लद्दाख का खूबसूरत गांव.....जरुर जायें ❤
लद्दाख में भारत-पाकिस्तान की सीमा से सटा तथा पहाडों से घिरा ये गांव अपनी संस्कृति और सभ्यता की वजह से अलग हैं। प्रकृति प्रेमियों को यह जगह खूब पसंद आती हैं।
पूरा लेह और आस-पास घुमने के बाद हमने तुरतुक जाने का प्रोग्राम बनाया। हम सुबह 7 बजे निकल कर करीब 11 बजे नुबरा वैली होते हुए तुरतुक की ओर चल पड़े।
लेह से तुरतुक लगभग 203 कि.मी. दूर है। जहाँ पहुंचने मे हमको लगभग 8 घन्टे से ज्यादा लग गये थे। क्योंकि रास्ता इतना खूबसूरत था कि फोटो और वीडियो बनाने के लिए बार बार रुक जाते थे। बीच रास्ते में थोड़ा ट्रैफिक जाम की वजह से भी हमें तुरतुक पहुंचने मे ज्यादा वक़्त लग गया था। दरअसल यहां शाम ढलने के बाद भी करीब 7.30 -7.45 तक इतनी रौशनी थी कि हमें समय का पता ही नही चला।
खार दूंगला दर्रे में ऊंचे पहाड़ों के बीच, श्योक नदी के किनारे बसे इस गांव की खासियत हैं इसके खूबसूरत नजारे। यहां पर बाल्टी संस्कृति के लोग रहते हैं। जिनकी भाषा और रहन-सहन बिल्कुल अलग और अनोखी है। लकड़ी के बने पुल को पार करते हुए जब झरने पर नज़र पड़ी तो रास्ते की सारी थकान मिट गई। यहां ठहरने के लिए होटल कम ही हैं। लेकिन यहां घरों में होमस्टे की सुविधा भी है।
हम भी घाटी के बीचों बीच एक होमस्टे में रुके। हमारे कमरे के साथ ही किचन गार्डन था। जिसमे पालक, गोभी लगे थे पर इस गांव में सबसे ज्यादा खुबानी की खेती होती है। इसके साथ ही यहां पर अखरोट के भी बहुत से पेड़ नजर आये।
दूसरे दिन हम लोग पूरे गांव में घुमे। एकदम साफ सुथरा गांव और सरल स्वभाव के सभ्य लोग। पहाडों की दीवारें, दूर दूर तक हरियाली, ठंडी हवायें और साथ में बहता मदमस्त झरना हम शहर वालों को बहुत ही सुकून देता है। यहां सेब, खुबानी, अखरोट से पेड़ लदे हुए थे। छोटा सा पोलो ग्राउंड भी था।
सर्दियों में आस-पास के सारे पहाड़ बर्फ से ढ़क जाते हैं। गांव वालों ने बताया कि सर्दी में यहां snow-leopard भी आ जाता हैं। इस गांव की खासियत यह थी कि यहां सभी शिक्षा के प्रति जागरुक थे और शिक्षित थे।
यहां पर इंटरनेट की सेवाएं नहीं है। बिजली की सुविधा भी कुछ समय के लिये ही है, लेकिन फिर भी इस गांव की प्राकृतिक सुन्दरता यहां के लोगों को कहीं और जाने नही देती हैं तथा पर्यटकों को अपनी और आकर्षित करती है।
1947 में बटवारे के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर और लद्दाख का एक बड़ा हिस्सा अपने कब्ज़े में ले लिया था। उसमें से एक गाँव तुरतुक भी था। पर सन 1971 की लड़ाई के बाद तुरतुक फिर से हिंदुस्तान में मिल गया था। हिंदुस्तान की सीमा पर होने की वजह से यह गाँव 1971 से 2010 तक बाहरी दुनिया से पूरी तरह कटा रहा. शायद इसलिये इसकी संस्कृति पर कोई बाहरी रंग नही चढ़ा।
इस गांव की यात्रा एक अनोखा अनुभव देती हैं। यहां की सादगी, लोगों का अपनापन और प्रकृति की सुन्दरता आपको अलग ही ताजगी का अनुभव करायेंगी। आप अपने साथ हमेशा याद रहने वाली यादें लेकर लौटेंगें।