिसंबर 1704 ईसवी की, उस दिन गुरू जी अपने दो बड़े साहिबजादों , पांच पयारे और कुल चाली सिखों के साथ चमकौर की कच्ची गढ़ी में पहुंचे। मुगल सेना पीछा कर रहे थे, चारों तरफ मुगल सेना थी, गुरु जी ने गढ़ी में मोर्चा लगा लिया।
#चमकौर_साहिब
चमकौर साहिब के युद्ध का नाम दुनिया के सबसे बहादुरी वाले युद्धों में आता हैं, जहां एक तरफ 10 लाख की विशाल मुगल सेना थी तो दूसरी तरफ गुरू गोबिंद सिंह जी, उनके दो बेटे, पांच पयारे और 40 सिख मिलाकर कुल 48 सिख। यह युद्ध था 48 vs 10,00000 जो अपने आप में बहादुरी की मिसाल हैं। यह युद्ध शुरू हुआ था 22 दिसंबर 1704 ईसवी में, गुरू जी ने पांच पांच सिखों के जत्थे बना कर युद्ध में बना कर भेजे, और जब पांच सिख 10 लाख मुगल सेना के साथ युद्ध करता था तो हर  एक सिख सवा लाख से लड़ता था, गुरू गोबिंद सिंह जी ने सवा लाख से एक लडायू, तबै गोबिंद सिंह नाम कहायू की बात को पूरा कर दिया। मुगलों सेना को लगा था गुरू जी के साथ दस बीस सिख होगें हम एक दो घंटे में युद्ध खत्म कर देगे, लेकिन उनका अंदाजा गलत साबित हुआ, सिख 48 थे लेकिन लड़ ऐसे रहे थे जैसे 500 सिख हो, गुरु गोबिंद सिंह जी का तेज ही इतना था, कोई मुगल गढ़ी के पास आने से डरता था, अगर किसी ने कोशिश की भी तो गुरु गोबिंद सिंह के तीर के निशाने ने उसे मौत की नींद सुला दी, गुरु जी का निशाना बहुत पकका था, मालेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद खान के भाई नाहर खान ने सीढ़ी लगाकर चमकौर गढ़ी पर चढ़ने की कोशिश की थी, लेकिन जैसे उसने सिर ऊपर उठाया तो बुरज पर खड़े गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने तीर से नाहर खान को नरक भेज दिया, फिर उसके भाई ने कोशिश की उसका भी यहीं हाल हुआ, तीसरा भाई छिपकर भाग गया।
#साहिबजादा_अजीत_सिंह_की_शहीदी
साहिबजादा अजीत सिंह जी गुरू गोबिंद सिंह जी के बड़े बेटे थे, उमर केवल 18 साल की, अपने पिता जी आज्ञा मांगी युद्ध में जाने के लिए, गुरु जी बहुत खुश हुए, उन्होंने अपने बेटे को सीने से लगाकर तीर देकर चमकौर के युद्ध में भेजा और कहा कोई भी वार पीठ पीछे नहीं होना चाहिए, सारे वार तीर तलवार तेरी छाती में लगने चाहिए, बाबा अजीत सिंह ने युद्ध में आकर ही तीरों की बौछार चला दी, बहुत सारे मुगलों को मौत के घाट उतार कर दिया,  जिसमें मुगलों के जरनैल अनवर खान का नाम भी आता हैं,ऊपर चमकौर की गढ़ी में कलगीधर पातशाह अपने बेटे के जौहर देखकर शाबाशी दे रहे थे, जब बाबा अजीत सिंह के तीर खत्म हो गए तो उन्होंने तलवार निकाल कर युद्ध लड़ना जारी रखा, ईतिहास कहता हैं कि युद्ध में बाबा अजीत सिंह को 350 के लगभग जख्म लगे, तीरों से, तलवारों से और एक भी जख्म पीठ पीछे नहीं लगा, इस तरह बाबा अजीत सिंह शहीद हुए। नमन हैं उनकी शहीदी को।
#साहिबजादा_जुझार_सिंह_की_शहीदी
साहिबजादा जुझार सिंह जी गुरू गोबिंद सिंह जी के दूसरे बेटे थे  जिनकी उमर उस समय 15 साल की थी, अपने बड़े भाई बाबा अजीत सिंह की शहीदी के बाद आपने भी अपने गुरूपिता से  युद्ध में जाने की आज्ञा मांगी, गुरू जी ने बाबा जुझार सिंह को भी खुशी खुशी युद्ध में भेजा  ऐसे ही जौहर दिखाते हुए बाबा जुझार सिंह भी शहीद हुए। अपने दोनों बेटों को शहीद होते हुए देखकर गुरु जी ने चमकौर की गढ़ी से जैकारों से शाबाशी दी। यह था गुरू गोबिंद सिंह जी का प्रताप जो अपने बेटों को युद्ध में खुद लड़ने के लिए भेजते है और उनकी शहीदी पर प्रभु का शुकराना करते हैं।

9. गुरूद्वारा_फतेहगढ़_साहिब
यह ईतिहासिक गुरूद्वारा छोटे साहिबजादों की शहीदी  की यादगार है| जिनकी शहादत 27 दिसंबर 1704 ईसवीं में सरहंद शहर में हुई।
21 दिसंबर 1704 ईसवीं को गुरू जी का परिवार सरसा नदी के किनारे बिछड़ गया, छोटे साहिबजादे और दादी माता गुजरी जी बिछड़ कर अलग रास्ते पर चलने लगे, जहां उन्हें गुरू घर का रसोइया गंगू मिल गया, जो उन्हें अपने गांव सहेड़ी ले गया। गंगू में मन में पाप था, उसने माता जी का धन भी चोरी कर लिया और माता जी पर चोरी का इंलजाम भी लगा दिया। फिर पापी गंगू ने मोरिंडा शहर के थाने में खबर दे दी कि गुरू गोबिंद सिंह जी की माता जी और छोटे बच्चे मेरे पास हैं। मोरिंडा थाने से मुगल सैनिक छोटे साहिबजादे और माता जी को पकड़ कर ले गए। मोरिंडा थाने में छोटे साहिबजादे और माता जी ने कोतवाली में एक रात गुजारी जहां गुरूद्वारा कोतवाली साहिब मोरिंडा बना हुआ है। यहां से साहिबजादे और माता जी को सरहंद भेज दिया गया, जहां का जालिम नवाब वजीर खान था।
छोटे साहिबजादे और माता जी को सरहंद में ठंडे बुरज में कैद रखा गया, ठंडा बुरज सरहंद में एक ऊंचा बुरज हैं उसके साथ में एक बरसाती नदी बहती थी, जिसमें गरमियों में भी ठंडी हवा चलती थी और सरदियों में तो बहुत तेज ठंडी हवा चलती थी, माता जी और छोटे साहिबजादों ने ठंडा बुरज में दो रातें गुजारी, 25 और 26 दिसंबर 1704 की, यहां इनको खाने के लिए और ऊपर लेने के लिए कोई भी कंबल या रजाई नहीं दी गई, और कहा गया कोई भी व्यक्ति इनको खाने पीने के लिए कुछ न दे, इसी समय में ईतिहास में मोती राम महरा का नाम आता हैं, जिसने अपने घर की वस्तुएं और बीवी के सोने के गहनों को ठंडा बुरज के सैनिकों को देकर माता जी और छोटे साहिबजादों को गरम दूध पिलाया। सिख कौम आज भी मोती राम महरा को बहुत प्रेम से याद करती हैं, धन हैं मोती राम महरा जी जिन्होंने दूध की सेवा की।
#पहली_पेशी_25_दिसंबर_1704
छोटे साहिबजादों की सूबे सरहंद के नवाब वजीर खान की कचहरी में पेशी हुई, नवाब ने किले के छोटे गेट को खोल कर रखा ताकि साहिबजादे सिर झुका कर आऐंगे, लेकिन साहिबजादों ने गेट के अंदर पहले पैर रखें और नवाब को सलाम नहीं किया। नवाब ने साहिबजादों को इसलाम कबूल करने के लिए बहुत लालच दिए, धन दौलत शोहरत के, लेकिन साहिबजादे नहीं माने।
#दूसरी_पेशी_26_दिसंबर_1704
दूसरे दिन दूसरी पेशी हुई कचहरी में, वजीर खान ने काजी को फतवा लगाने के लिए कहा काजी ने कहा इस्लाम में निरदोश बच्चों को फतवा नहीं लगा सकते, मालेरकोटला के नवाब को भी कचहरी में बुलाया गया कयोंकि उसके दो भाईयों को गुरू जी ने चमकौर की जंग में मारा था, सरहंद के नवाब ने मालेरकोटला के नवाब को साहिबजादों से बदला लेने के लिए कहा, मालेरकोटला के नवाब ने निरदोश बच्चों को छोड़ने के लिए कहा, तब वजीर खान ने छोटे साहिबजादों को दीवारों में चिनवा कर शहीद करने का आदेश दिया, इस बात से खफा होकर नवाब मालेरकोटला कचहरी छोड़कर चला गया, सिख आज भी मालेरकोटला नवाब का आदर करते हैं, 1947 ईसवी में मालेरकोटला रियासत में कोई मुसलमान नहीं मारा गया।
#साहिबजादों_की_शहीदी_27_दिसंबर_1704
आज के ही दिन 27 दिसंबर को छोटे साहिबजादों को दीवारों में चिनवा कर शहीद किया गया, बाबा फतेह सिंह की उमर उस समय 7 साल और बाबा जोरावर सिंह की 9 साल की थी, माता गुजरी जी ने उन्हें गुरु अर्जुन देव जी और गुरू तेगबहादुर जी की शहीदी के बारे साखी सुना कर समझाया था, अपना धर्म नहीं छोड़ना सिख आज भी इन छोटे बच्चों को बाबा कह कर बुलाते हैं। आज यहां पर गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब बना हुआ हैं, इसी के नाम पर जिले का नाम भी फतेहगढ़ साहिब हैं।

10. दरबार साहिब मुक्तसर

मुक्तसर शहर पंजाब के 22 जिलों में एक जिला श्री मुक्तसर साहिब का मुख्यालय हैं। मुक्तसर शहर राजधानी चंडीगढ़ से 270 किमी, बठिंडा से 55 किमी और मेरे घर से 75 किमी दूर है| यह ईलाका राजस्थान से सटा हुआ हैं, यहां पानी की कमी होती थी, लेकिन जिस जगह पर मुक्तसर साहिब का सरोवर हैं, यहां एक पानी की ढाब होती थी, जिसे खिदराणे की ढाब कहा जाता था, ढाब को हम तालाब भी बोल सकते हैं, कैसे इस खिदराणे की ढाब को साहिबे कमाल गुरू गोबिंद सिंह जी ने मुक्तसर साहिब बना दिया जो हम आगे पढेंगे। मुक्तसर साहिब का सरोवर पंजाब के गुरू द्वारों में दूसरा सबसे बड़ा सरोवर हैं, पहले नंबर पर तरनतारन साहिब का सरोवर हैं।
#मुक्तसर साहिब का ईतिहास
दोस्तों 1704 ईसवीं में जब गुरू गोबिंद सिंह जी आनंदपुर साहिब में थे तो 6 महीने तक मुगलों और पहाड़ी राजों की सैना ने घेरा डाल रखा, इस समय गुरू जी के 40 सिख उनका साथ छोडकर कर अपने घर चले आए, गुरू जी ने कहा आप एक चिठ्ठी या बेदावा लिख कर जाओ कि मैं आपका गुरू नहीं हूँ, उन्होंने बेदावा लिख दिया और अपने घर पहुंच गए, इधर गुरू जी ने आनंदपुर साहिब का किला छोडकर मालवा की धरती पर भ्रमण करने लगे। जब वह 40 सिख गुरू जी से बेमुख होकर अपने घर पहुंचे तो उनकी बीवियों और भहनों ने उनको बहुत फटकार लगाई, बोली आप हाथों में चूडियां. डाल लो, गुरू जी का साथ छोड़ कर आ गए। माई भागो नाम की एक सिख शेरनी ने कमाल संभाली और गुरू जी को मिलने के लिए सभी 40 सिखों को लेकर मालवा की यात्रा शुरु की, इधर गुरू जी भी खिदराणे की ढाब के पास थे, मुगल सैना उनका पीछा कर रही थी, गुरू जी भी खिदराणे की ढाब पर मुगलों से युद्ध करना चाहते थे कयोंकि वहां पर पानी था, जब 40 सिखों को पता चला तो उन्होंने माई भागो जी की कमान में मुगल सैना से युद्ध किया, इस युद्ध में मुगल मैदान छोडकर भाग गए, 40 सिख भी शहीद हो गए, गुरू जी के जीवन का यह आखिरी युद्ध था, एक टिब्बी पर गुरू जी सारा युद्ध देख रहे थे और तीर चला रहे थे, गुरू जी की जीत हुई, जब गुरू जी मैदान में आए तो 40 सिखों का सरदार महां सिंह सहक रहा था, गुरू जी ने उसका सिर अपने जाघ पर रख कर कहा बोल महा सिंह कया चाहिए तुझे जिंदगी दे देता हूँ, महा सिंह की आखों में पानी आ गया और बोला गुरू जी हमसे भूल हो गई हम बेदावा लिख कर आ गए, आप वह बेदावा फाड़ दो, दयालु गुरू महाराज ने अपनी जेब में से बेदावा निकाल कर फाड़ दिया, उसे फिर गुरू जी का पयार मिला, गुरू जी ने इन 40 सिखों को जन्म मरण के चक्कर से मुक्ति देकर मुक्त कर दिया और खिदराणे की ढाब को मुक्तसर साहिब बना दिया,  फिर अपने हाथों से सिखों का अंतिम संस्कार किया।

गुरुद्वारा परिवार विछोड़ा साहिब

Photo of पंजाब by Dr. Yadwinder Singh

गुरुद्वारा चमकौर साहिब

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गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब

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दरबार साहिब मुक्तसर साहिब

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