विश्व का सबसे पुराना शहर और शिवनगरी के नाम से विख्यात वाराणसी एक ऐसा पवित्र शहर है, जिसे हिंदुओं के पवित्र तीर्थस्थलों में से एक माना जाता हैं। हिंदुओं के सात पवित्र नगरों में से एक वाराणसी का पुराना नाम काशी हैं, जिसका वर्णन वेदों और पुराणों में भी किया गया हैं। गंगा किनारे बसा यह शहर हजारों सालों से उत्तर भारत का धार्मिक व सांस्कृतिक केंद्र रहा हैं। जितना जमावड़ा पर्यटकों का आपको वाराणसी में देखने को मिलेगा शायद ही किसी और जगह मिले। वाराणसी अपने घाटों और काशी विश्वनाथ मंदिर के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं, पर क्या आप जानते हैं वाराणसी के गालियों में कई ऐसे मंदिर हैं जो वाराणसी को माइथोलॉजिकली सुप्रीम बनाती हैं, जी हां आज हम इस लेख के ज़रिए आपको वाराणसी के उन ही मंदिरों का वर्णन करेंगे।
1. संकठा माता मंदिर
संकठा माता का मंदिर वाराणसी के सिंधिया घाट के पास गंगा किनारे स्थित हैं। यहां पर माता की जितनी अलौकिक मूर्ति स्थापित हैं उतनी ही अद्भृत मंदिर की कहानी भी हैं। इस मंदिर को ले कर एक धार्मिक मान्यता यह हैं कि जब मां सती ने आत्मदाह किया था तो भगवान शिव बहुत ही ज़्यादा व्याकुल हो उठे थे। भगवान शिव ने खुद मा संकटा की पूजा की थी इसके बाद भगवान शिव की व्याकुलता खत्म हो गयी थी और मां पार्वती का साथ मिला था। एक अन्य धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पांडवों जब अज्ञातवास में थे तो उस समय वह आनंद वन आये थे और मां संकठा की भव्य प्रतिमा स्थापित कर बिना अन्न-जल ग्रहण किये ही एक पैर पर खड़े होकर पांचों भाइयों ने पूजा की थी। इसके बाद मां संकटा प्रकट हुई और आशीर्वाद दिया कि गो माता की सेवा करने पर उन्हें लक्ष्मी व वैभव की प्राप्ति होगी। पांडवों के सारे संकट दूर हो जायेंगे। शुक्रवार को यहां पर दर्शन करने के लिए दूर-दराज से भक्तगढ़ आते हैं। ऐसा कहा जाता हैं यहां के दर्शन मात्रा से ही जीवन में आने वाला संकट दूर हो जाता है।
2. पिता महेश्वर महादेव मंदिर
वाराणसी के प्राचीन गली शीतला गली में स्थित हैं पिता महेश्वर मंदिर। जोकि वाराणसी के सबसे असामान्य मंदिरों में से एक है। यह मंदिर भगवान शिव के पिता परमपिता महेश्वर महादेव को समर्पित है। पिता महेश्वर मंदिर की दिलचस्प बात यह है कि परमपिता महेश्वर महादेव जमीन से 30 फीट नीचे विराजमान हैं। यह मंदिर केवल महा शिवरात्रि के शुभ अवसर पर जनता के लिए खुलता हैं और श्रावण के महीने में भी सभी के लिए बंद रहता हैं। इस शिव का दर्शन करने के लिए भक्तगढ़ सड़क के स्तर पर एक छेद के माध्यम से इस शिवलिंग के दर्शन करते हैं। यह मंदिर जमीन से 30 फीट नीचे होने के कारण इसका गर्भगृह हमेशा ठंडा रहता है। इस मंदिर के प्रभारी पुजारी का कहना है कि मंदिर की दीवारों पर बने निशान और छाप इसकी प्राचीनता के परिचायक हैं। इस मंदिर को काशी के गुप्त शिवलिंग के नाम से भी जाना जाता हैं।
3. आदि केशव मंदिर
आदि केशव मंदिर स्टेशन से क़रीब आठ किलोमीटर दूर वरूणा-गंगा संगम पर स्थित हैं। यह मंदिर काफी प्राचीन एवं धार्मिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण मंदिर हैं। कहा जाता हैं कि ग्यारहवीं सदी में गढ़वाल वंश के राजाओं ने आदिकेशव मंदिर व घाट का निर्माण कराया था। एक अन्य मान्यता यह है कि ब्रह्मालोक निवासी देवदास को शर्त के अनुसार ब्रह्मा जी ने काशी की राजगद्दी सौंप दिया और देवताओं को मंदराचल पर्वत जाना पड़ा। शिवजी इससे बहुत व्यथित हुये क्योंकि काशी उनको बहुत प्यारी थी। तमाम देवताओं को उन्होंने काशी भेजा ताकि वापस उन्हें मिल जाय लेकिन जो देवता यहां आते यहीं रह जाते। अखिर हारकर उन्होंने भगवान विष्णु और लक्ष्मी से अपना दर्द बताया और उन्हें काशी वापस दिलाने का अनुरोध किया। लक्ष्मी जी के साथ भगवान विष्णु काशी में वरुणा व गंगा के संगम तट पर आये। यहां विष्णु जी के पैर पड़ने से इस जगह को विष्णु पादोदक के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर की वास्तुकला भी बहुत अवलोकी हैं।
4. नेपाली मंदिर
विश्वनाथ कॉरिडोर के पहले पाथवे के प्रवेश द्वार जलासेन घाट के बगल में स्थित हैं, भगवान पशुपति का यह नेपाली मंदिर जोकि नेपालियों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। नेपाल के राजा राणाबहादुर शाह नेपाल से निर्वासित होने के बाद (1800-1804) काशी आये उसी दौरान उन्होंने नेपाल की राजधानी काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ मंदिर की रिप्लिका (प्रतिकृति) काशी में बनवाने का निर्णय लिया। इस मंदिर को पूर्ण होने में लगभग तीस वर्ष लग गए थे। नेपाली मंदिर, नेपाली वास्तुकला का सुंदर नमुना है इसके निर्माण के लिए नेपाल के विशेष कलाकारों को बुलाया गया था, जिन्हें नेपाल से ही मंगवाई गई लकड़ी, टेराकोटा और पत्थर जैसी सामग्री से इस मंदिर का निर्माण किया गया इसलिए इसे कंठवाला मंदिर भी कहा जाता है।
5. रत्नेश्वर मंदिर महादेव
वाराणसी का रत्नेश्वर मंदिर महादेव को समर्पित है। इसे मातृ-रिन महादेव, वाराणसी का झुका मंदिर या काशी करवात के नाम से भी जाना जाता है। रत्नेश्वर मंदिर मणिकर्णिका घाट और सिंधिया घाट के बीच में स्थित है। मंदिर का इतिहास भी बेहद दिलचस्प बताया जाता है। इस मंदिर के निर्माण बारे में भिन्न-भिन्न कथाएं कही जाती हैं। एक कथा के अनुसार, जिस समय रानी अहिल्या बाई होलकर शहर में मंदिर और कुण्डों आदि का निर्माण करा रही थीं उसी समय रानी की दासी रत्ना बाई ने भी मणिकर्णिका कुण्ड के समीप एक शिव मंदिर का निर्माण कराने की इच्छा जताई, जिसके लिए उसने अहिल्या बाई से रुपये भी उधार लिए और इसे निर्मित कराया। अहिल्या बाई इसे देख अत्यंत प्रसन्न हुईं, लेकिन उन्होंने दासी रत्ना बाई से कहा कि वह अपना नाम इस मंदिर में न दें, लेकिन दासी ने बाद में अपने नाम पर ही इस मंदिर का नाम रत्नेश्वर महादेव रख दिया। इस पर अहिल्या बाई नाराज हो गईं और श्राप दिया कि इस मंदिर में कोई भी दर्शन पूजन नहीं कर सकेगा। स्थानीय लोगों की मानें तो यह मंदिर श्रापित होने के कारण ना ही कोई भक्त यहां पूजा करता और ना ही मंदिर में विराजमान भगवान शिव को जल चढ़ाता है। यह साल के ज्यादातर समय नदी के पानी में डूबा रहता है। कई बार पानी का स्तर मंदिर के शिखर तक भी बढ़ जाता है। इसकी एक खासियत इसे अन्य मंदिरों से अलग बनाती है। दरअसल, अन्य मंदिरों के अलावा यह मंदिर तिरछा खड़ा हुआ है।
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