भारत में जो 15 अगस्त सिर्फ एक छुट्टी थी, आज विदेश में वही दिन बहुत याद आता है!

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आपमें से कितने लोग 15 अगस्त ऐसे मनाते हैं ?

Photo of भारत में जो 15 अगस्त सिर्फ एक छुट्टी थी, आज विदेश में वही दिन बहुत याद आता है! 1/9 by सिद्धार्थ सोनी Siddharth Soni
श्रेय: sports keeda

मैनें तो हमेशा से 15 अगस्त ऐसे मनाया है :

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पहले जब इंडिया में रहा करता था, तो ऑफिस की थकान मिटाने के लिए छुट्टी के दिन नींद पूरी किया करता था। 15 अगस्त हो या 26 जनवरी, मेरे दिल में छुपा देशप्रेमी हमेशा नींद के आगे घुटने तक देता था।

मैं पिछले एक साल से लंदन में काम कर रहा हूँ। और विदेश में एक साल बिताने के बाद अब घर की याद आ रही है। जैसे-जैसे 15 अगस्त पास आ रहा है, अपने देश की भूली-बिसरी यादें मन में उठने लगी हैं।

याद आता है कि 15 अगस्त की मस्ती तो बचपन में ही कर पाते थे।

रेडियो पर विविध भारती के देशभक्ति गाने सुन कर आँख खुलती थी।

दूरदर्शन पर चित्रहार देखते-देखते माँ स्कूल के लिए तैयार कर देती थी।

स्कूल जाने के लिए तैयार होकर आदत के मारे हाथ बस्ते की तरफ जाता...

...फिर याद आता कि आज तो 15 अगस्त है , मतलब बस्ते से आज़ादी।

हुर्रे.....

बिना बस्ता टाँगे स्कूल के लिए घर से निकलते तो क्या हल्का महसूस होता था... यूँ तो स्कूल का नाम सुन कर रोना छूटता था, मगर 15 अगस्त के दिन स्कूल पहुँचने के लिए कदम ज़मीन पर नहीं पड़ रहे होते थे।

रास्ते में लोग गली-चौराहे पर खड़े आपस में हंसी-ठठ्ठा कर रहे होते थे। जिन मोहल्ले वालों को हम जानते नहीं थे, वो भी पापा को आगे बढ़ के आज़ाद दिन की बधाई देते थे। यहाँ लन्दन में तो पड़ोसियों को आपसे कोई मतलब नहीं।

फिर स्कूल पहुँचते तो गेट पर फटा लाउड स्पीकर कर्कश आवाज़ में लोगों को "मेरे देश की धरती" गाना सुना रहा होता था।

गेट से अंदर घुस कर सीधे ग्रीन रूम में जाते जहाँ बाकी के साथी डांस के लिए तैयार हो रहे होते थे। डांस के नाम पर जो बच्चे कमर नहीं हिला पाते थे, वो परेड टीम में शामिल कर लिए जाते थे।

स्कूल के मैदान के किनारों पर परेड ग्रुप के लिए सफ़ेद चौक से लाइनें खींची होती थी। एक तरफ ऊँचा -सा स्टेज बनाया होता था, जिस पर स्कूल के प्रिंसिपल के बैठने के लिए सिंहासन रखा होता था ,और स्टेज के सहारे पास में दर्शकों के बैठने के लिए पंडाल में दरी और प्लास्टिक की कुछ कुर्सियाँ पड़ी होती थी।

प्रिंसिपल झंडा फहराता और ड्रम की बीट पर परेड उसे सलामी देती। इसके बाद आते तरह-तरह के रंगारंग कार्यक्रम जैसे डांस, फैंसी ड्रेस, भाषण और कविता प्रतियोगिता।

घर जाते वक़्त स्कूल वाले लड्डू या बूंदी दे कर मुँह मीठा करवाते थे, मगर असली चीज़ तो गेट के बाहर बच्चों का इंतज़ार कर रही होती थी।

गेट के बाहर फेरीवाले अपनी साइकिलों पर गुड्डी के बाल, प्लास्टिक के तिरंगे झंडे, गुब्बारे, मुखौटे और न जाने क्या-क्या लिए बच्चों को लुभाते खड़े होते थे।

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कोई बच्चा मेंढक की तरह टर्र-टर्र बोलने वाली बन्दूक के लिए ज़िद करता ज़मीन पर लोट रहा होता था, तो किसी को बटन दबाते ही 'चल छैया छैया' गाने वाला मोबाइल चाहिए होता था।

इस मिनी मेले से किसी तरह निकल कर बच्चों को घर ले जाने में माँ -बाप के पसीने छूट जाया करते थे।

शाम को दूरदर्शन पर मनोज उर्फ़ भारत कुमार की 'पूरब और पश्चिम' फिल्म ज़रूर आती थी, जिसे देखने मैं अपने दादा के साथ बैठ जाया करता था।

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जब दिल्ली में पढ़ाई कर रहा था तो सिर्फ एक बार लाल किला जा कर स्वतंत्रता दिवस का कार्यक्रम देखा था।

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लाल किले से माननीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी आज़ाद भारत के लोगों को भाषण दे रहे थे। उस वक़्त तो मैनें भाषण प्रथा के बारे में ज़्यादा नहीं सोचा, मगर अब यहाँ बैठे-बैठे इंटरनेट पर पढ़ा कि स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले पर भाषण देने की प्रथा सन 1947 से चली आ रही है।

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सन 1947 में आज़ाद भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लाल किले से अपना पहला भाषण दिया था ; 'ट्रायस्ट विथ डेस्टिनी' यानी हिंदी में कहें तो 'तकदीर के साथ मुलाक़ात' |

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फिर भारतीय सेना की टुकड़ियों ने मंच पर बैठे नेताओं को सलामी दी। NCC के कैडेट्स ने करतब भी दिखाए। स्कूल के प्रोग्राम जैसा ही कुछ हुआ था, बस बड़े स्तर पर।

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अब यहाँ तो गेट पर जाते हुए लड्डू मिलेंगे नहीं, तो हम दोस्तों ने परांठे वाली गली पहुँच कर खूब दबा कर परांठे तोड़े।

यहाँ लन्दन में फास्ट फ़ूड के नाम पर मछली और आलू के तले हुए चिप्स ही मिलते हैं। कोई लन्दन वालों को बताये कि ऐसे भजिये तो हमारे यहाँ रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड के बाहर भी बिकते हैं।

अगर फास्ट फ़ूड ही खाना है तो चांदनी चौक जाओ, जहाँ 100 तरह के तो परांठे ही मिलते हैं।

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श्रेय: इंडिया टुडे .इन

फास्ट फ़ूड का नाम लेते ही कलकत्ता के पुचके और मुंबई की पावभाजी भी याद आ गयी। मुख्य भोजन की बात छोड़िये, भारत में हज़ारों तरह के तो नाश्ते ही मिल जायेंगे।

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परांठे के बाद बारी आयी जामा मस्जिद की फिरनी की। लन्दन के चीज़ केक में वो फिरनी वाली ठंडक और मिठास कहाँ। न ही यहाँ की ब्राउनी से शाही टुकड़े जैसी भाप निकलती है।

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शाम को इंडिया गेट पर जवाँ नस्ल खुल कर आज़ादी का लुत्फ़ उठा रही थी। विदेश जाकर महसूस होता है कि अपने देश की आज़ादी को कितना हलके में लेते थे।

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जिस देश ने हमें 200 साल तक गुलाम बना के रखा, वहाँ अपनी ही आज़ादी के दिन गुलाम बना बैठा हूँ।

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इस बार 15 अगस्त के दिन थोड़ा वक़्त यहाँ की इंडियन कम्युनिटी के साथ बिताने के बाद नेटफ्लिक्स पर अपने देश पर बनी कोई फिल्म ज़रूर देखूँगा।

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