कानपुर के मंदिरों का अपने आप में ही एक अद्भुत इतिहास रहा है। कई अपने प्रभाव के कारण तो कुछ अपनी प्राचीनता के कारण प्रसिद्ध रहे है। यह मेरा गृह नगर होने की वजह से मैं आप सभी को इनके इतिहास से अवगत कराना चाहता हूं। उनमें से कुछ प्रमुख मंदिर नीचे दिए गए हैं।
शिवाला कैलाशपति मंदिर
इस मंदिर में भगवान शिव एक अद्भुत रूप में विराजमान है। यहां की शिवलिंग बहुत ही बड़ी एवं भव्य है। इस मंदिर की स्थापना आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व हुई थी। कुछ लोगों की ऐसी भी मान्यता है कि यहां की शिवलिंग उत्तर भारत की सबसे बड़ी शिवलिंग है। इस मंदिर की स्थापना को लेकर यह प्रचलित है कि यहां के पुजारी महाराज गुरु प्रसाद जी मंदिर बनाने की आज्ञा देकर शिवलिंग लेने निकल गये । विभिन्न कारणों और गंगा जी में बाढ़ आने से उन्हें शिवलिंग लाने में एक वर्ष का समय लग गया। तब तक मंदिर तैयार हो चुकी थी, जिसके द्वार शिवलिंग के हिसाब से काफी छोटे थे बाद इस शिवलिंग को मंदिर के अंदर स्थापित करने में बहुत समस्या आ रही थी और अंततः वे असफल रहे। इस घटना से महाराज गुरु प्रसाद काफी परेशान हुए और बीमार रहने लगे। करीब 1 महीने तक शिवलिंग मंदिर के बाहर यूं ही रखा रहा। किसी को उस शिवलिंग की पूजा भी नहीं करने दी जाती थी। फिर वहां एक बार शंकराचार्य जी आये उन्होंने मंदिर के सारे द्वार बंद करवा के तीन दिनों तक हवन किया । उसके बाद देखा गया तो शिवलिंग अंदर स्थापित हो चुका था मंदिर में कहीं भी टूट फूट नहीं हुई थी बस उसके द्वार चिटके हुए थे।
भीतरगांव जगन्नाथ मंदिर
भीतरगांव स्थित यह मंदिर भगवान जगन्नाथ जी का एक अति प्राचीन मंदिर है। बारिश की संभावना बताने वाले मंदिर के नाम से प्रसिद्ध यह मंदिर अपने आप में एक आश्चर्य है।आप शायद यकीन न करे पर इस मंदिर की विशेषता यह है की यह बारिश होने की सुचना 7 दिन पहले ही दे देता है।ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर की खासियत यह है कि बरसात से 7 दिन पहले इसकी छत से बारिश की कुछ बूंदे अपने आप ही टपकने लगती हैं और बारिश शुरू होने के साथ ही बूंदें टपकना बंद हो जाती है।
आनंदेश्वर मंदिर
भगवान शिव जी का ये मंदिर कानपुर के परमट में स्थित है। आस पास कई मंदिर होने के कारण यह जगह आपको काशी का आभास कराता है इसलिए इस जगह को छोटा काशी के नाम से भी जाना जाता है। इस शिवलिंग का इतिहास महाभारत काल का है। यह कहा जाता है कि यहां पर महावीर कर्ण ने पूजा की थी। सिर्फ कर्ण को पता था कि यहां पर भगवान का शिवलिंग है। कर्ण गंगा में स्नान करने के बाद गुपचुप तरीके से पूजा करते थे। इसके बाद अदृश्य हो जाते थे। लेकिन एकबार कर्ण को उस जगह पूजा करते हुए यहां पर एक गाय ने देख लिया। और उस दिन के बाद से गाय उस स्थान पर जाते ही अपने थन से सारा दूध गिरा देती थी। गंगा किनारे बसे गांव में रहने वाले गाय के मालिक ने देखा कि गाय को दुहने के वक्त इसके दूध नहीं निकलता है। उसने गाय पर नजर रखना शुरू कर दिया। ग्वाले ने देखा कि गाय जंगल में गंगा किनारे जाकर पूरा दूध एक ही स्थान पर निकाल देती है। उस ग्वाले ने इसकी जानकारी अन्य लोगों को दी। जब लोगों ने जाकर उस स्थान की खुदाई की तो वहां शिवलिंग निकली। और वही पर मंदिर बनाया गया। समय के साथ बाबा आनंदेश्वर का यह मंदिर और भव्य बनता चला गया। खासकर शिवरात्रि और सावन के महीने में बड़े-बड़े व्यापारियों और आम जन का समूह उमड़ता है।
खेरेश्वर महादेव मंदिर
इस मंदिर का इतिहास भी महाभारत काल से जुड़ा हुआ है। शिवराज के खेरेश्वर धाम की मान्यता है कि द्वापर युग में यह गांव पहले गुरु द्रोणाचार्य का आरायण वन हुआ करता था। यहीं पर द्रोणाचार्य ने पांडवों और कौरवों को शस्त्र विद्या सिखायी। मंदिर के महंत आकाश पुरी गोस्वामी 36 पीढ़ियों से खेरेश्वर महादेव की पूजा कर रहे हैं। मंदिर के पास द्रोणाचार्य की कुटिया थी। द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा भी यहीं रहा करते थे। महाभारत के युद्ध के दौरान अश्वत्थामा ने पांडवों के पुत्रों की हत्या कर दी थी जिसके बाद भीम ने अश्वत्थामा के माथे में लगी मणि निकालकर उसे शक्तिहीन बना दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया वह धरती पर तब तक पीड़ा में जीवित रहेगा जब तक स्वयं महादेव उसे उसके पापों से मुक्ति न दिला दें। तभी से ये कहा जाता है कि महादेव से मुक्ति की प्रार्थना के लिए यहां अश्वत्थामा हर रोज सबसे पहले जल चढ़ाने आता है और आज भी जब मंदिर के पट खोले जाते हैं तो वहां पर फूल आदि चढ़े हुए होते हैं । मुगलकालीन शासक औरंगजेब ने इस गांव के सभी मंदिरों को ध्वस्त कर दिया था। यहां तक कि खेरेश्वर महादेव के शिवलिंग को खंडित करने के लिए उस पर अपनी तलवार से कई वार किये जिसके निशान आज भी शिवलिंग में देखे जा सकते हैं।
भीतरगांव गुप्तकालीन मंदिर
"The Brick Temple of India" के नाम से मशहूर यह मंदिर अपने आप में इतिहास को संजोए बैठा है। यह गुप्त कालीन मंदिर बनावट में अनूठा होने के साथ-साथ अत्यंत रहस्यमयी भी है। पांचवीं सदी में बने इस मंदिर के बारे में ऐसा कहा जाता है कि इसे खुद चन्द्र गुप्त मौर्य ने बनवाया था। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर में सूरज ढलने के बाद कोई भी कदम नहीं रखता। कई लोग ने जाने अंजाने ऐसा करने की कोशिश की पर उन्हें अगले दिन मृत पाया गया। वहां पर रहने वाले लोगों के अनुसार बहुत से लोगों ने जाकर वहां रूकने की कोशिश की पर सभी अगले दिन ही मृत पाये गये। कई लोगों की तो ऐसी मान्यता है कि यहां पर गुप्त कालीन खजाना रखा गया था जिसकी सुरक्षा कुछ अदृश्य शक्तियां करतीं हैं उन्ही के प्रभाव के कारण वहां कोई रुक नहीं सकता।