कुशीनगर संस्मरण

Tripoto
Photo of कुशीनगर संस्मरण by Dr Prabhat Tandon
Day 1

कुशीनगर की यह ना भूलने वाली यात्रा का मन लगभग तीन वर्ष पूर्व दशहरे के दिन हुआ । एक अलसायी सी सुबह यह निर्णय लिया गया कि आज का दिन भगवान्‌ बुद्ध के सानिध्य मे ही बितायेगें ।

लखनऊ से कुशीनगर को जोड़ने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग अपनी साधन से जाने वालों के लिये सुखद एहसास दिलाता है । यहाँ रोड बहुत ही अच्छी क्वालिटी की है , हाँ , अलबत्ता , कई जगहों पर टौल टैक्स की वसूली जरुर खलती है ।

कुशीनगर का नाम कुसिनारा था और यह मल्लों का एक अधिष्ठान नगर था । गोरखपुर से महज 53 कि.मी. की दूरी पर स्थित यह नगर एक जमाने में मल्ल वंश की राजधानी थी। साथ ही कुशीनगर प्राचीनकाल के 16 महाजनपदों में एक था। चीनी यात्री ह्वेनसांग और फाहियान के यात्रा वृत्तांतों में भी इस प्राचीन नगर का उल्लेख मिलता है। इस प्राचीन स्थान को प्रकाश में लाने के श्रेय जनरल ए कनिंघम और ए. सी. एल. कार्लाइल को जाता है जिन्होंनें 1861 में इस स्थान की खुदाई करवाई। 1904 से 1912 के बीच इस स्थान के प्राचीन महत्व को सुनिश्चित करने के लिए भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने अनेक स्थानों पर खुदाई करवाई।

कुशीनगर में भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण यानी उन्हें मुक्ति प्राप्त हुई थी। इसी कारण से यह नगर आज भी समस्त संसार मे बहुत पवित्र और आस्था का प्रतीत माना जाता है । कहते हैं कि तथागत ने अपने महापरिनिर्वाण की घोषणा वैशाली में तीन महीने पहले ही कर दी थी ।

लखनऊ से सुबह 5 बजे के चले हम कुशीनगर 10 बजे सुबह पहुँचे। महापरिनिर्वाण विहार के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही प्रचीन खंडहरों के आधार दिखने आरम्भ हो जाते हैं । इस पथ पर ना जाने कितने संग्रामों और विहारों का निर्माण हुआ होगा और ना जाने कितने कालचक्र में समा गये । आज यहाँ मौन की गहन नीरवता है लेकिन शायद यह बुद्ध की मेहनत और महानता का फ़ल था जिसने यह क्षेत्र को ज्ञान का खज़ाना बना दिया था ।

महापरिनिर्वाण विहार और स्तूप

Photo of कुशीनगर संस्मरण by Dr Prabhat Tandon
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परिनिर्वाण स्तूप के विशाल फ़ैले प्रागंण में चल कर हम वर्तमान परिनिर्वाण विहार पहुँचें । सामने एक चबूतरे पर भगवान् बुद्ध की अधलेटी विशाल प्रतिमा के दर्शन होते हैं । इस मंदिर में भगवान बुद्ध की 6.1 मीटर ऊँची मूर्ति लेटी हुई मुद्रा में रखी है। जिन बुद्ध के वचनों ने जन जन के कल्याण हेतु धर्मुपदेश दिये थे वे आज मानो प्रतिमा बनकर अनन्त निद्रा में मौन पड़े थे । ऐसा लगा मानो भगवान् कह रहे हों,

अनिच्चा वत संखारा उप्पादवय धम्मिनो ,

उप्पज्जितवा निरुज्झन्ति तेसं वुपसमो सुखो ॥

अर्थात : सभी संस्कार ( सभी पदार्थ , सभी प्राणी ) अनित्य हैं( सदा न रहने वाले हैं ) । उनका उत्पन्न होना , निरोध होना ( मृत्यु को प्राप्त होना ) उनका धर्म ( स्वभाव ) है । वे उत्पन्न होकर निरोध को प्राप्त होते हैं । उन्का अपशमन (समाप्त हो जाना ) सुख है ।

यह स्थान उस काल को दर्शाता है जब भगवा बुद्ध ने अपना पार्थिव शरीर छोड़ दिया था और निर्वाण को प्राप्त हुए । जैसा चित्र में दिख रहा है कि यह विहार खंडहरों के ऊँचे विशाल चबूतरे पर खड़ा है । इन फ़ैले खंडहरों की मोटाई को देखकर लगता है कि प्राचीन काल में इस विहार की कई मंजिलें थी । इनमें कई शून्यगार भी थे जहाँ भिक्खु ध्यान किया करते थे ।

महापरिनिर्वाण स्तूप मे मल्लों द्वारा उनके धातू अवशेषों को सुरूक्षित रखा गया था । कालान्तर में सम्राट अशोक ने सभी स्थानों से धातु अवशेषों को निकालकर उन्हे 8,40,000 भागों मे बाँट कर प्रत्येक भाग पर स्तूपों का निर्माण करवाया था। यह स्तूप भी उसी भाग का हिस्सा था ।

महापरिनिर्वाण विहार के पीछे का भाग

Photo of Kushinagar, Uttar Pradesh, India by Dr Prabhat Tandon

महापरिनिर्वाण विहार के पीछे के भाग में एक चौकोर स्तूप भी दिखता है जो भिक्खु अनुरुद्ध का है । इसी के पास एक 40 फ़ीट ऊँचा एक और स्तूप भी खड़ा है जिसका निर्माण कुशीनगर के मल्लों द्वारा करवाया गया था ।

स्तूप के पिछ्ले अहाते के प्रागंण मे विपासना मे डूबे दो थाई

Photo of कुशीनगर संस्मरण by Dr Prabhat Tandon

विहार में प्रवेश करते समय हमारी नज़र स्तूप के पिछ्ले हिस्से के प्रागंण में दो मूर्तियों पर पड़ी जो सजीव सी लग रही थी लेकिन यह निर्णय करना थोड़ा मुश्किल लगा कि यह मूर्ति है या सजीव । लगभग 45 मिनट बाद जब हमने पुन: उस प्रागंण में प्रवेश किया तो दिल माना नहीं कैमरे का फ़ोकस सही किया और पाया यह दो थाई ध्यान मुद्रा ( विपशयना ) में तल्लीन थे । दोनो को विपशयना में बैठे देखकर धम्मप्द की गाथा याद आ गयी :

सब्बे संङ्खारा अनिच्चाति, यदा पञ्ञाय पस्सति।

अथ निब्बिन्दति दुक्खे, एस मग्गो विसुद्धिया।। (धम्मपद २७७)

सारे संस्कार अनित्य हैं यानी जो हो रहा है वह नष्ट होता ही है । इस सच्चाई को जब कोई विपशयना से देख लेता है , तब उसको दुखों से मुक्ति प्राप्त होती है यानि दु:ख भाव से बंधन टूट जाता है । यह ही है शुद्ध विमुक्ति का मार्ग !! धम्मपद २७७

2 . बर्मी बुद्ध विहार

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बुद्धा सरोवर

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लगभग सभी मन्दिर और विहार बुद्ध मार्ग पर हैं । बर्मी बुद्ध विहार महापरिनिर्वाण विहार के बाईं ओर यह स्थित है । द्वार से प्रवेश करने पर एक भव्य बर्मी पगोडा के दर्शन होते हैं जिस पर चमकता हुआ सुनहरा रंग किया गया है । पगोडा की ऊँचाई 108 फ़ीट है । पगोडा के अन्दर भगवन बुद्ध की अधलेटी प्रतिमा हैऔर दीवारों पर बुद्ध के जीवन का चित्रण है ।

इसी विहार में एक सरोवर भी है जिसके ऊपर एक सुन्दर विहार बनाया गया है।

3. चीनी बुद्ध विहार

Photo of कुशीनगर संस्मरण by Dr Prabhat Tandon
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चीनी बुद्ध विहार में रेनोवेशन की वजह से हमें अन्दर प्रवेश करने को नहीं मिला। कुछ फ़ोटो जो हमने ली वह बाहर से ही थी ।

4. इंडो- जापान-श्रीलंका बौद्ध केन्द्र

Photo of कुशीनगर संस्मरण by Dr Prabhat Tandon
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बुद्ध मार्ग पर आगे चलने पर दायीं तरफ़ यह स्थित है । इंडो - जापान - श्रीलंका मंदिर, तीन देशों के बौद्ध अनुयायियों के सहयोग को इंगित करता है। इस मंदिर में भगवान बुद्ध की अष्‍ट धातु की मूर्ति स्‍थापित है जिसे जापान से लाया गया था। जब इस मूर्ति को जापान से आयात किया गया था, तब यह दो टुकड़ों में थी, जिसे बाद में स्‍थापना के दौरान जोड़ दिया गया। इस मंदिर की डिजायन और निर्माण, अटेगो ईस्‍सहीन विश्‍व बौद्ध सांस्‍कृतिक एसोसिएशन द्वारा बनाई गई थी। मंदिर में भगवान बौद्ध की अष्‍टधातु की मूर्ति एक अनूठे, चमकदार, भव्‍य और कांच के भव्‍य परिपत्र में रखी गई है । इस विहार की व्यवस्था सुचारु रुप से चलाने के लिये भदंत अस्स्जी महाथेरा का बहुत योगदान है जो श्रीलंका मूल के हैं।

5. हिरण्यवती नदी

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यह एक एतिहासिक नदी है । बुद्ध मार्ग पर रामाभार स्तूप की ओर बढ़ते हुए बाईं ओर इसका रास्ता जाता है । प्राचीन मल्ल गणराज्य की राजधानी कुशीनगर के पूर्वी छोर पर प्रवाहित होने वाली हिरण्यवती नदी बुद्ध के महापरिनिर्वाण की साक्षी तो है ही, मल्ल गणराज्य की समृद्धि और सम्पन्नता का आधार भी रही है। प्राचीन काल में तराई के घने जंगलों के बीच बहती हुई यह नदी मल्ल राज्य की सीमा भी निर्धारित करती थी। कहा जाता है कि इस नदी के बालू के कणों के साथ सोने के कण भी मिलते थे, जिसके कारण इसे हिरण्यवती कहा जाने लगा।

इसी हिरण्यवती नदी का जल पीकर बुद्ध ने भिक्षुओं को अंतिम उपदेश देने के बाद महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था। उनका दाह संस्कार मल्लों ने चक्रवर्ती सम्राट की भांति इसी नदी के तट पर रामाभार में किया था। जिसका वर्णन हम आगे करेगें । कहते हैं कि उस समय नदी विशाल थी, यही कारण था कि भिक्षु महाकश्यप जब बिहार से यहाँ पहुँचे तो शाम होने के कारण नदी पार नहीं कर सके और प्रात: काल नदी पार करके रामाभार पहुँचे। तब जाकर बुद्ध का अंतिम संस्कार संपन्न हुआ। वर्तमान समय में यह नदी उपेक्षित सी पड़ी है , नदी का पाट छोटा होकर 'बखया नाला ' हो गया है ।

रामाभार स्तूप

Photo of कुशीनगर संस्मरण by Dr Prabhat Tandon
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हिरण्यवती नदी से आगे बढने पर बाईं ओर प्राचीन रामाभर ताल के किनारे एक विशाल स्तूप खड़ा है जिसे मुकुटबंधन - चैत्‍य या मुक्‍त - बंधन विहार भी कहा जाता है । ऐसा माना जाता है कि भगवान बुद्ध की 483 ईसा पूर्व में हुई मृत्‍यु के बाद उनका इसी स्‍थान पर अंतिम संस्‍कार कर दिया गया था। सन 1861 में यह स्तूप 49 फ़ीट ऊँचा था । चीनी यात्री इत्सिगं ने यहाँ लगभग 100 भिक्खुओं को निवास करते देखा था ।

भारी बारिश की वजह से कुशीनगर में बहुत कुछ देखने को रह गया । इंडो-जापान-श्रीलंका मन्दिर तक पहुँचते 2 बार बारिश तेज हो चुकी थी । इस बीच पड़ने वाले कई विहार छूट गए जिसमें माथाकुंवर बुद्ध विहार , तिब्बती बुद्ध विहार , वाट थाई बुद्ध विहार और राजकीय संग्राहलय मुख्य थे। राककीय संग्रहालय तो अवकाश की वजह से बंद था । कोरिया बुद्ध विहार और वाट थाई बुद्द विहार के खुलने का समय नही हुआ था । इसलिये इस अल्प समय की यात्रा मे लग रहा था कि यह भी छूट जायेगें , और यही हुआ भी । लेकिन एक आस फ़िर भी बनी रही कि एक बार दोबारा इस पुण्य भूमि के दर्शन करने अवशय आना होगा ।

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