नागा साधु: सनातन धर्म के रक्षक

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श्रेय: वेबदुनिया 

Photo of नागा साधु: सनातन धर्म के रक्षक by Aastha Raj

कुंभ में जाने वाले हर आदमी के लिए आकर्षण का केंद्र होते हैं नागा साधु। नागा साधु- जो नग्न अवस्था में राख लपेटे अपने शरीर को उस आध्यात्म गहराई में ले जाने के लिए तपस्या में लीन होते हैं।

नागा साधुओं की परंपरा कोई आज की नहीं है बल्कि हजारों सालों से चली आ रही है। इस परंपरा के चिन्ह हमें मोहनजोदड़ो के सिक्कों और तस्वीरों में मिलते हैं जहाँ नागा साधु पशुपति नाथ के रूप में भगवान शिव की पूजा करते हुए मिलते हैं। कहा जाता है ऐलेक्ज़ेंडर और उसके सिपाही जब भारत आए थे तब उनकी मुलाकात नागा साधुओं से हुई थी। यही नहीं नागा साधुओं की तपस्या और मातृभूमि के प्रति समर्पण से भगवान बुद्ध और भगवान महावीर भी काफी प्रभावित थे।

नागा साधुओं को धर्मरक्षक भी कहा जाता है जो हिंदू धर्म और भारत के संस्कृति को विदेशी आक्रांताओं से बचाने के लिए जाना जाता है। नागा साधुओं को सबसे पहले 8वीं शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए एक फौज के रूप में इकट्ठा किया था।

इसके बाद आदि शंकराचार्य ने दशनामी सन्यासी पंथ का निर्माण किया जो सात अखाड़ों- निरंजनी, जूना महानिर्वानी, अटल, अग्नि आनंद और आवाहन से मिल कर बना था। इन्हें अखाड़ा इसलिए कहा जाता था क्योंकि इनके सदस्य हथियार बंद होते थे जो अपने देश और धर्म के लिए अपने प्राण न्योछावर करने के लिए हर वक्त तैयार रहते हैं।नागा साधु ज़्यादातर हिमालय की गुफाओं में रहते हैं और इन्हें कुंभ के दौरान ही देखा जा सकता हैं। ये धर्म की रक्षा के लिए हर वक्त त्रिशूल, तलवार और अन्य घातक हथियारों से लैस रहते हैं।

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श्रेय: निनारा

नागा साधु आम तौर पर अर्धनग्न होते हैं और इनकी जटाएँ (सिर के बाल) लंबी होती हैं। ये पूरे शरीर पर लाशों की राख लपेटे रहते हैं।

लगभग सभी नागा साधु भगवान शिव के साधक होते हैं लेकिन अपने आराध्य को पूजने का तरीका अलग अलग होता है। कुछ नागा तो भगवान शिव की ही तरह अपने गले में नाग या साँप लपेटे होते हैं और कुछ नागा पूरी तरह से नग्न रहना पसंद करते हैं जबकि कुछ हनुमान जी की तरह लंगोट में रहते हैं।

जो भाला नागा अपनाते हैं वो उनके अखाड़ों का प्रतीक चिन्ह होता है जिसकी पूजा नागा कुंभ में गंगा स्नान से पहले भी करते हैं।

नागाओं ने कई लड़ाईयों में हिंदु सेना के तौर पर हिस्सा लिया है। 1664 में औरंगज़ेब के सेनापति मिर्ज़ा अली तुरंग ने काशी पर हमला किया तो काशी विश्वनाथ मंदिर की रक्षा के लिए हजारों नागा साधु मैदान-ए-जंग में उतर गए। यही नहीं 1666 जब औरंगजेब की सेना ने जब हरिद्वार पर हमला किया तब नागा मुगलों के सामने दीवार बन कर खड़े हो गए।

नागा बनने की प्रकिया बेहद कठिन, कठोर और असहनीय होती है और किसी सामान्य इंसान के लिए नागा बनना लगभग असंभव है।

पिछले कुछ सालों में जैसे-जैसे आध्यात्म में प्रगति हुई है नागा अपने अपने अखाड़ों में ऊपर उठ रहे हैं। नागा पदोन्नति के बाद पहले महंत, फिर महामंड्लेश्वर और आखिर में आचार्य महामंड्लेश्वर बनते हैं जो सबसे बड़ी पदवी होती है।

जो लोग हिंदू धर्म और उसके रीति- रिवाज़ों का मज़ाक उड़ाते हैं दरअसल वो हिंदू भक्ति और उसकी परंपराओं से अनजान हैं, उन्हें ये पता भी नहीं है कि साधु किस तरह से असाधारण तपस्या करते हैं जो किसी आम इंसान की सोच से भी परे है।

नागा बनने की शुरुआत दीक्षा से शुरु होती है जो सालों ब्रह्मचर्य का पालन करने के बाद शुरु होती है और उसके अतरंगत शरीर और मतिष्क का एकाग्र करने की प्रक्रिया होती है।

जब कोई नागा बनने की शुरुआत करता है तो सबसे पहले ‘पंच संस्कार’ दिया जाता है जिसमें पांच गुरु मिल कर अलग अलग विधि का निष्पादन करते हैं।

इन पंच संस्कारों में प्रमुख गुरु शिखा काटतें हैं, भगवा गुरु गेरुआ वस्त्र प्रदान करते हैं, रुद्राक्ष गुरु रुद्राक्ष मोती देते हैं, विभूति गुरु शरीर पर राख लपेटते हैं और लगोंट गुरु नागा बनने जा रहे व्यक्ति से उसके शरीर पर बचा आखिरी वस्त्र छींन लेते हैं।

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इसके बाद आखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर वैराग्य गृह संस्कार करवाते हैं। इस संस्कार में नागा बनने की दीक्षा लेने वाले को स्वयं अपना पिंड दान और श्राद्ध करना होता है और साथ ही अपने माता और पिता दोनों के पूर्वजों का भी श्राद्ध करना होता है। यह एक प्रतीकात्मक प्रक्रिया है जिसका अर्थ होता है कि अब वह उस संसार से मुक्त हो चुके हैं जहाँ उनका जन्म हुआ था और अब वो उस संसार में दोबारा नहीं लौटेंगे। अंत में छठवें गुरु नागा अखाड़ा ध्वज के नीचे दिक्षा प्रदान करते हैं जिसके बाद नागा बनने की घोषणा हो जाती है।

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