
24 साल 8 महीने 12 दिन, अपने पूरे उम्र में मैंने किसी से बात नहीं की.कैसे बताती सबको की, सबकी तरह मुझे भी अकेले घूमने जाना था.कैसे बताती सबको की इंस्टाग्राम पर सबकी तस्वीरे मुझे भी प्रेरणा देती रही हैं. मंडी के इस छोटे गांव में घूमने और आवारागर्दी में ज्यादा फर्क थोड़े ही न था. माँ कहती है "बोल नहीं सकती और बहार जाना है? अगर कुछ हो जाए, किसी को आवाज से बुला भी नहीं पायेगी , और तेरे ये इशारे सब समझ थोड़ी न जाएंगे"

और फिर मुझे याद आया "समझदार को तो इशारा ही काफी था" फिर ये जुबान बीच में कहाँ से आ गई. ठीक ही तो कहते हैं सब. शायद ख़्वाबों को अब आवाज की भी जरूरत पड़ती है. कहीं पर पैरों की पड़ती होगी तो कहीं पर पैसों की, कहीं इजाज़त की तो कही ताक़त की, मगर मुझे सिर्फ ये बात मालूम थी. "ख्वाब मुक़म्मिल होने के लिए, सिर्फ पंखों की जरूरत पड़ती है."

यूँ ही एक रात मैं भाग खड़ी हुई बस पकड़ कर और अगले ही पल मेरे सामने धौलादार "मक्लिओडगंज" खड़ा था. मैं समझ नहीं पा रही थी की ये मेरे साथ क्या हो रहा है. ये तो घर से भी मेहफ़ूज़ और अच्छा लग रहा था. मैं और वादी एक दूसरे से कितनी बातें कर रहे थे. वो भी कहाँ कुछ कह रहा था, मेरी ही तरह गूंगा था? फिर इतनी शांति कैसे दे रहा था? वो ये कैसे कर पा रहा था.

आसमान में सतरंगी बिखेर कर शाम जो आतिशबाज़ी कर रही थी. उसे मैं अपना समझ रही थी. सब कुछ मेरा था, ये झील पहाड़, कुदरत, हवा, सब कुछ! और फिर. वैसे ही अगली सुबह मैं घर के दरवाजे पर खड़ी थी. मेरे बैग से तस्वीरें निकली और देखने लगी. कुछ हवा बटोर रही थीं तो कुछ ठण्ड, कुछ तस्वीरें पहाड़ को फिट करने की कोशिश में था तो कुछ तस्वीर उन भागते भेड़ों की जो दर गईं थीं जब मैं पास आई थीं. "मैं दुनिया के नज़रों में, इस वाकये के बाद अच्छी नहीं रही होंगी, मगर मेरी नज़र में ? मैं काबिल बन चुकी थीं!"

और मेरे लिए बस यही काफी था