नोंगरियत , मेघालय
भारत के पूर्वोतर राज्यों में कबीलाई लोग सालों से नदी पार करने के लिए एक ख़ास तरह के पुल का सहारा लेते हैं | इन पुलों को रूट ब्रिज कहते हैं, क्योंकि ये एक ख़ास तरह के लचीले रबड़ के पेड़ की जड़ों से बनते हैं | रबड़ के पेड़ की जड़ों को पान की बेल के साथ आपस में पिरो कर पुल बनाया जाता है, जो वक़्त के साथ और भी ज़्यादा मज़बूती से आपस में गुंथता जाता है | वैसे तो ऐसे पुल समूचे पूर्वोतर में ही मिलते हैं, पर मेघालय के ख़ासी जनजाति के लोग इस कला में महारत लिए हैं |
मेघालय के सबसे पुराने रूट ब्रिज करीब 500 साल से भी ज़्यादा पुराने हैं, और जिस रूट ब्रिज को देखने मैं यहाँ आया हूँ, उसे डबल देकर रूट ब्रिज कहते हैं | ऐसा इसलिए क्योंकि ये पुल दो मंज़िला है, यानी ऊपर और नीचे आने-जाने के रास्ते हैं |
जितना जटिल इस डबल डेकर ब्रिज को बनाने का काम रहा होगा, उतना ही जटिल मेरे लिए इस पुल तक पहुँचने का काम था | पुल तक पहुँचने का रास्ता टर्ना गाँव से शुरू हो जाता है, और ये पुल इस गाँव से 4 कि.मी. दूर है | पहले टर्ना गाँव से नोंगरियत गाँव तक पहुँचने के लिए 3000 से ज़्यादा सीढ़ियों की चढ़ाई करनी पड़ती है | फिर नोंगरियत गाँव पहुँचने के बाद पुल बिल्कुल करीब है | तो टर्ना से नोंगरियत तक सीढ़ियों पर मेरे साथ चलने के लिए मुझे एक गाइड मिल गया था, जिसने अपना नाम बताया 'ग्रेस' | वैसे तो ये सुनने में लड़कियों जैसा नाम लगता है, मगर कुछ दूर ग्रेस के साथ चलने पर आपको महसूस हो जाएगा कि वो कितना धीमा और मीठा बोलता है, बिल्कुल अपने नाम जैसे |
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए बातों-बातों में ग्रेस ने बताया कि उसे सेना में भर्ती होना था मगर अपनी छोटी कदकाठी के कारण वो ऐसा नहीं कर सका | जब मैं शिलॉंग और सोहरा में था, तो मुझे ये अहसास हुआ कि ये पूर्वांचल के लोग कितना कम बोलते हैं | तो मैं चाहता था कि मैं नोंगरियत पहुँचने में कोई जल्दबाज़ी ना करूँ, ताकि ग्रेस से जी-भर कर बातें कर सकूँ | इसके अलावा रास्ते में जंगल की शांति और हरियाली मुझे इतनी भायी कि किसी तरह की कोई जल्दबाज़ी करने का मन नहीं हुआ | नज़ारों का मज़ा लेता हुआ आराम से शाम तक नोंगरियत पहुँच जाऊँगा | इसी दौरान ग्रेस मेघालय की बातें भी कहता रहेगा |
रास्ते में नोंगटिमाई आया जहाँ ग्रेस और मैनें गरमा-गरम मैगी खाई | पता नहीं पहाड़ों में ऐसी क्या ख़ास बात है कि सिंपल सी मैगी भी स्वाद का किक देती है | मैगी खाते हुए ग्रेस ने मुझे असली-नकली शहद में फ़र्क करना बताया |
रास्ते में चलते हुए लगभग 3 रूट ब्रिज और 2 सस्पेंशन ब्रिज आए | ग्रेस मुझे रूट ब्रिज के पास एक गुफा में ले गया जिसके बारे में ज़्यादा मुसाफिर नहीं जानते हैं |
गुफा में कुछ देर बैठे-बैठे बाहर पगडंडी देखते हुए मैनें जब इतनी साफ-सफाई के बारे में ग्रेस से पूछा तो उसने कहा कि ये जंगल ही उनके लिए सबकुछ हैं | ग्रेस ने बताया कि नोंगरियत से थोड़ी ही दूर ख़ासी जनजाति का एक और गाँव मावलिनोंग है, जिसे एशिया का सबसे साफ गाँव घोषित किया गया है | मावलिनोंग में शाम को गाँव के लोग सड़कों और सार्वजनिक जगहों की मिलकर सफाई करते हैं | अभी कुछ दिन पहले जब मैं वहाँ था तो मैनें अपनी आँखों से देखा |
बातें करते हुए मैं और ग्रेस नोंगरियत गाँव पहुँच गये, जहाँ डबल डेकर रूट ब्रिज देखा | 250 साल पुरानी ख़ासी जनजाति के लोगों की बुद्धिमता देख कर यकीन नहीं होता | 20 मीटर ऊँचा दो मंज़िला पुल उंशियांग नदी पर बना है |
पुल देख कर हम नोंगरियत में एक होमस्टे में रुक गए जहाँ रात के खाने में ख़ासी तड़के वाली दल और चावल थे | सुबह के नाश्ते में उबले अंडे, दलिया, ताज़ा तोड़ी नाषपाती थी | रात भर आराम और सुबह भरपेट नाहटे के बाद मैं और ग्रेस फिर से टर्ना गाँव की ओर चल दिए |
क्या अपने डबल डेकर रूट ब्रिज देखा है ? हाँ? अपना अनुभव हिंदी या अंग्रेजी में ट्रिपोटो पर बताइए |
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