ग्रामीण_पर्यटन
रहट से आज की पीढी शायद परिचित नहीं होगी । नगरों में 90 के बाद वाली पीढी में से भी कई लोगों ने सिर्फ इसके नाम सुने होंगे और बहुत हुआ तो किसी देहाती क्षेत्र के पर्यटन के दौरान या पुरानी फिल्मों में इसे देखा होगा । भारत के सुदूर देहातों में घुमते हुए इसे देखा जा सकता है । ग्रामीण पर्यटन का अपना अलग आनंद है । मैनें औरंगाबाद के कुटुम्बा के घेउरा गांव में रहट को चलते देखा तो मन आनंदित हो गया ।
यह एक सिंचाई यंत्र हैं जिसका प्रयोग अब धीरे---धीरे घटता जा रहा है । आम मान्यता है कि इसे तुर्कों ने अपने साथ भारत में लाया था । संस्कृत ग्रंथों में "'अरघट्ट"' शब्द देखकर कुछ लोगों का अनुमान है कि इसका प्रयोग भारत में प्राचीन काल में भी होता रहा है । जो भी हो यह यंत्र बाल्टियों या घङों के समूह को एक गोलाकार ढांचें (लोहा या लकङी का बना ) में जोङकर तैयार किया जाता है जिसमें लगी बाल्टियां कुआं के जल को क्रमशः बाहर लाती हैं । कुएं में लटकी बाल्टियों के गोलाकार फ्रेम को उससे जुङे लोहे का रॉड और धुरी ( दांतादार पहिया ) यंत्र को नचाता है और रहट की बाल्टी जल ऊपर लेते आती है । रहट में जुते बैल का बल यंत्र की ताकत बन जाता है। बाल्टियों की एकताबद्धता से काम निकाला जाता है वरना एक--एक बाल्टी उलीच कर तो सिंचाई होने से रही ! शादी के अवसर पर जनसमूह मौजूद होता है । यदि शादी के लिए जुटा हर व्यक्ति रहट की बाल्टी-सा आचरण अपना लें तो विवाह यज्ञ के विविध कार्यों की 'भीषणता' आसान हो जाती है। सामाजिक दायित्वबोध और अपनापन का बल रहट में लगे बैल की भांति कार्य आसानी से संपन्न करने की ताकत दे जाता है ।
संसार की धुरी विधाता नचाता है और एक--एक मनुष्य अपने हिस्से का दायित्व निभा कर फिर अनंत शून्य में चला जाता है । आस्तिकता तो यही सिखा जाती है । जिस तरह रहट में लगी बाल्टी और उसके पीछे की बाल्टी पानी की अविरलता बहाल करती है , निरंतर पानी की आपूर्ति होते रहती है उसी तरह मनुष्य की संतति (संतान) ही मनुष्य की निरंतरता है । मनुष्य की अमरता इसी अर्थ में है । एक जाति के रूप में धरती पर अब तक वह अमर इसी अर्थ में है । विज्ञान की औकात नहीं कि वह मनुष्य को अमर कर सके ।
.... जल तो डीजल पंप भी निकाल सकता है लेकिन धरती की संजीवनी को सोख कर ... बलात्कार ....! हरित क्रांति को सफल बनाने के लिए 1980 में भारत में बोरवेल की शुरुआत हुई । इसने अनियंत्रित भूजल दोहन की प्रक्रिया को जन्म दिया । धरती को कोख को बांझ कर अन्न उगाने की इस तकनीक से संवेदनशीलता गायब हो गई । लालच और जरूरत का फर्क मिट गया । इसी तरह कई लोगों ने औरत को बच्चा पैदा करने की मशीन बना दी है । शरीर का सेहत तक नहीं देखा और न ही देख सकते कि जो संतान बाहर आयेगी उसकी परवरिश के सवाल कैसे हल होंगे डीजल पंप की जरूरत इसलिए पङ गई क्योंकि समाज से संयम गायब हो चला है , जीवन की गति तेज करने की अंधी दौङ शुरू हो गई है । लोग आपस में एक दूसरे के सहयोग को तैयार नहीं है । तेज... तेज और तेज ... सबसे तेज !! पैसा कमाने और अपने चारों ओर खङी की गई बनावटी दुनिया के कार्य व्यापार निपटाने के लिए वक्त बचाना और सबसे आगे निकलने की चाहत ने ईर्ष्या को भी जन्म दिया । आत्मनिर्भरता की भावना का बलवती होने की चाह कहें या अहम् का बढना कह लें , सामूहिकता की क्षय ने एक ऐसी व्यवस्था को जन्म दिया जो मानव पर मशीन के विजय की कहानी बनकर रह गई है । मतलब काम साधने के लिए न जाने कितने प्रकार के "'डीजल पंप"' की व्यवस्था की गई है और जो होता है वह दिखता तो भव्य है मतलब एक ही बार में खूब पानी आने लगा है लेकिन संसाधनों की बर्बादी नहीं दिखती !!...... कितना और कैसा अनाज दवाईयों और डीजल पंप के सहारे कब तक उपजाओगे मनुष्य की संतति के रूप में उसकी अमरता सुरक्षित रह सकेगी न !!
कुआं समाज है और पानी मनुष्य । दोनों के बीच समायोजन बिठाना है , संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल सुनिश्चित करनी हो तो संवेदनशील साधन को खोजना होगा । साधन है भाईचारा, अपनापा । साधन जुटा तो पानी बाहर । रहट के बाल्टी को एक दूसरे से बाधना पङता है । यही बंधन है दुनियादारी का , प्रेम का , लोगों से जुङने का । यदि प्रेम नहीं करना हो तो डीजल चलाओ । कितना दिन चलाओगे या तो तेल के लिए पैसे नहीं बचेंगे , खुद तेल ही नहीं बचेगा या फिर पानी नहीं बचेगा । यहीं से पर्यावरण की सेहत का मुद्दा जन्मता है बाय-प्रोडक्ट के रूप में । रहट मितव्यतिता है । रिश्ता सहेजता है । धीरज सिखाता है । प्रकृति और मनुष्य का समायोजन कराता है । कुआं सूख गया तो हाहाकार .... । समाज की संजीवनी सूख--सी गयी है । डीजल ने हमारे भीतर पानी निकल आने का आत्मविश्वास ही नहीं भरा बल्कि अहंकार भी भर दिया । हम की जगह मैं ले आया । मैं में आत्मविश्वास भी होता है और अहम् भी । आत्मविश्वास अच्छी पूंजी है । हर कोई में होना चाहिए लेकिन यह आत्मविश्वास इस बात में क्यों नहीं होता कि समाज मेरा साथ देगा , रहट बनकर सामने आयेगा !! समाज साथ नहीं दे पा रहा क्योंकि सबने अपने कर्म और आदतें बिगाङ ली हैं । कोई किसी के लिए सोचता नहीं । उसके लिए समय निकालता नहीं । दोगे नहीं तो पाओगे कहां से रहट का बाल्टी केवल ऊपर ही नहीं जाता । पानी लेने के लिए नीचे उतरता है । डूबकी लगाता है । यदि वह जल को केवल छूकर निकल आये तो ऊपर आकर क्या उलीचेगा केवल औपचारिक हाव--भाव ! "'पानी"' लाना है तो डूबकी लगानी है । इसी तरह लोगों के काम आना है तो समाज के जल में डुबकी लगानी होगी । समाज की बुनावट को समझनी पङेगी । उसके जीवनरस को पीना पङेगा । लोहे का रॉड को जानवर घुमाता है । मनुष्य को पता था (है) कि यह काम उसकी सीमा से बाहर है । इस असामर्थ्य ने जानवर और मनुष्य के बीच लगाव को पनपने की एक सुदीर्घ परंपरा बना दी थी । अब जानवर भार बन गये । अधिक से अधिक साल भर दूध के खातिर लोग गाय - भैंस रख लेते हैं लेकिन बैल तो साल भर खायेगा और खेती में काम दो महीना ही दे पायेगा । फालतू हो गया है न !! माता--पिता भी अब भार बनते जा रहे हैं । कबाङी के हाथों बिकने वाले रहट के टूटे-फूटे पुर्जों की भांति .. । रूपया कमाने की जिद में अब शहरों में नॉन प्रोडक्टिव बूढों की जरूरत नहीं रही । पेंशन भोगी बुजुर्ग जरूर दुधारू गाय की तरह अपनी उपयोगिता बचा पाने में सक्षम है लेकिन खाने पीने में उन्हें खली की जगह केवल भूंसा ही मिल पाता है । बूढे बैलों की तरह कसाईखाने (वृद्धाआश्रम !) के यहां जाने से बच गये , जीवन धन्य बना हुआ है यही संतोष उनका सभी संताप हर लेता है । छोटा करो छोटा करो ... के मंत्रों के बीच न्यूक्लियर फैमिली , चारों दिशाओं में जिसके उद्घोष से वातावरण संगीतबद्ध है , उस संगीत में वृद्ध-रुदन सुनाई कहां से देता है ! वैसे भी रहट की पचास बाल्टी के भार को उठाना आसान नहीं होता है । मित्रों, पङोसियों और रिश्तेदारों के भार को उठाना आसान है क्या !! .... महती काम हो तो काम का उद्देश्य की महानता ही "'रहट"' में लगे रॉड को घुमायेगा । आत्मीय जन कल पुर्जे बन जायेंगे लेकिन पहले खुद को तो कल पुर्जा बनाना सिखो । आत्मीय बनो । इत्मीनान रखो ईश्वर का दिया आत्मबल दुनियावी रहट को घुमाने की ताकत देगा । जितना बङा उद्देश्य उतनी ताकत मिलेगी । आत्म संयम के अर्घ्य से की गई ईश्वरीय उपासना ही राह दिखायेगा तय मानो । भक्ति परमात्मा जीवात्मा को मिला सकेगा । मनुष्य का तो मनुष्य से विश्वास उठ चुका है ही अब यदि ईश्वर जैसा भरोसेमंद "'साथी"' खो दोगे तो .....!!! नास्तिक बनकर भी देख लो !
◆ कैसे पहुंचे :- औरंगाबाद नेशनल हाइवे 2 से जुङा हुआ है । अम्बा का घेउरा गांव नेशनल हाइवे 139 पर है । हाइवे 2 से हाइवे 139 जुङा हुआ है । नजदीकी रेलवे स्टेशन नवीनगर रोड, अनुग्रह नारायण रोड, गया हैं । हवाई अड्डा भी गया में है । स्टेशन और एयरपोर्ट से टैक्सी लेकर औरंगाबाद आराम से पहुंचा जा सकता है । यधपि रहट को झारखंड के पलामू के कई गांवों , देश के दूसरे देहातों में भी देखा जा सकता है ।
● कब पहुंचें :- गर्मी के दिनों में रहट चलते देखा जा सकता है । बरसात के महीनों में यह नहीं चलता ।
◆ कहां ठहरें :- यदि घेउरा में रात रुक कर देखना हो तो अम्बा के कुछ विवाह मंडपों में ठहरा जा सकता है । घेउरा से 13 किलोमीटर की दूरी पर औरंगाबाद में ₹ 500-- ₹ 2500 तक के बजट वाले होटल मौजूद हैं ।
यूट्यूब पर रहट : - https://youtu.be/Xrc0arL6y2Q
© अमित लोकप्रिय