मुसाफिर जाने वाले ...

Tripoto
21st Aug 2019
Photo of मुसाफिर जाने वाले ... by Amit Lokpriya
Day 1


मुसाफिर जाने वाले 

दार्जिलिंग दार्जिलिंग दार्जिलिंग के बीच हम गंगटोक में खड़े थे । टाटा सुमो की कतारें थी लेकिन किसमें जगह मिलेगी यह बहुत साफ नहीं हो पा रहा था । दार्जिलिंग दार्जिलिंग की उस चिल्लाहट में एक नव दंपत्ती भी हमारी तरह ऊहापोह में था । हमने चेहरे के भाव पढ़कर अपने साथ चलने को कहा तो उसने कोई ठोस सहमति तो नहीं दिखाई लेकिन लगा कि वह तैयार है । इस बीच समय देखकर हम इधर- उधर हुए और जब नजरों ने जांचा तो पाया कि वह दंपत्ति एक खुलने वाली गाड़ी में सवार हो चुका था । उसने हमारी टोह नहीं ली थी यह पक्का था । सामान्य शिष्टाचार से वह अनभिज्ञ तो नहीं हो सकता ! लगता है कि अनजान जगह में 'परदेसियों से ना अखियां मिलाना ' को मंत्र बनाकर यात्रा पर वह निकला था । हम कहीं भी जाते हैं तो परंपराओं एवं सीखों की गठरी भी लिये साथ चलते हैं । उसके साथ तो पत्नी के रूप में एक 'संपत्ति' भी साथ में थी । उनका चौकस रहना स्वाभाविक था । कुछ देर बाद हमने भी राह धर ली । उस दंपती के लिए 'मुसाफिर जाने वाले कभी ना लौटकर आने वाले ' भाव के साथ ...! 

तीस्ता से गाड़ी दार्जिलिंग की ओर मुड़ी । पहाड़ों की चढ़ाई और जलेबी -से घुमावदार मोड़ के सहारे जब हम ऊपर सरकने लगे तो बस झर- झर- झर -झर ...। चाय के बगानों से गुजरती हवा ... हिमालय के स्पर्श से संपृक्त हवा... दिव्य हवा... काले -अधकाले बादल ...नीला आकाश... प्रकृति के मनोरम दृश्य जो किसी इंजीनियर ने नहीं डिजायन किये थे । अलौकिक ...अद्भुत अहसास .... । ऐसा कि कवि की पंक्तियां याद होने के बावजूद तब याद नहीं आ सकीं

  " हवा हूं हवा हूं 

बसंती हवा हूं

 सुनो बात मेरी 

अनोखी हवा हूं

बङी बावली हूं 

बङी मस्तमौला 

नहीं कुछ फिकर है

बङी ही निडर हूं...

किया कान में कू....। "

 तब पंक्तियों याद नहीं आने का कारण अब समझ में आ गया है । विचार लेकर कवि चलता है प्रकृति कहां ...!  गाड़ी के बाहर हो रही बारिश के बीच धुलती जा रही हमारी आत्मा बस तृप्त होने की लालच में भर रास्ते अपनी आंखें शीशा के बाहर जमाये रहीं और उधर हिमालय हमें अपनी गोद में समेटते जा रहा था । जीवन में ऊंचाई किसे पसंद नहीं लेकिन ऊंचाई खतरा भी प्रस्तुत करता है, दार्जिलिंग की राह इसका अहसास दे रहा था । भौतिक उपलब्धियों की ऊंचाई ! कर्म की ऊंचाई ! पहाङ की ऊंचाई !.... खैर जाने दें । हमारी अपनी गाड़ी तो नहीं थी और न ही पूरी गाड़ी हमदोनों ने किराये पर लिया था । ठूंंस कर बैठाये जाने के बावजूद हम अपनी गरीबी में भी कुछ घंटों के लिए परेशानी भूल चुके थे । दूसरे मुसाफिरों की तरह हम भी थोड़ा सिहरन महसूसने लगे थे लेकिन कोई कह नहीं सकता था कि हमारी सिहरन किस वजह से था ! न हम और न हमारे साथ के मुसाफिर । यात्रा ने हमारी लाज बचा ली थी । ठंड से बदन कांपता है और डर से भी ।

 टैक्सी रेलवे स्टेशन पर जाकर अंतत: रुक गई । समुद्रतल से 2200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित दार्जिलिंग आ गया था । उतरते ही एक आदमी ने ठहरने का इंतजामात के लिए अपनी सेटिंग हमसे बैठानी चाही । कहा कि बिहार के एक होटल में ही आपकी व्यवस्था कर देता हूं  । शुरू में इंकार करने के बाद कुछ देर भटककर हमने आखिरकार उसकी सेवा ली । स्टेशन के पास ही उसने एक औसत दर्जे का होटल दिलवा दिया । होटल में मालूम हुआ कि दार्जिलिंग- सिलीगुङी में बिहार के लोग व्यवसाय और मजदूरी के लिए भरे हुए हैं । बिहारी ! ...  बिहार में जीवन की बाजी हारी.... परदेश में सब पर भारी ... जय बिहार !!! 

 दिन के करीब बारह--एक बज रहे होंगे । रेलवे में पदस्थापित हमारे साथी नागेंद्र और मैं थोड़े आराम के बाद घूमने के लिए अपनी खोली से बाहर निकले । कुछ अन्य भ्रमणार्थियों के साथ एक टैक्सी पर सवार हो गये । छ: - सात प्वाइंट के टूर पैकेज में चाय बागान एक प्रमुख प्वाइंट था । चाय का व्यवसाय हो सकता है इसके लिए अंग्रेजों ने काफी यत्न किया था । मुफ्त चाय पिलाकर आदतें बनवाई और तब जाकर चाय ने व्यवसाय का शक्ल लिया । चाय श्रमिकों की कोई इज्जत नहीं थी । व्यवहार में अब भी नहीं । अब थोड़ी इज्जत है नरेंद्र मोदी जी की बदौलत । .... चायवाला पीएम !.. नहीं , महिलाओं की बदौलत । महिलाओं द्वारा बागान में चाय श्रमिकों का परिधान पहनकर चारों तरफ तस्वीर उतरवायी जा रही थीं । घर लौटने पर इनका बढिया फ्रेमिंग होगा । ड्राइंगरूम में मालिक को चाय देती नौकरानी और दीवार पर टंगी चाय मजदूर वाली तस्वीर से झांकती मालकिन , मालिक को मुस्कुरा कर निहारते हुए .... कैसी लगी चाय हमारी !!!.. और चाय की चुस्की के बीच अखबार के पन्नों को पलटता मालिक .... देश बदल रहा है !!!

 चाय मजदूर बनने के लिए विपन्न- संपन्न वर्ग की महिलाओं की यह आतुरता महिला श्रमिकों के प्रति इज्जतनवाजी का उनका यह रूप उनका अपना फैशनेबल जेंडरमार्क है । इस इज्जतनवाजी को किसी ने पकड़ा हो या नहीं लेकिन वहां के बागान मजदूरों ने पकड़ लिया था । किराये के परिधान के लिए शुल्क तय करके उन्होंने बता दिया कि चाय ही नहीं चाय के पौधे देखने का भी व्यवसाय हो सकता है । मार्केटिंग में नवाचार इसी को कहते हैं । स्मार्ट मार्केटिंग ... ! इस व्यवसाय की खूबसूरती यह भी है कि हम अवर्ण--सवर्ण, आर्य- अनार्य का भेद किये बिना सहज भाव से किसी की उतरन को पहन ही नहीं लेते बल्कि भीतर से पुलकित भी हो जाते हैं, जैसे यह चाय का बागान नहीं हुआ समतावाद का बागान हुआ !! बहरहाल, हमारे साथ महिलायें नहीं थीं और हम अपनी 'वर्ण शुद्धता' बचाने में सफल रहे  
गाड़ी आगे बढ़ी । पद्मजा नायडू जूलाजिकल पार्क के मुख्य द्वार पर जाकर टिक गई । यह दूसरे चिड़ियांघरों की तरह ही है लेकिन यहां हिम भेङिए को देखना सुखद लगता है । यहीं पर हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट है जो हिमालय पर पर्वतारोहियों के विभिन्न अभियानों की गाथा तस्वीरों के मार्फत कहता है ।  हिमालय चढ़ाई अभियान में काम आने वाले उपकरण मैदानी इलाकों के गंभीर पर्यटकों के लिए निश्चय ही रोचक लगते हैं । घूम मोनेस्ट्री, रॉक गार्डन ,टाइगर हिल ,
चौरास्ता ,धीरधाम मंदिर भी हम दोनों हो लिये । मिरिक लेक को भी देखना चाहिए यह पता ही नहीं लगा । अब किसी अगली यात्रा में उसे देखा जायेगा । 
स्टेशन पर कोयला चालित रेल छुकछुक करती अपने लाइन लेंथ मिलाने के लिए पटरियों पर आगे -पीछे हो रही थी । पिछले दिन से ही हम ढनढन...ढनढन होते देखते आ रहे थे । पिछले दिन की विफलता के बाद अगले दिन हमने रेल की सवारी के लिए बिहारी दांव अपनाया । कोई उपाय नहीं मिला । टिकटें तीन दिन पहले से बुक थीं । अरमान भांप बनकर उड़ भी नहीं पा रहे थे । उस क्षण लगा कि भांप के लिए जरूरी गर्मी से प्यार भी किया जा सकता है लेकिन दार्जिलिंग के ठंडे मौसम में गर्मी लाते भी तो कैसे !! रुकी रेल को बैकग्राउंड में रखकर अपनी तस्वीरें उतार लीं और संतोष कर लिया गया कि जब यह रेल सिलीगुड़ी आजकल जा ही नहीं रही है तो बैठे न बैठे क्या अंतर पड़ता है ! यूनिस्को के वर्ल्ड हेरिटेज यह रेल चल तो रही है लेकिन कुछ ही किलोमीटर । भूस्खलन से लगभग दो किलोमीटर क्षतिग्रस्त हुए रेलवे लाइन के हिस्से को भी अपने मंत्रित्व काल में रेल मंत्री ममता बनर्जी बनवा नहीं सकीं , सोचकर मिट्टी मानुष वाला उनका यह बांग्ला प्रेम बड़ा रोचक लगा । अंग्रेज प्रिय लगने लगे थे कि उस दौर में तकनीकी सीमा को देखते हुए भी उन्होंने कितना जौहर दिखाया था । गोरखालैंड में खनिज ना तब था और ना अब मिल सका है , फिर भी महज आवागमन और संभवत चाय की ढुलाई के लिए उन्होंने कितनी गंभीरता दिखाई थी । गोरखाओं का जीवन अनजाने में ही किसी हद तक दुष्कर होने से बचा होगा । आज यदि वहां खनिज संपदा का पता चल जाये तो क्या वाम और क्या दक्षिण सभी 'दाम' पर लाइनें दुरुस्त करने के लिए होङ लगा देंगे । 

... दूसरे दिन के दोपहर में शहर घूमते हुए हमने पाया कि गंगटोक की तुलना में दार्जिलिंग शहर का मुख्य हिस्सा गंदा है । सड़क किनारे दुकानें बेतरतीब -सी लगी हुई हैं । सौन्दर्य बोध का अभाव है । बंगाल में लंबे कम्युनिस्ट शासन की कमाल की वजह से हुआ या दूसरी वजहों से, घुमते हुए शोध के लिए हम वक्त नहीं निकाल सके । सड़क किनारे बड़ी-बड़ी इचना (झींगा) मछलियां बिकती दिखीं तो आश्चर्य से भाव पूछ लिया । 400 रूपये किलो ! बिहार में चार-पांच इंच की इचना मिलती नहीं । मतलब इचना के खनिहार कम नहीं बंगाल में । सड़क मुङी तो हम भी मुड़ गये । ''यहां गोरु का मास पाइछे'' के बोर्ड के साथ कटे टंगे भैंस बछङे दिखे तो हम थोड़ा ठिठके । अब ये तीन-चार दुकानें केवल मुस्लिम ग्राहकों की बदौलत तो चल नहीं रहे होंगे । मतलब पहाड़ी हिंदू भी....!  हिंदू और गाय का मांस ..!! गौ- रक्षक दल.…! यहां के लोग हिंदू ही हैं न ..! नागेंद्र के साथ आपसी बातचीत का अंश जो बस आंखों ही आंखों से हो सकी । अपनी-अपनी फूड हैबिट है, इसी में हमने संतोष कर लिया । संतोष करने के अलावा विकल्प ही तब क्या था या आज है ! आगे राशन की दुकानें भी सजी थीं और कपड़ों का भी । अपनी-अपनी धर्मपत्नी की नजर में यात्रा को सार्थकता प्रदान करने की गरज से हमदोनों ने तीन स्वेटर खरीदें और अंधियारे के दस्तक देते अनाज खाने होटल लौट आये ।

◆कैसे पहुंचे :-

सबसे नजदीकी एयरपोर्ट बागडोगरा एवं नजदीकी रेलवे स्टेशन न्यू जलपाइगुङी है । यहां से ढाई से तीन घंटे में दार्जिलिंग पहुंचा जा सकता है । गंगटोक, कलिम्पोंग, सिलिगुङी से सड़क मार्ग के जरिए भी दार्जिलिंग पहुंचा जा सकता है । 

◆ कब जायें :- अक्तूबर से मार्च के बीच सबसे उपयुक्त समय होता है । बरसात में भू-स्खलन का डर बना रहता है ।

©  अमित लोकप्रिय

Photo of मुसाफिर जाने वाले ... by Amit Lokpriya
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