मुक्तेश्वर: जहाँ शिव ही शिव हैं
नए साल पर रेजोल्यूशन का रिवाज इंसानों की उत्पत्ति से भी पहले का रहा होगा। ऐसा मेरा मानना है। मैं भी हर साल रेजोल्यूशन लेकर इस संस्कृति को बचा रहा हूँ। इस साल सारी यात्राएँ अकेले करूंगा-मैंने यह रेजोल्शून लिया। रेजोल्यूशन पूरा करने के लिए मैंने बर्फबारी का प्लान बनाया। उत्तराखंड चकराता, धानौल्टी, मसूरी, तुंगनाथ, चोपता, हर जगह बर्फ से रास्ते बंद हो गए थे। काफी माथापच्ची करनी पड़ी। अंत में मुक्तेश्वर का ख्याल आया। वहाँ बर्फबारी हो रही थी और रास्ते भी खुले थे। मेरी आँखें खुशी से चमक उठी।
मुझे एकांत यात्रा का डर सताने लगा। यह हर बार होता है। ये डर बगैर तैयारी एग्जाम में बैठने जैसा होता है। कुछ-कुछ वैसा भी, जैसा बॉक्सिंग रिंग में उतरने से पहले लगता है। जब पैर खुदबखुद थरथराने लगते हैं, सांसे तेज हो जाती हैं। कुछ लोग इसे मलेरिया समझकर अस्पताल भी पहुँचा देते हैं। खैर, मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। डर से निकलने केलिए मुझे ठोस कदम उठाने थे, लौहपुरुष टाइप स्टेप। लिहाजा बगैर देरी किए, मैंने तय कर लिया कि अकेले नहीं जाऊँगा।
फिर रेजोल्शून का क्या होगा, मैंने खुद से पूछा। जवाब पहले से तय था। वही होगा, जो हमेशा होता रहा है। रेजोल्यूशन टूटेगा...और क्या! मैंने अपने एक साथी से चलने को कहा। वह तैयार भी हो गए। तारीख तय हुई। लेकिन रेलवे ने अचानक ही काठगोदाम एक्सप्रेस कैंसिल कर दी। दूसरी तारीख तय हुई। पर, इस बार भाभीजी ने बाजी मार दी। साथी ने मुझे ना बोलने में देरी नहीं की। मुझे फिर से अपना रेजोल्यूशन याद आ गया। बस, मैं अकेला निकल पड़ा।
बाघ एक्सप्रेस में बी-2 में 6 नंबर सीट मिली थी। ऑफिस में आसानी से छुट्टी मिल गई और घरवालों ने भी कोई रायता नहीं फैलाया। चारबाग स्टेशन पहुँचा तो ट्रेन 'सिर्फ' दो घंटे लेट थी। स्टेशन का हाल मैं नहीं लिखूँगा, वरना आप जान जाएंगे कि मैं रेलवे रिपोर्टर हूँ। बस इतना कहूँगा, ट्रेन का सफर आँख, नाक, कान खोलकर करिए! स्टेशन पहुँचते ही सारे प्लेटफॉर्मों पर नजरें दौड़ाएँ। जो ट्रेन आए, उसे चेक करते रहिए। वह आपकी ट्रेन हो सकती है। थोड़ा, मेहनत का काम है। पर, स्वस्थ शरीर और सुखद यात्रा के लिए ज़रूरी है। वरना होगा ये कि एनटीईएस आपकी ट्रेन की लोकेशन कुछ बताएगा, स्टेशन वाले कुछ और बताएँगे और ट्रेन किसी और प्लेटफॉर्म पर आकर चली जाएगी।
स्टेशन पर टाइम नहीं कट रहा था। इसलिए मैं चाह रहा था, कोई मिले। मुझसे पूछे-अरे आप यहाँ, इस वक्त। 'मैं पलटकर गर्व से कहूँ, हाँ-ट्रैवलिंग के लिए जा रहा हूँ।' मैं प्लेटफॉर्म दर प्लेटफॉर्म भटकता रहा। पर, कोई पूछने वाला नहीं मिला। इसी बीच जीआरपी इंस्पेक्टर सोमवीर सिंह का फोन आ गया। मेरा माथा ठनका। मैं समझ गया, हो ना हो, महाराज आसपास ही हैं। वो बिलकुल मेरे पीछे खड़े थे। उन्हें देर रात मुस्तैदी से ड्यूटी करते हुए देखकर अच्छा लगा। उनके साथ महमूद आलम भी थे। काफी देर गपशप हुई। आखिरकार ट्रेन आई। अपर बर्थ में खुद को जैसे-तैसे ठूंसा। कंबल ताना और सो गया। ट्रेन तीन घंटे कि देरी से दोपहर 12 बजे हल्द्वानी पहुँची।
धूप गुनगुनी थी। पैदल ही स्टेशन से बस अड्डे तक चला गया। रास्ते में एक चचाजान टिकटॉक के लिए चूहे-बिल्ली के शिकार का लाइव विडियो बना रहे थे। चारों ओर मजमा लगा हुआ था। उन्होंने चूहेदानी खोली, चूहा भागा। बिल्ली ने उसे रगदाया। चूहा आगे, बिल्ली पीछे। चूहा रिक्शे की चपेट में आ गया। बिल्ली से ज्यादा चचाजान का मूड ऑफ हो गया।
बस, चचाजान और रिक्शेवाले के बीच कहासुनी शुरू हो गई। मारपीट भी हुई। रिक्शेवाला मजबूत कद-काठी का निकला, लिहाजा चचाजान की ठीकठाक धुलाई हो गई। वहाँ से निकलकर जब मैं बस अड्डे पहुँचा तो मुक्तेश्वर की बस छूट गई थी। दूसरी बस तीन बजे की थी। मैंने एक ठेले से संतरे खरीदे और पैदल चलने लगा। आगे चौराहे पर पहुँचा तो गुज़री हुई बस खड़ी मिल गई। शायद पंक्चर हो गई थी। मैं खुश हो गया।
मैंने मुक्तेश्वर में रुकने का बंदोबस्त पहले ही कर लिया था। अजीत बिसरिया जी वरिष्ठ पत्रकार साथी हैं, कुछ-कुछ बड़े भाई जैसे हैं। उन्होंने बताया कि आईवीआरआई बरेली का एक सेंटर मुक्तेश्वर में भी है। उसका गेस्ट हाउस शानदार है। मैंने बरेली में रहने वाले अपने कॉलेज के साथी अभिषेक मिश्र को फोन मिलाया। वह इन दिनों दैनिक जागरण में क्राइम रिपोर्टर हैं।
उनका परिचय कम शब्दों में ऐसे भी समझा जा सकता है कि मैं कॉलेज एग्जाम में आगे वाले से नकल करता था और अपने रिस्क पर उन्हें चीटिंग करवाता था। खैर, उन्होंने एक कमरा बुक करवा दिया और आईवीआरआई मुक्तेश्वर के इंचार्ज डॉ. पुतान सिंह का नंबर भी दे दिया।
उधर बस के चलते ही मैंने संतरे छील लिए। ड्राइवर को खिलाए और पास में बैठे एक लड़के को भी ऑफर किए। उसका नाम लाडला कुतुब था। वह टिकटॉक स्टार था। इंटर में पढ़ने के साथ-साथ हल्द्वानी में दांतों का अस्पताल चलाता था। वह काम के सिलसिले में नैनीताल जा रहा था। भीमताल आते ही वह उतर गया और मैं भटेलिया तक गया। वहाँ हाड़ जमा देने वाली ठंड थी, सामने दारू के ठेके पर लगी लाइन देखकर मुझे इस बात पर यकीन भी हो गया था।
उस ठेके पर अद्भुत सौहार्दपूर्ण माहौल नज़र आया। युवा, बुजुर्गों को प्राथमिकता दे रहे थे और दुकानदार महिलाओं को तरजीह दे रहे थे। भटेलिया से मुक्तेश्वर तक टैक्सी मिलती हैं। मैं एक टैक्सी में बैठ गया। उसकी सीट बेहद ठंडी थी। बैठते ही पिछवाड़ा ऐसा सुन्न हुआ कि बार-बार उसे छूकर देखना पड़ रहा था।
ठंड से यह हालत तब थी, जब मैं इतने कपड़े पहनकर लखनऊ से निकला था कि उन्हें उतारने बैठूं तो सवा घंटे लग जाए। जैसे कि बनियान, उसके ऊपर मोटा वाला इनर, फिर पतला वाला इनर, फुल ब्लैक टीशर्ट, पुलोवर, उस पर पतली जैकेट, फिर बॉम्बर और गले में नानी की शॉल। नीचे निक्कर के ऊपर हाफ नेकर। फिर गरम इनर, फिर लोअर, ऊनी मोजे पर साधारण मोजे और फिर जूते। घर पर कपड़ों के नाम पर सिर्फ तीन मेजपोश, दो पर्दे और पोछे ही पीछे छोड़कर आया था। अखबार से ठंड रुकती है। मेरे पास वह भी थे। लेकिन नीचे पहनना भूल गया था।
15 मिनट में भटेलिया से मुक्तेश्वर पहुँच गया। टैक्सी वाले ने ₹20 किराया लिया। टैक्सी से उतरते ही दाएं हाथ पर भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान यानी आईवीआरआई था। एक आदमी गेट पर ही मेरा इंतज़ार कर रहा था। पहुँचते ही उसने पूछा-अंबुज अमर उजाला लखनऊ। मैंने इंग्लिश में कहा-यस। उसने भी अंग्रेजी में कहा-प्लीज कम। फॉलो मी।आईवीआरआई के लिंगार्ड गेस्ट हाउस में मेरा कमरा बुक था। यह 130 साल पुराना गेस्ट हाउस है। बिलकुल हॉरर फिल्मों जैसा। इसी बीच बर्फबारी भी शुरू हो गई थी।
वहाँ पहुँचकर अंदर गया तो गेस्ट हाउस के केयरटेकर रघुबीर दत्त खोलिया किचन में हीटर से चिपके हुए मिले। वह दुबले पतले, लंबी कद काठी और बातचीत में बेहद ही सरल व्यक्ति थे। मुझे ऊपरी तल पर छह नंबर कमरा दिया गया। मैंने कमरे की खिड़की खोली तो बर्फ इठलाते-इतराते अंदर आने लगी। मैं पिछले कई सालों से बर्फबारी देखने का प्लान बन रहा था। पर, किस्मत देखिए, यहाँ पहुँचते ही बर्फबारी मिल गई। खैर, मैंने बैग रखा और नीचे लॉन में पहुँच गया। यहाँ का नज़ारा अद्भुत था मैं आसमान की ओर मुँह करके गिरती बर्फ को देखने लगा। ये ऐसी लग रही थी, जैसे सैंकड़ों तारे आसमान से टूटकर गिर रहे हों। कुछ देर में पूरा लॉन बर्फ से ढक गया था। चीड़ सफेद हो गए थे। तभी रघुबीर ने कहा- साहब अंदर चलिए, चाय बन गई है।
रघुबीर के साथ किचन में ही चाय की चुस्कियाँ ली। उनसे बातचीत शुरू हुई। वह खाना बनाते हुए भी बातें भी करते जा रहे थे। रघुबीर का गाँव लुसाल के आगे है जहाँ 40 साल से सड़क के लिए संघर्ष चल रहा है। उन्होंने बताया कि एक हादसे में उनका पैर चार जगह से टूट गया था। उन्हें गाँव से चादर में टांगकर लुसाल तक लाया गया जहाँ से वो हल्द्वानी पहुँचाए गए। उनकी किस्मत बुलंद थी, टांग बच गई। लेकिन वो स्टिक के मोहताज हो गए। रघुबीर ने आगे बताया कि पानी के प्राकृतिक स्रोत खत्म हो रहे हैं। ठंड में पाइपलाइन फट जाती है तो 'धोने' के लाले पड़ जाते हैं। रोजगार की हालत पूरे देश जैसी है। मुझे सुबह जल्दी उठकर हिमालय दर्शन के लिए जाना था, जहाँ से चौली की जाली और मुक्तेश्वर महादेव के दर्शन करने थे। इसलिए खाना खाकर सोने चला गया।
©
आप भी अपनी यात्रा के मज़ेदार किस्से Tripoto पर लिखें। ब्लॉग बनाने के लिए यहाँ क्लिक करें।
रोज़ाना वॉट्सऐप पर यात्रा की प्रेरणा के लिए 9319591229 पर HI लिखकर भेजें या यहाँ क्लिक करें।