मुंगपू पहुँचकर, मैं पहली ही नज़र में पहचान गया था कि मैं एक बेहद शान्त और ख़ूबसूरत जगह पर आया हूँ। चुप होना और शान्त होना दो अलग बातें होती हैं, यह जगह शान्त है। चाय के दूर लम्बे बागान और एक बाग को दूसरे से अलग करते सिनकोना के पेड़ और पतले-पतले रास्ते। बस हरी भरी ही तो है, फिर भी ना जाने क्यों रंग इसके ख़ूब हैं। दार्जलिंग से एक घंटे दूर इस जगह पर रबीन्द्र दादा अक्सर घूमने के लिए आया करते थे। आज जो उनकी महानतम कृतियाँ हैं, उनमें से कुछ की पटकथा यहीं लिखी गई है।
मुंगपू क्यों आना चाहिए?
दार्जलिंग से लेकर मुंगपू तक चाय से भरे हुए बागान, पहाड़ियों पर फैले हुए हैं। चटख रंग के ऑर्किड के फूलों से ठसाठस ये वादियाँ फली-फूली मिलेंगी। फूलों की ख़ुशबू पूरी वादियों में छाई मिलती है। कलिम्पोंग इलाके में, 4000 फीट की ऊँचाई पर बसा मुंगपू, तीस्ता नदी के नीले पानी को पखारता है, जिसका रास्ता लोकल लोग आपको ज़रूर बता देंगे।
नए नए पेड़ पौधों से दोस्ती
पूर्वोत्तर के पहाड़ों पर वो फूल और पेड़ मिलते हैं जो पूरे भारत में कहीं और देखने को ना मिलें। 1864 में यहाँ पहला कुनैन का कारखाना खोला गया था। कुनैन सिनकोना से निकलता है, जो मलेरिया के लिए ज़रूरी दवाई है। पूरे रास्ते में आपको सिनकोना के ये पौधे देखने को मिल जाएँगे। इसके साथ ही ऑर्किड के लिए मशहूर है मुंगपू। ऑर्किड की लगभग 150 अलग क़िस्में आपको यहाँ देखने मिलेंगी।
कुछ नया करने के लिए है मुंगपू में
कालिझोरा नाम का झरना यहाँ पर स्थित है। 550 फ़ीट की ऊँचाई से गिरता यह झरना आख़िर में तीस्ता नदी में जाकर मिल जाता है। घूमने के लिए इसके अलावा महानंदा वाइल्डलाइफ़ सैंक्चुरी भी है। अपने मन को सुकून देने के लिए कुछ समय डिनचेन शेरप छोलिंग गोम्पा में भी बिताएँ। इस मठ में हर दिन ही भजन और शान्ति पाठ होते रहते हैं।
कुछ नए लोगों से मिलने के लिए शान्ति चौक नाम के मठ का भी रुख़ करें। इससे शान्त जगह आपको शायद ही कहीं और मिले।
टैगोर की कहानियाँ और मुंगपू
एक बार की बात है, टैगोर को उनकी एक प्रशंसक और लेखिका मैत्रेयी देवी ने मुंगपू में बुलाया। टैगोर को यह जगह इतनी पसन्द आई कि फिर वो इस जगह के आदी हो गए। कभी मन की शान्ति के लिए, कभी अपने लेखन के लिए कुछ नया खोजने के लिए वो यहाँ आने लगे। वे 1940 में आख़िरी बार आए थे। उसके बाद से उनकी तबीयत ख़राब होने लगी और वो कोलकाता रवाना हो गए। उनकी मृत्यु के बाद मुंगपू में वे जहाँ रहा करते थे, उसे रबीन्द्र भवन नाम का म्यूज़ियम बना दिया गया। यहाँ पर उनके कई वास्तविक कला के नमूने, हस्तलिखित काग़ज़ात और कई साहित्य से जुड़ी दूसरी बहुमूल्य उपलब्धियाँ मौजूद हैं।
ज़ायका
बंगाली, नेपाली, तिब्बती और कैथोलिक खाने का मिला जुला मिश्रण है मुंगपू के खाने में। मोमोस से लेकर सुगन्धित तिब्बती नूडल्स तक, जिसे थुपका कहते हैं, यहाँ खाने को बहुतायत में मिलता है।
कब जाएँ
यहाँ पर जाना है तो सिनकोना के फूलों से मिलने का मौक़ा तो बिल्कुल ही मत छोड़ना। साल के कुछ गिने चुने महीनों में ही ये फूल उगते हैं। जून के महीने और अक्टूबर से दिसम्बर के बीच में जब मौसम हल्का सर्द होता है, तब ये फूल उगते हैं। मौसम भी बढ़िया होता है और घूमने के लिए जगह भी अपने शबाब पर होती है।
कैसे पहुँचें
मुंगपू दार्जलिंग से महज़ 35 किमी0 की दूरी पर है। पेशक रोड से होकर या फिर सिक्किम बंगाल राष्ट्रीय राजमार्ग 31 ए से जाया जा सकता है, बस आपको रम्भी बाज़ार पर रास्ता बदलना होगा।
सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा बागडोगरा का है। वहीं सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन न्यू जलपाईगुड़ी का, जो कि मुंगपू से बस 2 किमी0 दूर है। वहाँ से आपको लोकल टैक्सी मिल जाएँगी।
ठहरने के लिए
मुंगपू में आपको ठहरने के लिए उतनी जगहें नहीं मिलेंगी, जितनी किसी दूसरी प्रसिद्ध जगह पर। लेकिन यहाँ के लोग बहुत अच्छे हैं, आपको रहने में थोड़ी सी मुश्क़िलें आएँगी, लेकिन काम हो जाएगा।
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