बंगाल का अजीब रिवाज़: क्यों वैश्याओं की जमीन से मिट्टी लेकर बनाते हैं दुर्गा माता की प्रतिमा!

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भारत सदा से ही शक्ति उपासक लोगों की भूमि रही है। हम सभी शक्तिशाली, जीवनदायिनी चीजों में माँ अर्थात सृजन करने वाली की छवि देखते हैं। इन सभी जीवन देने वाली, उन्हें सींचने वाली शक्तियों के प्रति आदर और पूजा के भाव से ही दुर्गा पूजा की जाती है। सितम्बर-अक्टूबर के महीने में देश भर में जगतजननी माँ शक्ति दुर्गा की पूजा लगातार नौ दिनों तक की जाती है, जिसे नवरात्र या कहीं कहीं दशमी भी कहा जाता है। पूजा के दशवें दिन विजयादशमी मनाई जाती है।

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श्रेय: फ्लिकर

अभी दुर्गा पूजा कुछ दिनों में होने को है और इसको लेकर देश के विभिन्न भागों में तैयारियाँ चल रही हैं। इनमें दुर्गा माता की प्रतिमा बेहतर से बेहतर बनाने के प्रयास हो रहे हैं। प्रतिमा बनाने को लेकर दिलचस्प बात ये है कि दुर्गा माता की प्रतिमा वेश्याओं के आंगन की मिट्टी जिसे 'निषिद्धो पाली की मिट्टी’ भी कहा जाता है, से बनाई जाती है। बता दें कि 'निषिद्धो पाली’ उस इलाके को कहते हैं जो कि अशुद्ध माना जाता है और जहाँ जाना वर्जित होता है। जानकारी हो कि प्रतिमा बनाने में वेश्यालय की मिट्टी के अलावे गंगा तट की मिट्टी, गौमूत्र, और गोबर का भी इस्तेमाल किया जाता है।

इस अजीब परंपरा की जड़ें कहाँ हैं?

आप जानते हैं कि कोलकाता में बड़े ज़ोर-शोर से दुर्गा पूजा मनाई जाती है। विश्वभर में दुर्गा प्रतिमा बनाने का सबसे ज्यादा काम अगर कहीं होता है तो वो है उत्तर कोलकाता स्थित ‘कुमारतुली’। यहाँ के कारीगर माता की मूर्तियों को बनाकर दुनिया भर में भेजते हैं। मूर्ति बनाने के मात्रा को आप इसी से समझ सकते हैं कि पूरा एक क्षेत्र कारीगरों से भरा हुआ है जो कि सालभर दुर्गा प्रतिमा बनाने में जुटे रहते हैं। बाकी के खाली समय में वे अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमा भी बनाते हैं। कुमारतुली देश-विदेश में इतना फेमस है कि वहाँ रोज़ आपको विदेशी सैलानी टहलते मिल जाते हैं। वे कारीगरों की कलाकारी और बारीकियों के बारे में जानने आते हैं। वेश्याओं के आंगन की मिट्टी से प्रतिमा बनाने की जड़ें कोलकाता के इसी कुमारटोली से जुड़ी हैं।

कुमारटोली से कुछ ही दूरी पर एशिया का सबसे बड़ा रेडलाइट एरिया सोनागाछी पड़ता है। बताया जाता है कि कलाकार दुर्गा प्रतिमा बनाने के लिए सोनागाछी की वेश्याओं के आंगन की मिट्टी का इस्तेमाल करते हैं। ये एक प्रकार से एक परंपरा बन चुकी है और इस मिट्टी की मांग दूसरे शहरों में भी है जहाँ दुर्गा माता की प्रतिमा बनाई जाती है। लिहाज़ा अब ये पैक में मिलने लगा है। पूजा-सामग्री वाले दुकानों में इस मिट्टी को बिकते देखा जा सकता है। आपको ये परंपरा कुछ अटपटा तो नहीं लगता?

आइए इस अजीब प्रथा के शुरू होने की वजहों पर नजर डालते हैं-

1. पौराणिक मान्यता है कि किसी वेश्या ने सामाजिक तिरस्कार से दुखी होकर माँ की बड़ी भक्ति की। माता ने प्रसन्न होकर उसे इस पीड़ा से बाहर निकला और कहा कि उनकी प्रतिमा जब तक किसी वेश्या के आंगन की मिट्टी से नहीं बनाई जाएगी, पूजा अधूरी मानी जाएगी। तभी से इस परंपरा की शुरुआत हुई और एक समरसता का माहौल बनने लगा।

2. इस प्रथा को सामाजिक समानता और प्रेम का रूप में माना जा सकता है। आमतौर पर वैश्या और वैश्यालयों को अपवित्र माना जाता है और इन्हें बुरी नज़र से देखा जाता है। लिहाज़ा समाज के ऐसे वर्गों को भी पूजा जैसे पावन काम में ससम्मान शामिल करने के लिए प्रतिमा निर्माण से ही इनकी भागीदारी सुनिश्चित की जाती है।

3. माना जाता है कि प्रतिमा बनाने वाला व्यक्ति भी माता के प्रति इतना समर्पित होता है कि वैश्यालय के अंगने की मिट्टी लाने के समय उसके मन में बुरे विचार नहीं आते और एक तरह से ऐसा करते हुए वह व्यक्ति अपना व्रत या कमिटमेंट पूरा कर रहा होता है। इस परीक्षा से गुज़रने के बाद ही उसे प्रतिमा निर्माण करने के काबिल समझा जाता है।

4. धार्मिक लोगों का ये भी कहना है कि बुरे कर्मों में लिप्त वैश्याओं को मुक्ति दिलाने के लिए माँ के आदेश पर ऐसा रिवाज कायम है। उनके आंगन की मिट्टी से माँ की प्रतिमा बनते ही सभी पापकर्म धुल जाते हैं और उनकी मुक्ति का मार्ग मिल जाता है।

5. नारी को शक्ति का अंश बताया गया है और इस लिहाज से नारी जिस किसी रूप में हो उसमें माँ की छवि देखी जानी चाहिए। इस मान्यता से माँ की छवि या प्रतिमा बनाते समय निषिद्ध जगहों से मिट्टी मंगाकर उपयोग किया जाता है।

इन सब बातों पर गौर करने पर निचोड़ यही निकलता है कि हमने ही समाज में विभेद पैदा किया है। पूजा और उत्सव का उद्देश्य इसी भेद को मिटाना होता है। मनुष्य किसी भी रूप में हो, वह समाज का हिस्सा है। खासकर इस प्रथा से नारी सम्मान का सन्देश फैलाया जाता है। हर नारी में माता का अंश होता है और जो नारी का सम्मान करता है वही जगत अम्बा मां दुर्गा की पूजा करने के काबिल होता है।

यहाँ वो प्रचलित संस्कृत वाक्य याद आता है- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’। जहाँ नारियों का सम्मान होता है, उन्हें पूजा जाता है, वहाँ देवताओं का निवास होता है। ये प्रथा भले ही सुनने में अजीब लगे लेकिन इसके अनेक मायने निकलते हैं और इससे हमारे समाज के असल उद्देश्य का पता चलता है। हमारी पुरातन संस्कृति हमेशा से सबको लेकर चलने की शिक्षा देती है जिसे आज हम कहीं भूलते जा रहे हैं।

बताते चलें कि बंगाल की ये प्रथा अब पूरे देश में फैलती जा रही है। देश-विदेश में फैले बंगाली समुदाय के अलावे अन्य समाज में भी प्रतिमा निर्माण के समय इस रिवाज का ध्यान रखा जाता है।

आप भी अगर दुर्गा पूजा से जुड़े किसी ऐसे तथ्य को जानते हैं तो कमेंट कर बताएं।


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