फूलों की घाटी और हेमकुंड मैं जून से October तक बहुत नेपाली लोग नेपाल से रोज़गार के लिए घाटी मैं आते है. बस ये समझो वो ४ महीने अपने सहयोगी होते है !! वो क़ुली कंडिवाला होटेल आदि मैं काम करते है. ये चार महीने मैं उनकी मेहनत देखते बनती है ... पैसे के लिए घर से बहुत दूर और दुशरे देश मैं उनकी ज़रूरत का काम करना और उस काम को ये माहोल देना की ये काम उनके अलावा कोई नहीं कर सकता .... ये बहुत बड़े मैनज्मेंट की बात है .... पर सच कहु तो एक चिंता का विषय भी है, जिस मैं विचारविमर्श होना चाहिए . बस कुछ नेपाली लोग दोस्त भी बन गए. दोस्त बन गए तो नेपाल को जानने का मोक मिला और नेपाल घूमने की मन ही मन इच्छा होनेलगीं. बस तब क्या था। नेपाली बन ke काम करेंगे और अंग्रेज़ बन के नेपाल घूमेंगे ये ठान ली. बस घूमने जाने की ख़ुशी ने काम का जोश बड़ा दिया !! कब चार महीने बीत गए पता ही नहीं चला. पर पैसा बचा लिया की yatra तो हो ही जाएगी. मेरी केनि ( हेमकुण्ड से सरोवर का जल ले जाने वाला पानी ka जार ) और मेरे सहयोगी ललित फ़ोटोग्राफ़ बनाए ka काम करते थे.
जैसे ही October आया. घूमने की जिज्ञासा और बड़ने लगी . अब तो मन मैं नेपाल की परिकल्पना आज के अमेरिका की तरह होने लगी. बस समय आ आ गया uttarakhand Roadways की बस मैं हम दोनो देहरादून को निकल गए ....पहले 40 km तक तो पता ही नहीं चला बस सपने बड़ते ही जा रहे थे ... बस अपनी रफ़्तार मैं थी और हम सपनो मैं नेपाल पहुँच चुके थे. अचानक नींद टूटी गाड़ी रुकी . परिचलाक चिल्लाया २० min है नाश्ता कर के आ जाओं. लगा फ़ालतू मैं रोक दी गाड़ी भूख किसे थी. चलो २० min बीते ..... गाड़ी चली .... गाड़ी क्या चली की सफ़र की हक़ीक़त सामने थी .... roadways की बस ... लास्ट की सीट एक तरफ़ वो एक तरफ़ मैं ... बीच मैं कुछ नेपाली. जो बारी बारी से मेरी खिड़की की सीट माँग रहे थे ... उलटी करने को .... और कुछ गाड़ी मैं बीड़ी भी पी रहे थे.
सच कहूँ तो बस की सबसे पीछे की सीट मैं पिछवाड़े का बुरा हाल था. पर किस से कहता अब तो बस भी भारी थी और driver सब को बिटायेभी भी जा रहा था . ३७ सीट और ५० तो बस मैं हो ही गए..... मैं ललित को देखता वो मुझे... अभी तो सफ़र शुरू हीं हुआ था .....
देहरादून आने मैं १३ घंटे लगे ... दोनो टूट चुके थे ....