गाँव का वो सफ़र जो मुझे परिवार के और करीब ले आया 

Tripoto

उस वर्ष, 2019 की ही तरह, दिल्ली में जुलाई तक बारिश नहीं हुई थी और मुझे परिवार के साथ मौसेरी बहन की शादी में नानी के गाँव जाना था। दिल्ली में 3 साल रहने के बाद लग रहा था की गाँव में कैसे रह पाऊँगी। खैर, जाना तो था ही क्योंकि माँ ने आदेश दिया था। इसलिए सारी खरीदारी दिल्ली के चांदनी चौक से करके मैं घर के लिए निकल पड़ी। मेरा घर झारखंड के एक छोटे से शहर गिरिडीह में है जो अपने आप में प्राकृतिक खूबसूरती का नमूना है। गिरिडीह की खासियत किसी और दिन बताउँगी।

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मैं घर पहुँची और अगले दिन हमे नानी के घर बोकारो के एक गाँव खैराचातर के लिए निकलना था। पापा का फैसला था कि हम अपनी कार लेकर जाएँगे क्यूंकि उनको ड्राइविंग काफी पसंद है। मुझे इस पूरे माहौल से थोड़ी टेंशन हो रही थी क्योंकि मेरे नानी घर में ढंग से इंटरनेट चलना तो दूर फ़ोन पर बात भी नहीं हो पाती थी और आज के युग में हम युवा पीढ़ी के लिए इंटरनेट ना चलना मतलब हमारी ज़िन्दगी रोक लेने जैसा है। मन को समझा कर मैंने सबकी तैयारी में मदद की और अगले सुबह निकल पड़े हम नानी के गाँव खैराचातर।

पापा ड्राइविंग सीट पर थे और मैं उनके साथ। पीछे माँ और छोटे भाई बहन बैठे थे। मेरे पापा को पुराने गानों को बहुत शौक है इसलिए मैंने अपना फ़ोन गाड़ी के स्पीकर से जोड़ा और शुरू हो गया रफ़ी और लता का दौर। गाते गुनगुनाते आधा रास्ता हम काट चुके थे। मैं और भाई काफी दिनों बाद घर आए थे इसलिए हम छोटी के स्कूल के किस्से सुनने में भी मग्न थे। खाना-खाने के लिए हम खैराचातर से करीब एक घंटे दूर कसमार में एक ढाबे पर रुके।

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कई सालों बाद पूरा परिवार एक साथ बाहर खाना खा रहा था। सबने अपनी अपनी पसंद का खाना मंगवाया, उस ढाबे पर वहाँ के स्पेशल मिठाई भी खाई जिसे छेना जलेबी कहते हैं। मैंने यह मिठाई करीब 10 साल पहले खाई थी। वहाँ से खाना खाकर हम आगे बढ़े। झारखंड में वैसे ही जंगल बहुत हैं पर जैसे-जैसे हम नानी के घर के करीब पहुँच रहे थे हरियाली और सुन्दरता दोनों ही बढ़ती जा रही थी। घर तो छोटे-छोटे ही थे पर हर घर में टीवी का डी टू एच कनेक्शन ज़रूर दिख रहा था।

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श्रेय : विकिपीडिया

कुछ दूर और आगे पहुँचने के बाद हम नानी के मोहल्ले के अन्दर आ चुके थे। गाड़ी को देखकर गाँव के कुछ बच्चे उसके पीछे भागने लगे जैसे की उनको पता था गाड़ी किस घर पर जा कर रुकेगी। जैसे ही हम गाड़ी से उतरे नाना नानी हमें घर के बहार ही लेने आए। उसके बाद अन्दर जाकर रिश्तेदारों से मिलने का सिलसिला एक घंटे तक चलता रहा। उनमें से आधे रिश्तेदारों को मैं नहीं पहचानती थी पर वो मुझे जानते थे क्योंकि मेरी शक्ल मेरी मम्मी से मिलती है। एक घंटे के इस मेल मिलाप के बाद मुझे फ्रेश होना था और नहाना भी था। नानी घर गाँव में होने के बावजूद हमारे घर सभी सुविधाएँ थी पर मुश्किल तब होती थी जब बिजली नहीं हो और उस वक़्त बिजली नहीं थी। गर्मी काफी थी इसलिए मेरी नानी चाहती थी की मैं ठंडे पानी से नहा लूँ। बस फिर क्या था, मेरी मामी आई, कुँए में बाल्टी डाली और आ गया ताज़ा ठंडा पानी। गाँव में आने का सबसे अच्छा फायदा होता है की आपको हर चीज़ प्राकृतिक मिलेगी, कोई मिलावट नहीं।

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फ्रेश होने के बाद मैं घर के आँगन में सबके साथ बैठ गयी। मेहंदी की रस्म चल रही थी। कुछ औरतें ढोलक के साथ गा बजा रही थी, थोड़ी ही दूर रसोई घर में पकवान तैयार हो रहे थे। सब उस माहौल का भरपूर लुत्फ़ उठा रहे थे, तभी मेरी छोटी बहन ने मुझे और मम्मी को नाचने के लिए आँगन के बीच में खींचा। मेरी मम्मी को नाचना नहीं आता था पर उस माहौल में उन्होंने भी सबका साथ देना शुरू कर दिया और इस मज़ेदार माहौल में एंट्री हुई हमारे डांसिंग सुपरस्टार की, जो थे मेरे पापा। वो आँगन के बीच में आए और सबको नचाना शुरू किया। दीदी हो या मेरी नानी सब मिलकर उस ढोलक की ताल पर थिरक रहे थे। कई वर्षों बाद मैंने परिवार के बीच इस माहौल को जीया था।

उसके बाद खाना खाने की बारी आई। नानी के घर के रिवाजों के अनुसार पहले जिन लोगों ने खाना बनाया था उनको खिलाया जाता है और सब नीचे बैठकर ही खाना खाते हैं। हमने पत्तल लगाने शुरू किए। पत्तल पत्तों से बनी प्लेट को कहते हैं जो आम तौर पर गाँव में किसी भी आयोजन में इस्तेमाल किया जाता है। शादी का घर था इसलिए पकवान में कई तरह के व्यंजन थे। सबने बारी बारी से एक दुसरे को आँगन में खाना खिलाया। मेहँदी की रस्म भी पूरी हो चुकी थी। वैसे तो मुझे मेहँदी पसंद नहीं पर भाई ने कहा इसलिए मैंने भी मेंहदी लगा ली थी।

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सभी रस्म समाप्त करने के बाद पड़ोसी अपने घर चले गए और आंगन में बिछ गयी खाट। वो ही खाट जो हम दिल्ली में आम तौर पर पिंड बल्लुची के बाहर देखते हैं। सबके बिस्तर लग चुके थे और मच्छरों को भगाने के लिए धूप अगरबत्ती पहले ही जलाई जा चुकी थी। खुले आसमान के नीचे सोये मुझे काफी साल हो चुके थे। पिछली बार अपने कॉलेज की छत पर सोयी थी पर वहाँ भी यहाँ जैसा साफ़ आसमान नहीं था। तारों को देखते हुए सोना तो मेरी फैन्टेसी रही है इसलिए मैं काफी उत्साहित थी।

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सब लोग आपस में बात कर रहे थे तभी मेरे नानाजी ने अपने समय की शादियों के बारे में किस्से सुनाना शुरू किया। वो बताने लगे की किस तरह उस ज़माने में लड़का लड़की एक दूसरे को देखते भी नहीं थे और उनकी शादी हो जाती थी और तब भी वो चोरी छिपे नानी को देखने तालाब के किनारे जाया करते थे। उनकी कहानी मुझे किसी पुरानी फिल्म की तरह लग रही थी। इन सबमें मुझे एक बार भी फ़ोन और इंटरनेट की याद नहीं आई थी इसलिए मैं किस्से सुनते सुनते सो गयी।

सूरज की किरणों के साथ सबकी नींद खुली। कितना सुन्दर था वो सूर्योदय, पूरा आसमान लाल था। सुबह उठते ही भाई ने बताया की सबको नहा कर मंदिर निकलना है। ऐसा नहीं था की ये सिर्फ एक शादी की रस्म थी, आम दिनों में भी नाना नानी हर दिन ऊपर पहाड़ी वाले मंदिर जाते ही थे।

सब तैयार होकर फोटो खिंचवा रहे थे, उसके बाद पैदल ही मंदिर की ओर निकल गए जो वहाँ से 3 कि.मी. दूर था। ऐसा लग रहा था पूरा गाँव हमारे साथ मंदिर जा रहा है। सब लोग बातें करते करते आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में मैंने और छोटी ने मोहल्ले की लड़कियों से दोस्ती भी कर ली थी। मंदिर पहुँच कर सभी रस्म पूरी हुई और दो घंटे में हम घर आ गए।

इसके बाद शादी की तैयारी ज़ोरों शोरों से शुरू हुई। बड़े शहरों में कैटरिंग वाले, डेकोरेशन वाले, स्टेज वाले सब अलग अलग मिल जाते हैं पर गाँव में सभी काम सब लोग मिलजुल कर करते हैं। मुझे घर की सजावट में मदद करने का जिम्मा दिया गया था। घर की सजावट के साथ-साथ रसोई में सबकी मदद करते कब सुबह से शाम हो गयी किसी को पता नहीं चला। घर क्या, पूरा मोहल्ला जगमगा रहा था। सब कुछ बहुत खुबसूरत लग रहा था। स्टेज तैयार था और बारात भी।सब कुछ धूम धाम से शुरू हुआ और सुबह तक सभी रस्मों रिवाज़ के बाद शादी पूरी हो चुकी थी। दीदी की विदाई अगले दिन सुबह हो गयी। विदाई के बाद घर सूना तो हो ही गया था पर मोहल्ले के कई लोग घर की सफाई करने के लिए तब भी वहाँ रुके थे जो आम तौर पर आपको शहर में देखने को नहीं मिलता।

विदाई की शाम तक घर में भीड़ भाड़ लगी रही। शाम को सब फिर से खुले आसमान के नीचे थक कर सो गए। मैं तारों की तरफ देख रही थी और यह सोच रही थी की कितने सालों बाद मैंने पूरे परिवार के साथ इतना अच्छा समय बिताया है और अगर यह शादी शहर में होती तो इस तरह का मेल मिलाप, इतने अलग अनुभव मुझे नहीं मिल पाते। गाँव आने के बाद तो मेरे कम बोलने वाले भाई के भी कई दोस्त बन गये थे।

फेसबुक, इंस्टाग्राम से दूर रह कर हम लोगों ने परिवार के अपनेपन को दोबारा खुल कर जिया। पत्रकार होने के नाते मैं कुछ दिन ख़बरों से दूर थी पर फिर भी जो अनुभव किया वो अलग था। इतनी व्यस्त ज़िन्दगी में हम परिवार के लिए वक़्त नहीं निकल पाते और मुझे तो गाँव के इस माहौल ने सबसे खूबसूरत पल दिए। इन्हीं ख्यालों के साथ मैं सो गयी और मेरी नींद तब खुली जब बारिश की कुछ बूँदें मेरे चेहरे पर गिरी। इस खूबसूरत सफ़र में इसी की कमी थी। सब लोग आंगन में मौजूद थे और पहली बारिश में नाच रहे थे। मैं सबको देख रही थी की दुनिया कितनी खुबसूरत हो सकती है जब आपके अपने आपके साथ हों।

कुछ देर बाद सब लोग नहा कर तैयार हो गए क्योंकि पापा हम सभी बच्चों को बोकारो के सिटी पार्क और ज़ू ले जाने वाले थे। घर के सभी बच्चे गाड़ी में बैठ गए और एक घंटे बाद हम बोकारो सिटी पार्क पहुँचे जहाँ 100 अलग प्रकार के गुलाब खिलते हैं। बहुत खूबसूरत था वो पार्क और उसके पास थी एक झील जहाँ आप नौका भ्रमण के लिए जा सकते थे। सभी बच्चों की जिद्द पर पापा ने हमें नाव में बिठा दिया और एक घंटे तक घूमते रहे। इसके बाद हम ज़ू गये और कई अलग प्रकार के जानवर देखे जिसमें सबसे खूबसूरत था वहाँ का विशाल एक्वेरियम। मुझे बहुत मज़ा आ रहा था। फिर हम सबने बाहार खाना खाया और छोटे बच्चों की तरह पार्क में पकड़म पकड़ाई भी खेली। उसके बाद हम घर आ गये और अगली सुबह हम वहाँ से गिरिडीह के लिए निकल गए। मुझे आज तक खैराचातर का वो सफ़र याद है और जब मौका मिलता है मैं वहाँ चली जाती हूँ।

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