मौत का सौदागर

Tripoto

विजय का फ़ोन आया, मैंने फ़ोन उठाया, उठाते ही उधर से आवाज आयी.... “अबे मौत के सौदागर .. ले आया बच्चो को मौत का सामना करवा के”. बस, यहीं से अपने यात्रा वृतांत का शीर्षक तय कर लिया.

इसकी शुरुआत होती है कैलेंडर में छुट्टी देखने से. कैलंडर देखते हुए पता लगा कि अप्रैल में 4 दिन की छुट्टी है 14 से लेके 17 तक. सोच लिया था कि घुमने जाना है . चाहे अकेले ही जाना पड़े या किसी के साथ. हालांकि इससे पहले भी मैं अकेले यात्रा कर चूका हूँ. पर समूह में यात्रा करना हमेशा ही ज्यादा मजेदार रहता है. तो दोस्तों में चर्चा करना शुरू कर दिया.कईयों से बात हुई, कईयों ने फाइनल करके रद्द भी किया... तो इस तरह से हम 5 लोगों का जाना तय हुआ. जगह भी तय हो गई. हम सबने तुंगनाथ, चोपता जाना फाइनल किया. मैंने अंतिम बचे 5 बस टिकट ऑनलाइन बुक कर दिये थे. शाम 9 बजे कश्मीरी गेट, दिल्ली से बस चलने वाली थी. अपने बैग में क्या क्या पैक करना है यह सारी बाते तय हो चुकी थी. चलिए अब आपको अपनी टीम से मिलवाते हैं.

टीम का परिचय:- पहला नाम वेरा... 12 क्लास में पढने वाली वेरा, जो उम्र में सबसे छोटी मेम्बर भी थी. पर ट्रेक पर जाने वाली सबसे अनुभवी मेम्बर भी थी. वेरा का स्वभाव थोडा चंचल है. इस बार वेरा मेरे साथ तीसरी बार घुमने जा रही थी. इससे पहले हम आली, गोर्शन बुगियाल, भविष्य बद्री, माना गाँव, और हर की दून घुमने जा चुके है. वेरा का हमारे साथ आना सबसे आखिर में तय हुआ. जिस दिन हम जाने वाले थे और मुझे अपनी बाइक वेरा के घर खड़ी करनी थी तब उसके पापा ने हमसे पूछा कि कितने बजे की बस है तो मैंने बताया कि बस 9 बजे की है, उन्होंने कहा तुम बस अड्डे पहुँचो मैं वेरा को लेके आता हूँ. तो ऐसे वेरा हमारे समूह की 6 वीं मेम्बर बनी. दूसरा नाम ललित.... हम ऑफिस में साथ-साथ काम करते हैं वह फिनांस विभाग में है और मैं एडमिशन विभाग में. हम दोनों साथ ही बैठते हैं. वह 34 साल का है और शादीशुदा है. एक बेटा भी है. एक नंबर का मस्तीखोर है और हमेशा चुटकुले सुनाता रहता है. उसके चुटकुलों को हमने PJ(पुअर जोक्स) नाम दिया है. ट्रेक पर जाने का बिलकुल भी अनुभव नहीं है. अपने परिवार के साथ वैष्णो देवी घुमने का उसका प्लान रद्द हो चुका था. लेकिन उसे घुमने जाना था तो हमारे समूह के साथ शामिल हो गया. तीसरा नाम यामिनी..... 21 साल की है. घुमने की शौक़ीन है. लेकिन अकेले घुमने में ज्यादा सहज महसूस करती है. समूह के साथ घुमने के लिए उसे मनाया और एक नया अनुभव होगा इसलिए मान भी गयी. उसके पिता श्री दत्तात्रेय मिश्रा उत्तराखंड में अध्यापक हैं इसलिए पहाड़ों में 10 साल रह चुकी है. एक नंबर की जिद्दी है और काफी लड़ाकू भी है. अपनी ही दुनिया में खोई भी रहती हैं. वो कहती है कि उसे दुनिया से कोई मतलब नहीं है और उसका जो मन आये वो करती है. कुल मिला के 21 साल के एक महत्वकांक्षी नौजवान के मन में जो उथल-पुथल और एनर्जी होती है वो सब उसमे साक्षात् नजर आती है. चौथा नाम मोहित .... 25 साल का है. ग्राफ़िक्स डिज़ाइनर है. पिछली बार मेरे साथ ही रूपकुंड ट्रेक पर जा चुका है. तभी पहली बार पहाड़ से सामना हुआ था मोहित का. इसके आलावा पहाड़ों का और घुमक्कड़ी का कोई ख़ास अनुभव नहीं है पर शौक बहुत है. पांचवा नाम शालू .... 24 साल की है. कानून की पढ़ाई पढ़ चुकी है और एक छोटी सी प्राइवेट नौकरी करती है. अड़ियल स्वभाव है. कुछ ठान लेती है तो उसे कर भी देती है. स्वांस सम्बन्धी बिमारी है. पर घुमने का बहुत शौक है. पहली बार पहाड़ देखने जा रही थी, इसलिए बहुत ज्यादा उत्साहित भी थी. पर डर भी था कहीं उसकी बिमारी की वजह से कोई दिककत न हो जाये. छटवां नाम सनी..... यानी कि मैं.

Photo of मौत का सौदागर by Suny Tomar

फोटो 1: टीम बायं से दायं (सनी, वेरा, ललित, शालू, मोहित)

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फोटो 2: टीम बायं से दायं (यामिनी, वेरा, सनी)

सफ़र की कहानी:- हम 6 थे और हमारी 5 सीटें बुक्ड थी... तो छटवी सीट का इंतज़ाम करना था. बस पूरी तरह से रिजर्व्ड थी कोई भी सीट खाली नहीं थी तो कंडक्टर से बात की...बस की सबसे आगे की सिंगल विंडो सीट के बिलकुल पीछे एक लकड़ी का फट्टा था जिसपे बस बैठा जा सकता था, टेक नहीं लगाईं जा सकती थी. तो उस सीट को हमन बुक कर दिया और बारी बारी से उसपे बैठके सफ़र पूरा करने की योजना हमने बना ली. सबसे पहले मोहित बैठा, फिर यामिनी बैठी, फिर थोड़ी देर मैं और मोहित साथ में बैठे. और फिर ललित बैठा. रस्ते में रुकते गप्पे मारते, खाते पीते हम सबसे पहले पहुंचे खतौली, फिर ऋषिकेश, ऋषिकेश आते ही पहाड़ों की हलकी सी ठंडक और खुशबु महसूस होना शुरू हो गई. फिर हम पहुंचे रुद्रप्रयाग फिर श्रीनगर और फिर आखिर में 9 बजे बस ने हमे कुंड नामक जगह पर छोड़ दिया. बस में हमने 2 लोगों से दोस्ती भी की. एक तमिलनाडु से था जो दिल्ली में रिसर्च का काम करता था. दूसरा रक्षा मंत्रालय में क्लेरिकल काम करता था. ज्यादातर लोग बस में इन्ही 4 दिनों की छुट्टी में घुमने जाने वाले लोग थे.

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फोटो 3: वेरा रास्ता दिखाते हुए

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फोटो 4: कुंड से चोपता का रास्ता

खैर रात का सफ़र ख़त्म हुआ, हम कुंड पहुंचे जहाँ से चोपता 35 किमी दूर था. छुट्टी के दिन थे तो घुमने वाले खूब आये हुए थे. इस वजह से चीज़ों के दाम भी खूब ज्यादा थे. हालांकि देश में महंगाई भी कम नहीं है. कुंड से हमने टेक्सी बुक की 250 रु प्रति सवारी सीधे चोपता के लिए. बीच में उखीमठ होके भी जाया जा सकता है. अभी तक जो पहाड़ हम देख रहे थे वो बंजर से थे जैसे तेज़ धुप में जल गए हों और ठण्ड भी बहुत ज्यादा महसूस नहीं हो रही थी लेकिन जैसे ही हमने उखीमठ पार किया तो पहाड़ों की रंगत में फर्क महसूस होना हमें शुरू हुआ. वहां पहाड़ थोड़े जयादा हरे-भरे थे, एक नमी सी महसूस हो रही थी पहाड़ और पेड़ों में, जैसे किसी ने सुबह जल्दी उठके सब कुछ धोया हो और उन पेड़ों को जमीन में रोपा और और ताज़ा-ताज़ा हरा रंग किसी चित्रकार से करवाया हो. चीड के पेड़, देवदार के पेड़, बाँझ के पेड़ और बुरांस के फूलो का पीक सीजन था. हर तरफ लाल, गुलाबी, सफ़ेद रंग के बुरांस के फूल मंत्रमुग्ध कर रहे थे. जो पहली बार पहाड़ देख रहे थे उनके मुंह से बस वाह निकल रहा था. और इस तरह इन सुंदर दृश्यों का आनंद लेते हुए हम तक़रीबन 10 बजे तक चोपता पहुंच गये. टेक्सी से उतरते ही हमने एक होटल में बड़ा सा कमरा बुक किया जिसमे 2 डबल बेड थे. 1200 में होटल बुक हुआ. फिर हम फ्रेश हुए और खाना खाया. 11:00 बजे तक सब फ्री हो गये. सोचा अब क्या किया जाये. तो तय हुआ कि चलो चलते हैं तुंगनाथ. अगर आज ही तुंगनाथ कर लेंगे तो 1 दिन बच जायेगा, उसमे कहीं और घूम लेंगे. सब लोग अपने चश्मे लेकर, जैकेट पहन कर निकल पड़े.

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फोटो 5: यहीं खाना खाया था और बगल में ही होटल भी था.

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फोटो 6: यहीं से तुंगनाथ की चढ़ाई शुरू हुई

दिन वाकई बहुत खुबसूरत था, धूप खिली हुई थी चारो तरफ बुरांस के पेड़ों पर बुरांस के लाल, गुलाबी, सफ़ेद फूलों के गुच्छे लदे हुए थे. एक तरफ बर्फीली चोटियाँ दूर नजर आ रही थी. सैलानियों की खूब चहल-पहल थी. सब सुन्दर-सुन्दर रंग-बिरंगे कपडे पहन कर अपने बच्चो को कंधे पर बिठाकर ट्रेक पर जा रहे थे. ऐसे में हम भी रोक नहीं पाए थे अपने आपको. तो जैसा तय हुआ था वैसे ही हम चल निकले. बुरांस के फूलो की गुलाबी सी आभा लिए हुए जंगल के बीच जाती छोटी सी कंक्रीट की बनी पगडण्डी पर चलते हुए हमारे सफर की शुरुआत हुई. थोड़ी ही दूर चले होंगे कि फोटो खींचना और खिंचवाना शुरू हो गया, क्यों न होता वो जगह ही इतनी खुबसूरत थी. इस ट्रेक पर एंट्री फीस भी लगती है, फीस लेने वाला सरकारी मुलाजिम रास्ते में ही बनी एक शेड के नीचे बैठ के सबकी एंट्री कर रहा था. एक आदमी का 150 रुपया, अगर छात्र है तो 75 रूपये. यामिनी के पास अपने कॉलेज की ID थी तो हम सबने प्रति व्यक्ति 75 रूपये बचा लिये. आगे बढे तो एक कुत्ता मिला जो पेड़ो पर उछल कूद मचा रहे बंदरों पर भौंक रहा था. जब हम वहां पहुंचे तो वो हमारे साथ हो लिया जैसे बंदरों से हमें बचाना उसने अपनी जिम्मेदारी मान लिया हो. हमने उसका नाम टाइगर रख दिया. और टाइगर बुलाने पर वह पास भी आने लगा. उसके साथ ही हमें एक माँ उसका 3 साल का बच्चा मिला. बच्चा उपर चढ़ते-चढ़ते परेशान हो गया थे और कह रहा था कि माँ वापिस चलो. हम मिले तो उसके साथ थोड़ी बाते की खेल-कूद किया तो उसे मजा आने लगा और वो धीरे- धीरे हमारे साथ ही चलने लगे.

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फोटो 7: बुरांस के फूलों से लदे हुए बुरांस के पेड़

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फोटो 8: रास्ते में मिला टाइगर और पीछे फैला रोहिणी बुग्याल

बुरांस का जंगल खत्म हुआ ख़त्म होते ही रोहिणी बुग्याल सामने था. बहुत बड़ा घास का मैदान जिसमे थोड़ी-थोड़ी दुरी पर कहीं-कहीं बुरांस के पेड़ थे. और ठीक सामने बर्फ से ढकी हिमालय की चोटियाँ, बुग्याल की हरी घास और बुरांस के गुलाबी फूल मिलके उस बुग्याल को बहुत खुबसूरत रूप दे रहे थे. उसे देख कर सब उत्साहित हो गये और फिर से फोटो खींचने और खिंचवाने का दौर शुरू हुआ. थोड़ी देर वहीँ बैठ के उस नज़ारे को हम देखते रहे. फिर सोचा कि हम पहले ही लेट हैं इसलिए फिर से चढ़ना शुरू कर दिया. इस बार सीधे रास्ते पर न चलके शोर्ट-कट मार-मार कर हमने थोड़ी दुरी को जल्दी से कवर किया.

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फोटो 9: रोहिणी बुग्याल में ललित और उसका पोज़

लगभग 1:30 बज चूका था. मौसम बदलना शुरू हो गया. बारिश की हल्की-हल्की बुँदे पड़ रही थी. थोडा उपर जाने पर बारिश तेज़ हो गई. एक शेल्टर में हमने शरण ली. वहां और भी लोग थे. थोड़ी देर में बारिश के साथ बर्फ पड़ना शुरू हुई. यामिनी, ललित, वेरा और शालू ने पहली बार बर्फ को गिरते हुए देखा था. सब लोग उत्साहित हो गए और ख़ुशी के मारे चिल्लाने लगे. इन्हें देख के और लोगों ने भी अपनी ख़ुशी जाहिर की. एक यूट्यूबर ने इस माहौल को रिकॉर्ड करने के लिए अपना कैमरा on किया. जैसे ही on किया तो उनके कैमरा की मेमोरी चिप नीचे गिर गई. चिप का साइज़ बहुत छोटा था तो उनके लिये उसे ढूँढना बड़ा मुश्किल हो गया. हम सब लोगों ने मिलके उनकी मदद की और वो चिप मिल गई. इस बात से खुश होके उन्होंने हम लोगों को अपनी विडियो में शामिल करने का वादा किया और हम लोगों का इंटरव्यू लिया. बारिश गिरना बंद हुई और हम लोगों ने फिर से चलना शुरू कर दिया.

यामिनी सबसे आगे थी बाकी, हम सब लोग साथ थे. 3000 मीटर ऊंचाई रही होगी तो मैंने और मोहित ने मिलके फैसला लिया कि अब सब लोग साथ ही चलेंगे. तो यामिनी को हमने कहा कि यामिनी अब तुम सबसे पीछे चलोगी और सबसे आगे शालू चलेगी क्यूंकि शालू सबसे धीमे चल रही थी और यामिनी सबसे तेज़. शायद इस बात का यामिनी को बुरा लगा उसका मिजाज़ एकदम से बदल गया. मैंने एक उदहारण देकर उसको समझाने की कोशिश की “झुण्ड में सबसे मजबूत भेड़िया सबसे पीछे चलता है, और सबसे कमजोर सबसे आगे” लेकिन उसे समझ नहीं आया और झल्लाहट में उसने मुझे जवाब दिया कि “ज्यादा लिटरेचर और फिलोसोफी मत झाड”. बाकियों ने भी समझाने की कोशिश की लेकिन उसका रवैया वही रहा. उसे लगता रहा कि उसकी आजादी को छीना जा रहा है. खैर फिर भी हम सब लोग साथ ही चलते रहे.

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फोटो 10: तुंगनाथ के करीब

अब तुंगनाथ सामने नजर आने लगा था. करीबन 1 किमी दूर रहा होगा. अब हम इतनी उंचाई पर थे जहाँ पेड़ नहीं थे. बस कुछ पहाड़ी घास और कहीं-कहीं गिरी हुई बर्फ के ढेर नजर आ रहे थे. मोहित को एलर्जी है, हर दुसरे दिन उसको एलर्जी होने पर दवा लेनी पड़ती है, जिसे लेकर उसे बहुत थकान और नींद जैसा महसूस होता है. अभी आधे किमी का सफर बाकी था और उसे दवा लेनी पड़ी. दवा ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया. और मोहित के लिए चलना बड़ा ही मुश्किल काम हो गया. तो उसे धकेलते हुए मैं उसको साथ लेके आ रहा था. बाकी लोग थोडा सा आगे चल रहे थे. और तूफ़ान शुरू हो गया था. खूब तेज़ हवाएं चल रही थी. ऐसा अजीब तूफ़ान था कि हवाए हर तरफ से आ रही थी और तेज़ रफ़्तार में आ रही थी. तुंगनाथ से 100 मीटर की दुरी रही होगी कि हल्की बर्फ़बारी भी शुरू हो गई. जल्दी जल्दी चलके हम तुंगनाथ पहुंचे और शेल्टर में जगह ली. उस टाइम मन्दिर में 100 लोग के करीब रहे होंगे. बर्फ़बारी खूब तेज़ हो रही थी. देख के बहुत अच्छा लग रहा था. मन्दिर के कपाट अभी नहीं खुले थे तो लोग बहार से ही मन्दिर के दर्शन कर रहे थे. ठण्ड बहुत थी सबने अपनी जैकेट निकाल ली थी.

तकरीबन 3:30 बजे होंगे. 3 बजे के बाद ऊँचे पहाड़ में तूफ़ान और बारिश होती ही है इसीलिए कहा जाता है कि पहाड़ों में 3 बजे तक अपने ठिकाने पहुंच जाना चाहिए. और ऐसे में हम तुंगनाथ में थे और मौसम खराब था, बर्फ गिर रही थी और चारों तरफ से अजीब सा तूफ़ान आया हुआ था, जिसकी हवाए हर तरफ से आ रही थी और हर तरफ को जा रही थी. थोड़ी देर में तूफ़ान कुछ शांत हुआ और बर्फ गिरनी भी बंद हो गई.

चंद्रशिला वहा से 1.5 किमी ऊंचाई पर था. मेरा बड़ा मन हो रहा था कि यहाँ तक आ ही गए हैं तो चंद्रशिला भी होके आ ही जाते है. लेकिन हमारी टीम के लोग इसके लिए तैयार नहीं थे. मैंने सोचा कि लोगो से पूछता हूँ अगर कोई चलने के लिए तैयार हो जायेगा तो आधे घंटे में जाके वापिस आ जायेंगे. तब तक मेरे साथी यहाँ आराम कर सकते थे. मैंने पूछा “है कोई माई का लाल जो चंद्रशिला जाने के लिए तैयार है”. एक गुजरात से ग्रुप आया था 8 लोगों का, वह ग्रुप चलने को तैयार हो गया. यह सुनके हमारा ग्रुप भी चलने को तैयार हो गया.

चंद्रशिला की चढ़ाई शुरू हुई. एक तरफ पहाड़ और एक तरफ खाई और बीच में एक छोटा सा पथरीला ट्रेक जिसपे हमे चलना था, यहाँ से हमारी शुरुआत हुई चंद्रशिला चढ़ने की. सबसे आगे यामिनी थी. फिर हमारी टीम और उसके बाद गुजरातियों की टीम. खूब तेज़ी से चढ़ना हमने शुरू किया. 2 मोड़ मुड़ते ही पहाड़ी की रिज पर पहुंच गए और नजारा एकदम से बदल गया. एक तरफ बुग्याल, एक तरफ छुपता हुआ सूरज और उसकी मद्धिम रौशनी में नहाये हुए सुनहरे से पहाड़, एक तरफ बर्फीली चोटियाँ.

अभी भी सबसे आगे यामिनी ही थी. उसके आगे 2 और लोग थे जो पहले से चढ़ रहे थे. लगभग 1 किमी चढ़े होंगे कि पहले तो एक दम से अँधेरा छा गया और धीरे धीरे हवाएं चलना शुरू हो गई. जब से हमने चढ़ाई शुरू की थी मौसम तभी से बिगड़ रहा था, ठीक हो रहा था तो हमने इसे इग्नोर किया और चढ़ना जारी रखा. मैं यामिनी के साथ रहने की कोशिश कर रहा था यह सोच के कि कोई अकेला न रहे. लेकिन वो पहले से ही गुस्सा थी और सबसे आगे सबसे जल्दी पहुंच जाना चाहती थी. मैं कभी पीछे वाले साथियों के साथ रहता तो कभी यामिनी के साथ पर जब मौसम खराब होना शुरू हुआ और हवाएं बहुत तेज़ हो गयी और तूफ़ान में बदल गई. वैसा ही अजीब तूफ़ान जो नीचे तुंगनाथ में भी आया था जिसमे हर तरफ से हवाएं बह रही थी. नीचे से उपर, उपर ने नीचे, पूरब से पश्चिम पश्चिम से पूरब, उत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर ... हर तरफ से हवाएं बहुत तेज़ बह रही थी. और अब हवाओं के साथ बर्फ गिरनी भी शुरू हो गई थी. चंद्रशिला से लगभग 200 मीटर पहले तूफ़ान और बर्फ़बारी इतनी तेज़ हो गई थी कि हमने अब नीचे जाने का फैसला किया. मैंने अपने पीछे वाले साथियों से धीरे धीरे नीचे जाने के लिए कहा और मैं खुद यामिनी जोकि सबसे आगे थी और उपर चंद्रशिला पहुंच गई थी को लाने तेज़ी से दौड़ के चढ़ने लगा. हर तरफ से बर्फ गिर रही थी. बर्फ़बारी इतनी ज्यादा घनत्व लिए हुए थे कि मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. मैं यामू, यामू (जोकि यामिनी का प्यार का नाम है) चिल्ला के आगे बढ़ रहा था. चंद्रशिला 50 मीटर बचा होगा तभी मुझे सनिया...सनिया (जोकि मेरा प्यार का नाम है) सुनाई दिया और मुझे यामिनी दिखाई दी उसके पीछे दो और लोग थे. उनको साथ लेके हमने नीचे की तरफ तेज़ी चलना शुरू किया................................. तभी मेरी आंखे खुली तो मैंने खुद को जमीन पे बैठा हुआ पाया. यामिनी मेरी कमर को सहला रही थी और पूछ रही थी ठीक है तू..... मैंने उससे पूछा कि क्या हुआ तो उसने बताया कि बिजली तेरे कंधे पर गिरी.... और गिरते ही तू भी जमीन पर बेहोश होकर गिर गया... 15 सेकंड में मुझे होश आया था. मैं उठा और तेज़ी से नीचे कि तरफ चलना शुरू कर दिया. डर लग रहा था, दिमाग में था कि हमसे थोडा नीचे साथी ठीक होंगे या नहीं. ... 2 ही मिनट लगे होंगे हम उन तक पहुंच गये. तो सीन कुछ यूँ था कि वेरा बैठी थी और बाकी उसे घेर के खड़े हुए थे. वेरा चिल्ला रही थी कि हम मर जायेंगे. मुझे घर जाना है .... मेरी माँ पागल हो जाएगी... ऐसा लग रहा था कि जैसे उसे कुछ नहीं पता कि वो क्या बोल रही है ...... वो सदमे में थी. सब उसे समझाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन वो उठ ही नहीं रही थी. मैंने वेरा से पूछा कि “वेरा क्या हुआ” उसने जवाब दिया कि घर जाना है . मैंने कहा “तो चलो उसके लिए तो चलना पड़ेगा”. उसको जबरदस्ती खड़ा किया ... उसे कसके पकड़ा और नीचे चलना शुरू कर दिया. सबसे आगे यामिनी को रखा, फिर मैं और वेरा, और हमारे पीछे शालू और मोहित और उनके पीछे ललित और बाकी और लड़के. बर्फ अभी भी उतनी ही तेज़ी से गिर रही थी बिजली अभी भी कडकड़ा रही थी. डर लगा रहा था कि कहीं बिजली फिर से न गिर जाये. ट्रेक बहुत ही फिसलन भरा हो गया था. लेकिन जान बचानी थी तो तेज़ी से नीचे जाना था. बात जान कि भी नहीं थी सभी को नार्मल होने के लिए भी नीचे पहुंचना जरुरी था. हमे मुश्किल से 15 मिनट लगे होंगे उस 700 मीटर के ट्रेक को पूरा करने में. किसी तरह आखिर का मोड़ दिखा तो जान में जान आई. लेकिन वही मोड़ सबसे ज्यादा खतरनाक भी था. वो झुकाव भरा मोड़ था, बर्फ गिर रही थी, तो पत्थर भी फिसलन भरे हो गए थे और एक तरफ भयानक गहरी गई जिसका अंत हमें नजर नहीं आ रहा था. ऐसे में उस मोड़ को पार करना बहुत डरावना था उस पर से किसी के जूते साधारण हो तो डर की मात्र 10 गुना बढ़ जा रही थी. किसी तरह हमने पार किया. ललित पीछे था और उसके साथ एक और लड़का था दुसरे ग्रुप का. वो लड़का पहले से ही बिजली गिरने के सदमे में था और उस मोड़ को देख के उस लड़के के हौसले और भी पस्त हो गए थे. मैंने वो मोड़ पार कर लिया था और उन दोनों का वही खड़े होकर इंतज़ार कर रहा था और उन्हें देख भी रहा था. उस लड़के ने ललित से कहा “ मुझसे नहीं हो पायेगा मुझे यही छोड़ दो” इस पर ललित ने उसका हाथ पकड़ा और धमका कर कहा “चल जल्दी से खड़ा हो हमे इसे पार करना है” . और फिर बैठ-बैठ कर उन्होंने इस मोड़ को पार किया. पार करके तुंगनाथ मन्दिर की शेल्टर में हम पहुंचे. वहां भीड़ थी. शेल्टर एक ही थी तो सब उसी में घुस आये थे. वेरा की हालत अभी भी ऐसी ही थी. वो रो रही थी, निरंतर बडबडा रही थी. हमारे हाथ ठण्ड के मारे जमे हुए महसूस हो रहे थे. हमने खूब हाथो को रगडा, मुह से फूंक मार-मार कर गरम करने की कोशिश की लेकिन फिर भी गरम नहीं हुए. वहा आग जलाने के लिए भी कुछ साधन नहीं था . तो हमे जल्दी से वहां से निकलना था. जैसे ही हमें लगा कि बर्फ गिरना थोडा कम हुआ है तो हमने नीचे उतरना शुरू कर दिया. थोड़ी ही दूर चले होंगे कि धुप खिल उठी थी. हमारे जहन में डर थोडा कम हुआ लेकिन अभी डर था. मुझे ऐसा इसलिए लगा क्यूंकि हमने आते हुए कोई फोटो या विडियो कुछ नहीं बनाया बस किसी तरह अपने होटल पहुच जाने की जल्दी थी. खैर होटल पहुंच भी गए. कमरे में पहुंचे तो सभी को राहत की सांस आयी.

थोडा थोडा आराम करके फिर खाना खा के हमने सोने की कोशिश की. लेकिन सभी के जहन में वो 30 मिनट अभी भी याद बनके डरा रहे थे. हालांकि हम उसे याद कर कर के हसे भी. लेकिन जान बच गयी थी.

इसके बाद हमे सिख मिली :-

1. कभी भी प्रकृति को हलके में ना लें.

2. अगर ऊँचे पहाड़ों में हो तो 3 बजे तक अपने ठिकाने पर वापिस आ जाने कि कोशिश करें.

3. और समूह के सारे साथी हमेशा एक साथ रहे.

अभी भी हमारे पास 3 दिन बचे थे घुमने के लिए लेकिन उस घटना का डर इतना था कि कोई तैयार नहीं हुआ तो मजबूरन हमें वापसी की गाडी पकडनी पड़ी. अगली सुबह हम अपने घर थे और अपने दोस्तों को तुंगनाथ का अपना अपना किस्सा सुना रहे थे.