मुंबई लोकल के चौथे सीट की मजेदार 'आत्मकथा'

Tripoto
1st Mar 2021
Photo of मुंबई लोकल के चौथे सीट की मजेदार 'आत्मकथा' by रोशन सास्तिक

कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। लेकिन मेरे आविष्कार के मामले में आवश्यकता की बजाय मजबूरी शब्द ज्यादा मज़बूती से अपनी दावेदारी पेश करते नजर आती है। इस दुनिया में मेरा आगमन आदमी की एडजस्ट करने की प्रवृति के चलते हुआ। जब आप अपनी जांघों के फ़ासलों के बीच की दूरी को समेटने का फैसला लेते हैं, तब मेरे पैदा होने की उम्मीद की किरण अपने करामात दिखाती है।

मेरे जन्म के प्रसव पीड़ा का अंदाजा आप उन तीन लोगों से पूछ कर लगा सकते हैं जो खुद किसी तरह तशरीफ को टिकाए रखने लायक जगह में बैठे होते हैं और शिष्टाचार के सिपाही की भूमिका निभाते हुए किसी चौथे के आग्रह पर उसे भी उस आसन पर आसीन होने के लिए अपना आशीष देने में आनाकानी नहीं करते। वैसे इनकी यह दरियादिली सिर्फ और सिर्फ दारा सिंह जैसे डीलडौल दमदार लोगों के सामने ही दिखाई पड़ती है।

Photo of Dadar Railway Station (E) (Swami Narayan Chowk), Madhavwadi, Dadar, Mumbai, Maharashtra by रोशन सास्तिक

मेरा होना कई लोगों के आँखों को अखरता है। सिर्फ उन्हें ही नहीं जिनके लिए मेरी वजह से अपने जांघों के बीच की दूरी को मज़बूरी में समेटना जरूरी हो गया था। इसके साथ-साथ वो खड़े बदनसीब या फिर कहें डरपोक या फिर कहें शर्मीले या फिर कहें दब्बू टाइप के लोग जो चाहकर भी अपने बैठने की चाहत को थोड़ी हिम्मत के साथ हमबिस्तर कर मुझे यानी चौथी सीट को पैदा न कर पाएं।

इन सबके बावजूद जिन्दा होकर भी मुझे जिन्दा होने का एहसास नहीं होता। अस्पताल के आईसीयू में भर्ती किसी मरीज की भांति हर पल हर घड़ी मेरी जान सांसत में ही अटकी रहती है। जैसे वेंटिलेटर पर पड़े व्यक्ति को किसी भी पल अपनी सांसें छीन जाने का डर बना रहता है। ठीक वैसा ही खतरा मेरे अस्तित्व को लेकर सीट पर बैठे बाकी के तीन लोगों के सब्र के टूटते बांध को लेकर मंडराता रहता है। इधर इनकी टांगों ने अंगड़ाइयां ली और उधर मैं सीबीएसई के इतिहास की किताब के किसी किनारे पर जा छपा।

Photo of Chhatrapati Shivaji Maharaj Terminus, Dhobi Talao, Chhatrapati Shivaji Terminus Area, Fort, Mumbai, Maharashtra by रोशन सास्तिक

हिंदी की भाषा में कहूं तो मैं लोगों के बीच बढ़े आपसी प्रेम, स्नेह और समझ की मूर्तरूप हूं। गणित की भाषा में कहूं तो टांगों के बीच की दूरी को घटाकर एक अतिरिक्त तशरीफ़ के लिए निर्माण किया गया क्षेत्रफल हूं। विज्ञान की भाषा में कहूं तो तीन सीटों वाली प्राकृतिक संरचना के साथ छेड़छाड़ कर अपनी सुविधा के लिए निर्माण की गई एक नई कृतिम रचना हूं। सामाजिक शास्त्र की भाषा में कहूं तो मैं बढ़ती हुई जनंसख्या का एक स्वाभाविक साईड प्रोडक्ट हूं।

-रोशन सास्तिक

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