काशी/वाराणसी/बनारस, इसके बारें में जितना लिखो उतना कम है। सदियों से बसा ये शहर, शहर नहीं सभ्यता है। घुमक्कड़ी, फक्कड़ी, खानाबदोशी, बेफिक्री का अलग ही अंदाज दिखाई देता है। यहाँ कोई जल्दी में नहीं रहता। सारा काम इत्मिनान से होता है। यहाँ घूमने का मज़ा पैदल घूमने में ही है। एक दिन में मैं भी करीब 10 से 12 कि.मी. पैदल घूम लिया। स्टेशन से गोदौलिया, वहाँ से विश्वनाथ मंदिर, अस्सी घाट, अस्सी घाट से करीब 20 घाट पार करते हुए दशाश्वमेध घाट, फिर भैरव मंदिर, भारत माता मंदिर होते हूए वापस स्टेशन। शाम की बस पकड़ कर इलाहाबाद सॉरी प्रयागराज पहुँचा। तब कुम्भ खत्म हुए एक सप्ताह ही हुआ था लेकिन आवाजाही, मेला, इंतजाम कुम्भ की तरह ही थे।
काशी, बनारस, वाराणसी चाहे कुछ भी पुकार लो। जीवन का अंतिम पड़ाव काशी का राजा हरिश्चन्द्र घाट। लोग मरते है यहाँ आने के लिए, सच में। मैं भाग्यशाली हूँ कि पहले ही यहाँ आकर देख लिया की जिंदगी और मौत एक साथ कैसे दिखाई देती है।
हरिश्चन्द्र घाट पर एक साथ 6 से 8 चिताएँ जल रही थी। कुछ शव फूंके जाने के इंतज़ार में घाट पर ही थे। उनके परिजनों की आँखे मौत को इतने पास देखकर भी पथराई हुई थी। आँसू जाने कबसे सुख गए थे। सूखे भी क्यों ना क्योंकि इंतज़ार भी काफी लंबा था।
काशी में कुछ स्पेशल धर्मशालाएँ है जिनमें दूर-दूर से लोग मरने आते है। सबको विश्वास है कि यहाँ मरने से या फूँके जाने से मोक्ष मिलता है। कई लोग अपने मरणासन्न परिजन को इन्हीं धर्मशाला में ले आते है। कमरे किराए से मिलते है जहाँ इन्हें इस नश्वर संसार को छोड़ जाने तक इंतजार करना होता है।
संवेदना खत्म हो गई होती है। अधिकतर शव को चार कंधे तक नसीब नहीं होते। मैंने कुछ गाड़ियाँ देखी जिसकी छत पर शव को सीढ़ी पर बाँधकर रखा गया था। वो गाड़ियाँ ही इन्हें घाट तक ले जाती है। क्योंकि मुश्किल से एक या दो परिजन ही यहाँ रुक पाते है। और वो ही अंतिम संस्कार करके घर चले जाते है।
सब कुछ इतना मैकेनिकल तरीके से होता है कि लगता है यही दिनचर्या है। यहाँ के लोगों को आदत है और बहुत से लोगो की आमदनी का ज़रिया भी। घाट पर भी डोम लोग सारा काम पैसे लेकर करते है। घाट के पास ही चाय नाश्ते की दुकानें है जहाँ लोग सामान्य तरीके से बातचीत में मशगूल है। विदेशी पर्यटक यहाँ स्पेशल फ़ोटो खींचने आते है। लड़को का झुंड दौड़कर उनसे कहता है हमारी फ़ोटो ले लो।
पास ही नेचुरल गैस और बिजली का भी शव दाह गृह बना हुआ है लेकिन अधिकतर लोग लकड़ी पर ही अंतिम संस्कार करना पसंद करते है। शायद उन्हें लगता होगा कि गैस वाले से स्वर्ग का टिकिट नहीं मिलेगा। सब कुछ भावहीन सा लगता है। बस एक सच्चाई समझ आई कि आखिरी पड़ाव पर कुछ बाकि नहीं रहता बस राख रह जाती है।
इस घाट से 500 मीटर दूर ही दशाश्वमेध घाट है जो बाबा विश्वनाथ मंदिर के पास है। दर्शनार्थी यहीं स्नान करके मंदिर जाते है। यहाँ ज्यादा भीड़ रहती है। ऊपर सड़क पर तरह-तरह की दुकानें लगी है। जहाँ वो सब सामान मिलता है जो हर धार्मिक स्थलों पर मिल जाता है।
काशी एक साथ लोगो को जीना मरना दोनो सीखा देती है। जय बाबा विश्वनाथ।
(नीचे फ़ोटो में पीली चादर में शव और उसके पास बैठा अकेला आदमी इंतजार में कि कब उसका नंबर आएगा।)
पोस्ट और फ़ोटो सिर्फ जीवन की सच्चाई दिखाने हेतु।- कपिल कुमार