आओ! खुद को टटोलें इन Lansdowne !!.
जानते हो! कभी-कभी कहीं मन नहीं लग रहा होता। उस वक़्त जी में आता है, मैं कहीं दूर चली जाऊँ, एक अजनबी की तरह रहूँ। मुझे वहाँ कोई न जानता हो, मेरा कोई अतीत न पूछे और ना कोई ये पूछे कि मेरे फ्यूचर प्लान्स क्या हैं? मैं भागती हुई ज़िन्दगी में इतने स्लो पेस में क्यों चल रही हूं, जैसे कई अनगिनत सवाल। कोई भी इतना करीबी न हो कि सवाल कर सके। कभी-कभी ज़िन्दगी से बस इतना चाहिए होता है कि बस हम खुद में रहें, अपनी तलाश करें, अपने को पाएं। .
तो बस अपने खुद की तलाश में एक दिन निकल पड़ी
उत्तराखंड के छोटे-से कस्बे लैंसडाउन के लिए। बचपन में पापा से काफी कुछ लैंसडाउन की अनोखेपन के बारे में सुन रखा था। बस डर इतना था कि आज के वक़्त में जबकि सब कुछ रफ़्तार के साथ बदल रहा है...लैंसडाउन भी ना बदल गया हो। खैर! कोटद्वार से होते हुए, बादलों की गोद में बसे इस छोटे-से कस्बे में पहुंच गई। इस कस्बे में आर्मी कैंटोनमेंट के अलावा उन्ही की कॉलोनी बसी हुई थी। सरकारी रेस्ट हाउस की ओर जाते वक्त सड़क के किनारे जंगली फूलों के हेज लगे हुए थे, उनपर तितलियां, भवरें झूम रहे थे। बाँख और बुराँस के पेड़ों से आती पंछियों की आवाज़ें, चेहरे को छूती बादलों की फुहारें... और क्या चाहिए ही था ज़िन्दगी को।.
शाम को अपने कॉटेज के बाहर रखी कुर्सी पर बैठ कर चाय पीते हुए 'निर्मल वर्मा' का उपन्यास "अंतिम अरण्य" पढ़ना...दिन को सुस्ताते हुए शाम की बाहों में उतरते देखना...और खुद के बारे में सोचना (आत्म निरीक्षण करना)...अपना लैंसडाउन आना सफल होता हुआ लग रहा था। वहाँ कोई भाग-दौड़ नहीं, कोई रस्साकशी नहीं, कोई गलाकाट महत्वाकांक्षाएं नहीं थी। केवल ज़िन्दगी के प्रति एक अनुराग का बीज पनप रहा था।.
सुबह नींद खुलते ही मैं चहलकदमी पर निकल गयी। सर्पीले-से टेढ़े-मेढ़े रस्तों से होते हुए जब गुज़र रही थी, नहीं जानती थी, मुझे कहाँ जाना है। सिर्फ कभी हाँफते हुए माइलस्टोन से पीठ टिका बैठ जाती थी और कभी किसी अजनबी बच्चे के साथ उनकी बॉल ढूंढने लग जाती। कोई पूछता भी, कहाँ से आई हो? तो सिर्फ मुस्कुरा भर देती। या यूँ कहूँ, जिन अनुभवों से मैं उस पल गुज़र रही थी, उन्हें किसी को बताना नहीं चाहती थी। जहाँ हूँ, जो कर रही हूँ, जो जी रही हूँ...उसमें पूरी तरह रम जाना चाहती थी।
चलते-चलते भुल्ला झील पहुंच गई थी। पहाड़ों से घिरी नन्ही सी झील के पास दिल लगाने के लिए खरगोश, खरहे, गिलहरियां और नन्हे बच्चों की किलकारियां...सब कुछ था। मैंने भी उन्हीं सब के साथ चाय और सैंडविच खाया। सैंडविच के टुकड़े ज़मीन पर गिरते ही गिलहरियां दौड़ी चली आतीं। अपने वर्तमान को जीते हुए दिल इतना खुश था कि मानों ज़िन्दगी जीने की जाने कौन-सी कुँजी मिल गयी हो।
मुझे इसी वर्तमान की तलाश थी, इसी धीमेपन से मेरा राब्ता था और बैठ के दो पल सुस्ताने के लिए इसी लम्हे को मैं जाने कब से खोज रही थी। वहाँ का सब कुछ देख लेने की आपा-धापी या फिर बहुत कुछ न देख पाने की बेचैनी को मैं कहीं पीछे छोड़ चुकी थी। .
मैंने उस सफर से यही महसूस किया कि "[जब जहां हो, उसे पूरी तन्मयता के साथ जियो]" लैंसडाउन में मैंने अपने अतीत का किनारा छोड़ वर्तमान को ज़ूम करके देखा और ज़िन्दगी का यह अनुभव मेरे लिए उम्मीद से बढ़कर था!!
Penned by - Renu Mishra
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