दोस्तों के साथ बहुत घूमे, चलो कुछ नया करें, सोलो ट्रैवल करें!

Tripoto

2019 बीत गया, एक सुखद सपने की तरह। किसी बड़े आदमी ने कहा है कि साल तब तक नहीं बीतता, जब तक पुरानी यादें साथ रहती हैं। अगर ये बात है तो मैं अभी भी 2019 में ही जी रहा हूँ। और कुछ यादें तो 2020 में भी साथ रहेंगी, जैसे मेरा पहला सोलो ट्रैवल। मैं अपने नए साल को अपनी पहली सोलो ट्रिप की यादों से खास बना रहा हुँ, लेकिन आपके लिए ये वक्त है नई यादें बुनने का, कुछ नया करके नए साल को खास बनाने का! तो क्यों ना आप भी इस साल कुछ नया करें और सोलो ट्रैवल करें?

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श्रेयः आलोक कुमार सिंह

एक बेपरवाह यात्री होना ही सोलो ट्रैवलर की पहचान है। दुनिया के सब सामाजिक मानकों की धज्जियाँ उड़ाते हुए घूमता है सोलो ट्रैवलर। किसी लम्हे में वो 'Into The Wild' का हीरो होता है, तो किसी लम्हे में बहुत समझदार यायावर। उसके अपने मानक होते हैं, जो उसे हर मंज़िल फतह करने का हौसला देते हैं, जो दूसरों के लिए पहाड़ से कठिन होते हैं। अगर 2020 को यादगार बनाना है तो एक सोलो ट्रिप के लिए मौक़ा आप भी खोजो।

कहाँ से आता है मौक़ा

सबसे कठिन लम्हा होता है ख़ुद को अकेले जाने के लिए तैयार करना। ऐसे कामों के लिए एक मौक़े की तलाश होती है। मेरे लिए वो मौका निकला हमारे एक मित्र अतिन सर की शादी। शादी गोरखपुर में थी। वहाँ से सनौली की कुल दूरी 100 कि.मी. है यानि नेपाल जाने का बढ़िया मौका। फिर क्या सर की शादी सुबह साढ़े पाँच बजे ख़त्म हुई। और उसी दिन मैं नेपाल के लिए निकल गया।

ख़ुद को चुनौती देना ही सबसे बड़ी चुनौती है

सोलो ट्रैवलर दुनिया के सामने विरोध की दीवार बनकर नहीं खड़ा होता, बल्कि वो ख़ुद को ही चुनौती दे रहा होता है। हर लम्हें में ख़ुद ही को आज़माता है वो। मेरी पहली सोलो ट्रिप में भी मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ!

शादी सुबह साढ़े पाँच ख़त्म हुई। सुबह साढ़े छः बजे हम लोग घर आए। मौसम सर्द था और ऊपर से बारिश हो रही थी। इस वक़्त तक मुझे अपना बैग लेकर निकल जाना था। लेकिन इंतज़ार किया बारिश के थमने का और तीन घंटे की नींद मार ली।

तेज़ बारिश थम चुकी थी, पर पानी अब भी मद्धम मद्धम बरस रहा था। लेकिन मुझे तो आगे बढ़ना था। एक दोस्त ने वादा किया था ट्रिप पर साथ चलने का, लेकिन मैं मन बना के आया था कि वो साथ नहीं गया, तो भी निकलना है। आख़िर वो नहीं आया। मैं बस में बैठा लेकिन बस कुछ दस मिनट चलकर रुक गई।

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आगे एक ट्रक पलट गया था। कुल मिलाकर 94 किमी0 का जो सफ़र दो घंटे में पूरा होता है, वो छः घंटे में पूरा हुआ। बीच में कई बार ख़्याल आता है कि वापस हो लें क्या। फिर पीछे तीन दिन की जो छुट्टी ले रखी है, वो भी तो बर्बाद नहीं करनी थी।

अकेले घूमना कैसा होता है?

अकेले घूमना एक नज़र में तो नीरस लगता है कि देखो, अकेले घूमने निकल गए! लेकिन सच मानिए, उनके लिए तो ये दुनिया ही जन्नत है जिनको ख़ुद का साथ पसन्द है। वो अकेले भी आनन्द में रहते हैं। दुनिया को जो सोचना है, वो सोच के ही रहेगी। इसलिए उस दुनिया के बारे में सोच कर कुछ ख़ास फ़ायदा है नहीं।

चोर उचक्के सामान छीन ना लें!

एक दूसरा डर भी है कि कहीं कोई चोर उचक्का सामान न छीन लें। पर मेरे पास एक बैग, कुछ कपड़े और जूतों के सिवा कुछ भी नहीं।

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श्रेयः आलोक कुमार सिंह

सच कहूँ, तो मैं भी इस डर से अभी तक नहीं निकल पाया। लेकिन ख़बरें पढ़कर इतना अन्दाज़ा तो है कि नेपाल में छीना झपटी, लूट-पाट आम बात नहीं है। तो सोलो ट्रिप की शुरुआत नेपाल से करना बेहद आसान है।

तस्वीरें कम हैं लेकिन अनुभव बहुत ज़्यादा

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सोलो ट्रैवल करना बेहद चुनौतीपूर्ण है। लेकिन यही आपको आन्तरिक रूप से बेहद ताक़तवर बनाता है। अजनबियों में से अच्छे दोस्त चुनना सिखाता है। माना कि तस्वीरें कम हैं मेरे पास लेकिन जो तजुर्बा है, वो वाक़ई में आगे काम आएगा।

सक्सेस रेट 100%

मैं कई मर्तबा अपने दोस्तों या फिर परिवार के साथ सफ़र पर गया हूँ। कभी किसी सफ़र में कोई सोता रह जाता था, या फिर किसी की तबीयत ख़राब हो जाया करती थी। या फिर कुछ ज़िद्दी लोगों के भरोसे वो काम भी करने पड़ते थे, जिनकी इच्छा नहीं है। पैसे के ऊपर जो बवाल मचता है, वो तो बताने की ज़रूरत ही नहीं है। दोस्ती तक टूट जाया करती है कभी तो।

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पहली बार ऐसा हुआ कि जितनी भी जगह घूमने का प्लान बनाया था मैंने, वो सब बिल्कुल सही समय पर पूरा हुआ। जो गिनी चुनी दिक्कत पहले दिन बस पलटने की वजह से हुई, उसका निपटारा भी मैंने सफ़र का प्लान बदलकर कर लिया। पहले दिन नेपाल पहुँचने, दूसरे दिन पोखरा देखने, तीसरे दिन काठमांडू घूमने और आख़िरी सुबह लुम्बिनी में हुई। जितने मंदिर घूमने थे, सारे घूमे। जितनी ख़ूबसूरती देखनी थी, वो भी देखी। वो भी बिल्कुल निश्चित समय पर।

दुनिया वैसी नहींं, जैसा बोलकर डराया जाता है!

मुझे नहीं मालूम, लेकिन आज तक मेरे साथ कभी सफ़र में बुरा बर्ताव नहीं हुआ। हमेशा अच्छे ही लोग मिले। पोखरा तक जाने वाली बस में दो साथी मिले, आलोक जी और मनीष जी। दोनों के साथ पोखरा घूमा। तस्वीरें साझा कीं। शायद उन्होंने पहली बार गूगल ड्राइव पर तस्वीरें भेजी हों।

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श्रेयः आलोक कुमार सिंह

काठमांडू तक सफ़र में एक साथी मिला अनिम। नेपाल की पूरी राजनीति, प्यार, मोहब्बत, गाने, विदेश का प्रभाव, भारतीयों को लेकर नेपाल के विचार और नेपाल के ऊपर उसके विचार, दुनिया के जितने सवाल हो सकते थे, सारे जवाब मिले उन से।

इसके बाद एक लड़की से भी मुलाक़ात हुई। स्वयंभू मंदिर घुमाया उन्होंने। और सफ़र के आख़िरी पड़ाव लुम्बिनी में भी एक परिवार मिल गया, जिनके साथ भगवान बुद्ध के दर्शन किए मैंने।

कुल मिलाकर बात ऐसी है कि लोगों को पहचानिए, बहुत उम्मीद मत रखिए। अगर अकेले सफ़र पर हैं तो वो सब कुछ देख कर ख़ुश हो सकते हैं जो किसी के साथ देखकर होते। ज़रूरत है तो नज़रिया बदलने की।

आपको कैसा लगा मेरा सफ़रनामा, कमेंट बॉक्स में बताएँ।

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