इस वर्ष केदारनाथा यात्रा भीड़-भाड़, प्रशासनिक कुप्रबंधन की वजह से भी चर्चा में रही लेकिन इसी माहौल के बीच मैंने मंदिर और आसपास की जगह को वैसे ही शांतिपूर्ण रूप में पाया जैसा मैं वर्षों पूर्व छोड़ के गया था. क्योंकि शायद मैं जानता था कि कितनी भी भीड़ क्यों ना हो शिव और उस जगह से कनेक्ट होना आना चाहिए जो शिव ने मुझे कई वर्षों पहले इसी जगह पर सिखा दिया था. केदारनाथ से जुड़ा 10 मिनट का वो एक अनोखा किस्सा मैं आप सब से शेयर कर रहा हूं, शायद कई लोगों को विश्वास ना हो और मेरा माखौल भी उड़े लेकिन फर्क नहीं पड़ता इसलिए वही लिख रहा हूं तो मैंने महसूस किया और बचपन से करता आ रहा हूं.
8 मई को गौरीकुंड से ट्रैक शुरू करने के बाद शाम करीब चार बजे हम मंदिर पहुंचे, कपाट तो अगले दिन खुलने थे मैंने माथा टेका और प्रसाद के रूप में उन्होंने मेरी आंखों में आंसू दे दिए जैसे कहा हो मैं यहीं हूं. खैर पानी और बिजली की कमी के चलते बड़ी मुश्किल में एक सज्जन के साथ कमरा शेयर किया. थककर चूर था कब नींद आ गई पता ही नहीं चला. करीब दो घंटे के बाद उठा लेकिन फिर भी थकान मिटी नहीं थी, साथ गए दोस्त ने बाहर चलने को बोला मैंने मना कर दिया कि तू जा मैं थका हूं, फिर भी उसने जिद की तो मैं चला गया. उसके बाद जो हुआ उस पर शायद किसी को भरोसा ना हो लेकिन फिर वही दोहराऊंगा, मैंने फील किया तो लिख रहा हूं. कमरे से बाहर निकल कर कुछ कदम चलने के बाद सामने मंदिर था वो मोमेंट मैं शायद डिफाइन भी नहीं कर सकता. हजारों की भीड़ में मानों मैं अकेला था, हर तरफ हर-हर महादेव के जयघोष के बावजूद जैसे मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. वहां मैं था और शिव थे. जूते पहने ही मैं मंदिर की तरफ बढ़ा और मंदिर की बाहर नंदी की मूर्ति के पास जो हुआ वो सोचकर मुझे भी लगता है कि ये महज एक सपने जैसे था लेकिन उसे कैसे नकारूं जिसे मैंने फील किया. नंदी के पास पहुंचा तो ऐसा फील हुआ कि वायां हाथ पकड़ कर किसी ने बिठाया और उसी तरफ झुक के मैं जूते पहने ही मंदिर के पास बैठ गया और फिर वो 10 मिनट क्या हुआ मुझे बिल्कुल भी नहीं याद, कुछ देर बाद जब किसी ने कंधे पर हाथ रखकर बोला, ओ भाई, जूते तो उतार दे मंदिर के पास जूते पहन के बैठा है. ऐसा लगा जैसे किसी ने गहरी नींद से जगाया, लेकिन इस बार उठने में और थोड़ी देर पहले नींद से उठने में बड़ा फर्क था जहां नींद के बाद भी थकान से चूर में कमरे बाहर आने को तैयार नहीं था वहीं इस बार जैसे कोई थकान नहीं था, ना पैरों में दर्द था और सर भी बिल्कुल हल्का जैसे सब नॉर्मल था. कोई ट्रैक ना किया हो. शरीर में कई दर्द, कोई थकान नहीं थी लेकिन आंखों मेँ आंसू जरूर थे जो शायद बाबा को धन्यवाद कर रहे थे और कह रहे थे जितना आतुर मैं उसने मिलने को रहता हूं शायद उससे कहीं ज्यादा वो रहते हैं. वो 10 मिनट मेरी लाइफ का वो समय बन गया जिसमें मेरे साथ क्या हुआ वो तो याद नहीं लेकिन हमेशा के लिए यादगार बन गए. और शायद वो 10 मिनट इतने अंदर तक घर कर गए कि आज जब मैं ये लिख रहा हूं तो आंखों में फिर पानी है और फिर 10 मिनट के लिए रुक गया कि आखिर वो 10 मिनट क्या थे.....