तारापीठ: वो जगह जो ले जाती है सपनों के करीब!

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बंगाल की पहचान ही महाकाली क्षेत्र के रूप में हो चुकी है। यहाँ के लोग सदियों से शक्ति उपासक रहे हैं। यही कारण है कि घर-घर शक्ति की देवी काली-दुर्गा की पूजा की जाती है। राजधानी कोलकाता में कालीघाट और दक्षिणेश्वर मंदिर इसका प्रमाण है तो वहीं रामकृष्ण परमहंस और माँ शारदा की तपशक्ति से हम सभी परिचित हैं। जब आप कोलकाता आते हैं तो इन दो जगहों पर ज़रूर जाना होता है। आध्यात्म में इंटरेस्ट हो ना हो, यहाँ की संस्कृति को महसूस करने के लिए आध्यात्मिक जगहों का दौरा आवश्यक हो जाता है।

'जय काली कलकत्ते वाली, तेरा वचन न जाए खाली'...कई बार खेल-खेल में हम इसको बोल उठते हैं। लेकिन बंगाल के लोगों की आध्यात्मिक विश्वास इससे पूरी तरह झलकता है। कोलकाता ही नहीं, बंगाल के कई जगहों पर माँ काली विराजमान हैं जो कि तीर्थ करने वालों को आकर्षित करते हैं। ऐसा ही एक तीर्थ है, तारापीठ जो कि महानगर कोलकाता से लगभग 222 कि.मी. की दूरी पर अवस्थित है।

तारापीठ पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में पड़ता है जो कि शक्तिपीठों का स्थान है। जानकारी हो कि 51 शक्तिपीठों में से पांच शक्तिपीठ इसी जिले में है जो बकुरेश्वर, नालहाटी, बन्दीकेश्वरी, फुलोरा देवी और तारापीठ के नाम से विख्यात है। इनमें से तारापीठ सबसे प्रमुख धार्मिक स्थल और एक सिद्धपीठ भी है।

तारापीठ का पौराणिक सन्दर्भ

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जब माता सती ने पिता के द्वारा शिव के अपमान पर यज्ञ कुंड में कूदकर अपनी जान दी तो शिव महातांडव करने लगे। वे माता के मृत शरीर को कंधे पर लिए तांडव करते हुए ब्राह्मण के विनाश को आतुर हो गए। तभी भगवान विष्णु ने शिव का क्रोध शांत करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से माता के शरीर को छिन्न-भिन्न कर दिया। ऐसे में माता सती के शरीर के अंग देश के विभिन्न भागों में जाकर गिरे। हिन्दुओं के इस महातीर्थ में माता सती के आंख की पुतली का तारा गिरा था। यही कारण है कि इसका नामकरण तारापीठ के रूप में हुआ।

तारापीठ राजा दशरथ के कुलपुरोहित वशिष्ठ मुनि का सिद्धासन भी है। बताया जाता है कि प्राचीन काल में महर्षि वशिष्ठ यहाँ माँ तारा की आराधना करके सिद्धियाँ प्राप्त की थी। उस समय उन्होंने मंदिर का निर्माण करवाया था लेकिन कालांतर में वो मंदिर जमीन के नीचे धंस गया। बाद में 'जयव्रत' नामक एक व्यापारी ने इसे फिर से बनवाया।

सिद्धसंत वामाखेपा यहाँ हैं विख्यात

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जिस प्रकार रामकृष्ण परमहंस को माँ काली ने दर्शन दिया था, ठीक उसी प्रकार तारापीठ के सिद्धसंत वामाखेपा को देवी ने दिव्यज्ञान दिया था। माँ महाकाली ने इन्हें शमशान में दर्शन देकर कृतार्थ किया था, लिहाजा तारापीठ तांत्रिकों के लिए भी विशेष स्थान माना जाता है।

तारापीठ से 2 कि.मी. की दूरी पर आटला गाँव है जहाँ वामाखेपा का जन्म हुआ था। गरीबी और विपत्ति से जूझते हुए उन्होंने माँ की आराधना की और अल्पायु में सिद्धि प्राप्त की। काली पूजा की रात में वामाखेपा को साधना के दौरान माँ तारा ने दर्शन दिए। कहा जाता है कि माँ तारा बाघ की खाल पहने हुए एक हाथ में तलवार, एक हाथ में कंकाल की खोपड़ी, एक हाथ में कमल फूल और एक हाथ में अस्त्र लिए हुए प्रकट हुईं। उन्होंने पैरों में पायल पहन रखी थी और उनके केश खुले हुए थे। वामाखेपा के अनुसार, माता ने जीभ बाहर निकाल रखा था और वातावरण रौशनी और सुंगध से भर गया था।

महज 18 साल की आयु में सिद्धि प्राप्त करने वाला ये संत 72 साल की आयु में तारापीठ के महाशमशान में अपने प्राण त्याग दिए। अघोरियों के लिए ये स्थान बेहद पवित्र माना जाता है। तारापीठ मुख्य मंदिर के सामने ही महाशमशान है। दिलचस्प बात है कि यहाँ की द्वारिका नदी दक्षिण से उत्तर की दिशा में बहती है जबकि भारत की अन्य नदियाँ उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हैं।

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तारापीठ मंदिर तथा माता के चमत्कार को लेकर कई किस्से मौजूद हैं। तंत्र साधना के लिए इस स्थान को उपयुक्त बताया गया है। महाशमशान में ही यहाँ तारा देवी का पादपद मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि जो भी यहाँ आकर मनोकामना के लिए ध्यान करते हैं, उनकी मनोकामना ज़रूर पूरी होती है। यहाँ पर वामाखेपा सहित कई संतों की समाधियाँ हैं। इसके साथ ही आप यहाँ मुंडमालनी भी ज़रूर देखें। कहा जाता है कि काली माँ अपने गले की मुंडमाला यहीं रखकर द्वारका नदी में स्नान करने जाती हैं। यह भी एक शमशान स्थल ही है।

कैसा है माँ तारादेवी का मंदिर?

ये एक मीडियम साइज का मंदिर है जिसकी दीवार संगमरगर से सजाया हुआ है। इसकी छत ढलान वाली है जिसे ढोचाला कहा जाता है। इसके प्रवेश द्वार पर जो नक्काशी की गई है वो बेहद आकर्षक जान पड़ता है। मंदिर में आदिशक्ति के कई रूपों को दिखाया गया है। देवी की तीन आँखों को यहाँ देखा जा सकता है जिसे तारा भी कहा जाता है। साथ ही भगवान शिव की प्रतिमा भी यहाँ मौजूद है। गर्भगृह में माँ तारा का निवास है जहाँ एक तीन फीट की धातु निर्मित मूर्ति है। माँ तारा की मौलिक मूर्ति देवी के रौद्र और क्रोधित रूप को दिखाता है। इसमें माँ तारा को बाल शिव को दूध पिलाते दर्शाया गया है। बता दें कि यह मंदिर 4:30 बजे सुबह में ही खुल जाता है।

जानकर हैरानी होगी कि यहाँ प्रसाद के तौर पर शराब भी पेश किया जाता है। तांत्रिक साधु इसे न केवल माता को चढ़ाते हैं बल्कि पीते भी हैं। इतना ही नहीं, यहाँ पर रोज़ जानवरों की बलि दी जाती है। तंत्र शक्ति को मानने वालों के लिए कामाख्या की तरह ही तारापीठ का महत्व है। शमशान में जलने वाले शव का धुआँ तारापीठ मंदिर के गर्भगृह तक जिसके कारण से इसका महत्व और बढ़ जाता है। तारापीठ आने से तांत्रिकों के लिए सिद्धि प्राप्त करना बेहद आसान हो जाता है। मंदिर के निकट स्थिति प्रेत-शिला में लोग पितरों की आत्मा की शांति के लिए पिंड दान करते हैं। मान्यता है कि यहाँ भगवान राम ने भी अपने पिता का तर्पण और पिंडदान किया था। यहाँ देश-विदेश के पर्यटक अपनी मनोकामना पूरी करने आते हैं।

तारापीठ सड़क, रेल और वायु मार्ग के द्वारा आसानी से पहुँचा जा सकता है। यह स्थान पूर्वी रेलवे के रामपुर हाल्ट स्टेशन से चार मील दूरी पर स्थित है। तंत्र-आध्यात्म के इस संगम स्थल पर आप एक रोमांचकारी टूर प्लान कर सकते हैं।

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