दिवाली- ये त्यौहार जितना बड़ा है, इसके साथ उतनी ही कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें सबसे अधिक माना जाने वाला कारण ये है कि दिवाली के मौके पास भगवान श्री राम 14 साल वनवास में रहने के बाद अयोध्या वापस आए थे और उनके घर लौटने की खुशी में पूरी अयोध्या नगरी को दियों से सजाया गया था। देश के कुछ हिस्सों में दिवाली को काली पूजा के साथ भी जोड़ा जाता है। भारतीय विविधता ऐसे ही तीज त्यौहारों पर साफ दिखाई देती है और इस बात में कोई शक नहीं है कि देश के अलग अलग हिस्सों में विभिन्न तरीकों से दिवाली मनाई जाती है। एक तरफ शहरों में जहाँ पटाखों की गूँज सुनाई देती है, वहीं ग्रामीण भारत में दियों की रौशनी से पूरा गाँव जगमगा उठता है। लेकिन क्या आप जानते हैं भारत के आदिवासी समाज में दिवाली कैसे और कब मनाई जाती है? आज ये आर्टिकल आपको दिवाली मनाने के ऐसे खास तरीकों से रूबरू कराएगा जिनको जानकर आप भी हैरान रह जाएंगे।
नर्मदा और बरूच आदिवासी समाज के लोगों के हमेशा से अपनी संस्कृति और रीति-रिवाजों को संजो कर रखा है और दिवाली के आते ही यहाँ कुछ अलग रौनक दिखाई देती है। खास बात ये है कि नर्मदा और बरूच समुदाय में दिवाली एक या दो दिनों की जगह 15 दिनों तक मनाई जाती है। दिवाली इस समुदाय के लोगों के लिए अच्छे स्वास्थ की कामना करने का मौका होता है। दिवाली के समय यहाँ अलग-अलग वृक्षों के लकड़ियाँ इकठ्ठा की जाती हैं जिसको बाद में जलाया जाता है। माना जाता है इन लकड़ियों से निकलने वाला धुआँ समाज में धन योग और अच्छे स्वास्थ के लिए फायदेमंद होता है। इसके अलावा गाँव में एक पवित्र अग्नि जलाई जाती है। जिससे मशाल बनाकर पूरे क्षेत्र में घुमाया जाता है। माना जाता है ऐसा गाँव को बुरी नजर से बचाने के लिए किया जाता है। सबसे खास बात ये है कि 15 दिनों तक चलने वाले जश्न की हर रात को गाँव की युवा पीढ़ी पारंपरिक नृत्य और संगीत का प्रदर्शन करती है जो नर्मदा और बरूच समुदाय की दिवाली को साल का सबसे खूबसूरत त्यौहार बनाता है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर में दिवाली का जश्न तीन दिनों तक चलता है जिसको दियारी कहा जाता है। दिवाली के मौके पर बस्तर में फसल और किसी एक हिंदू देवता, नारायण का ब्याह रचाया जाता है। ब्याह के बाद सभी घरों के भंडरघर में अनाज भरा जाता है। दिवाली के पहले दिन गाँव के जिन लोगों के पास पशु हैं उन्हें बस्तरिया बीयर और चरवाहों को धान, फूलों की माला और खिचड़ी देकर सम्मानित किया जाता है। साल के इस मौके पास बस्तर के आदिवासी क्षेत्रों में गोटों पूजा की जाती है। माना जाता है गोटों पूजा खासतौर से पशुओं के अच्छी स्वास्थ और उनकी सुरक्षा के लिए की जाती है। इसके अलावा दिवाली पर सभी पशुओं को फूलों का हार पहनाया जाता है और खेत में लगी फसल की भी पूजा की जाती है।
दिवाली के मौके पर महाराष्ट्र के ठाकर आदिवासी समाज में भी कुछ कम धूम नहीं रहती है। ठाकर आदिवासी समाज में चिबरा के सूखे फल को इस्तेमाल करके लैंप बनाए जाते हैं जिनको बाद में सूखे हुए उपले के ऊपर रखा जाता है। इस समय खासतौर से अनाज को बांस से बनी हुई टोकरियों में रखा जाता है जिन्हें स्थानीय लोगों द्वारा कांगा कहा जाता है। कांगा में रखे हुए अनाज को दिवाली वाले दिन पूजा जाता है। दिवाली के मौके पर ठाकर क्षेत्र में जलसा जैसा माहौल होता है। इस दिन तरह तरह के पारंपरिक नृत्य और संगीत की प्रस्तुति होती है। ठाकर समुदाय में खासतौर से ढोल बजाकर खुशियाँ मनाई जाती हैं जो दिवाली के मौके को सबसे खास बनाना है।
देवभूमि उत्तराखंड की दिवाली देखने लायक होती है। उत्तराखंड के जौनसार-बावर आदिवासी क्षेत्र में पूरे देश के एक महीने बाद दिवाली मनाई जाती है। जौनसार-बावर इलाके में दिवाली को बूधी दिवाली नाम से जाना जाता है और ये नए चाँद की रात को मनाई जाती है। दो दिनों तक चलने वाले इस जश्न के एक रात पहले गाँव के सभी लोग पूरी रात जागकर स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। पूजा के बाद देवदार के पेड़ों की लकड़ियों को इकठ्ठा करके जलाया जाता है जिसको स्थानीय भाषा में वियती बोला जाता है। सभी लोग रातभर इसके आसपास नृत्य करते हैं और पारंपरिक लोक गीत गाते हैं। अगली सुबह हर घर से एक या दो व्यक्ति गाँव के सभी घरों में चाय और चिवड़ा का नाश्ता करने जाते हैं। इसके अलावा हर परिवार द्वारा गाँव के स्थानीय मंदिर में अखरोट का चढ़ावा चढ़ाया जाता है जिसको शाम को मंदिर आने वाले श्रद्धालुओं को प्रसाद के रूप में दिया जाता है। जौनसार-बावर की दियाई में धान और मंडुआ की अच्छी फसल की भी कामना की जाती है जिसके लिए खासतौर से खेतों में रौशनी की जाती है।
ओडिशा के आदिवासी समाज में दिवाली पूर्वजों को नमन करके मनाई जाती है जिसको कौंरिया काठी के नाम से जाना जाता है। कौंरिया काठी पर खासतौर से जूट की टहनियों को जलाया जाता है। माना जाता है ऐसा करना आदिवासी समाज में पूर्वजों को न्यौता जैसा होता है जिससे उन्हें आशीर्वाद प्राप्त होता है। आदिवासी लोगों का मानना है कि उनके पूर्वज खुले आकाश में रहते हैं और सूरज ढलने के साथ-साथ मकर रेखा की ओर प्रस्थान करने लगते हैं। ओडिशा के आदिवासी क्षेत्रों में दिवाली का मौका खासतौर से पूर्वज पूजन करके मनाया जाता है।
झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में दिवाली का जश्न एकदम शांत और सौम्य तरीके से मनाया जाता है। झारखंड में रौशनी के इस त्यौहार को सोहराई के नाम से जाना जाता है। सोहराई के मौके पर झारखंड के इन इलाकों में दैनिक जीवन से जुड़ी चीजों की पूजा की जाती है। धान की फसल और पशुओं, जो कि आदिवासी लोगों के जीवन का मुख्य हिस्सा है, को भी पूजा जाता है। झारखंड के आदिवासी समुदाय की औरतें घरों की मिट्टी से पुताई करती हैं जिसके बाद दीवारों पर तरह-तरह की चित्रकारी की जाती है। ये सभी चीजें खास आदिवासी समाज की परंपरा और संस्कृति से जुड़ी होती हैं। इसके अलावा घर के पालतू जानवरों की भी पूजा की जाती है।
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