महज शहर नहीं, इतिहास है मांडवी

Tripoto

विजय विलास पैलेस, मांडवी

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महज शहर नहीं, इतिहास है मांडवी

प्रभाकर मणि तिवारी

गुजरात में अरब सागर और रुक्मावती नदी के मुहाने पर बसा मांडवी एक शहर नहीं, बल्कि इतिहास है. जब गुजरात दौरे का कार्यक्रम बनाया था तब उसमें इस शहर की जगह नहीं थी. लेकिन बाद में नक्शों से जूझते हुए जब देखा कि यह खूबसूरत समुद्रतटीय शहर रेगिस्तान के बीच बसे भुज से महज घंटे भर की दूरी पर है तो इसे भी सूची में शामिल कर लिया. भुज में दो दिनों तक सफेद रेगिस्तान और काला डूंगर की लंबी यात्राओं के बाद यह तय हुआ कि अगले दिन मांडवी होते हुए द्वारका के लिए निकल पड़ेंगे. लेकिन इसमें व्यावधान पैदा कर दिया आईना महल ने.

दरअसल, हम बुधवार शाम को भुज पहुंचे थे. सो, उस दिन शहर के चक्कर लगा कर उसकी नब्ज को समझने की हल्की-फुल्की कोशिश हुई. फिर होटल में पहुंच कर आराम. अगले दिन सुबह निकल कर सफेद रेगिस्तान और काला डूंगर. रास्ते में कुछ गांवों में ठहर कर भुज की हस्तकलालों से भी रूबरू हुए. बृहस्पतिवार को सुबह जाकर प्राग महल तो देख लिया, लेकिन आईना महल उस दिन बंद रहता था. इसलिए तय हुआ कि अगले दिन सुबह आईना महल देखते हुए मांडवी के लिए निकलेंगे. इस चक्कर में शहर से निकलते हुए कोई पौने दस बज गये.

अहमदाबाद से आठ दिनों के लिए जो कार किराये पर ली थी उसका ड्राइवर हीरालाल कुछ अड़ियल व जिद्दी किस्म का इंसान था. भले उसे रास्तों के बारे में खास जानकारी नहीं हो, लेकिन फेंकता यूं था मानो वह पूरे इलाके से परिचित है. इस चक्कर में शहर से निकल कर नेशनल हाइवे तक पहुंचने में कुछ समय खर्च हुआ. लेकिन एक बार जो हाइवे पकड़ी तो मांडवी पहुंचने में बमुश्किल घंटे भर लगे.

हाइवे से उतर कर शहर में घुसने पर पहली नजर में यह बेहद शांत और उनींदा-सा लगा. शहर में हमारी पहली मंजिल थी विजय विलास पैलेस. बेटी ने पहले से ही इंटरनेट पर देख कर तय कर लिया था कि सबसे पहले महल ही देखना है. वह जान चुकी थी कि हम दिल दे चुके सनम और लगान जैसी फिल्में इसी महल और इसके ईर्द-गिर्द शूट की गई हैं. इसलिए उसकी उत्सुकता बार-बार छलक रही थी. ड्राइवर को महल के बारे में पता नहीं था. सो, पूछते-पूछते वहां पहुंचे. शहर से कोई तीन किलोमीटर दूर जंगल से घिरे हरे-भरे इलाके में शान से सिर उठाए खड़े इस महल को देख कर यात्रा की थकान और ड्राइवर की अज्ञानता पर पैदा हुई खीज पल भर में न जाने कहां काफूर हो गई.

मांडवी को कच्छ के राजा खेंगरजी ने वर्ष 1574 में बसाया था. धीरे-धीरे यह तटवर्ती शहर गर्मी के दिनों में राजाओं की तफरीह का पसंदीदा स्थान बन गया. मांडवी गुजरात के गिने-चुने समुद्र तटों में से एक है. सागरतटीय सौंदर्य के अलावा मांडवी की संस्कृति भी यहां का एक प्रमुख आकर्षण है. यह संस्कृति गुजरात के बाकी हिस्सों से एकदम अलग है. स्थनीय जनजीवन पर कच्छ संस्कृति का असर साफ देखा जा सकता है. यही कारण है कि मांडवी की यात्रा कच्छ की यात्रा के बिना अधूरी मानी जाती है.

विजय विलास पैलेस मांडवी का सबसे बड़ा आकर्षण है. एक समय यह कच्छ के महाराजाओं का महल था. राव विजयराज जी ने गरमी के दौरान रहने के लिए इसे बनवाया था. ओरछा और दतिया के महलों की शैली में बने इस महल में राजपूत शैली का भी पूरा प्रभाव है. वर्ष 1929 में बना यह महल बालीवुड को भी लुभाता रहा है. वर्ष 1999 की हिट फिल्म हम दिल दे चुके सनम और उसके बाद 2001 में आमिर खान की लगान के कई हिस्से इसी महल में फिल्माए गये थे. महल में उन फिल्मों की शूटिंग के दौर की तस्वीरें भी लगी हैं. अमिताभ बच्चन के अलावा नरगिस भी इस महल में आ चुकी हैं.

हम जब वहां पहुंचे तो राजस्थान के पर्यटकों से भरी एक बस बाहर पार्किंग में खड़ी थी. वहीं दोपहर का खाना बन रहा था और लोग खाने-पीने में जुटे थे. पार्किंग में कार खड़ी करने के बाद टिकट लेकर एक विशाल बगीचे के भीतर बने घुमावदार रास्ते से होते हुए जब महल के नजदीक पहुंचे तो कुछ देर के लिए आंखें खुली रह गईं. इस महल में शूट की गई फिल्मों के दृश्य सहसा आंखों के सामने किसी अदृश्य परदे पर चलने लगे. शुरूआती फोटोग्राफी के बाद अब बारी भीतर जाने की थी. जूते बाहर ही खोलने थे. वहीं एक बोर्ड पर लिखा था कि भीतर फोटो खींचना या वीडियोग्राफी करना मना है. यह देख कर बेटी कुछ निराश हो गई. लेकिन अपने साथ महल घुमा कर उसका इतिहास बता रहे केयरटेकर से पूछा तो उसने कहा कि आपको जितनी फोटो खींचनी हो, शौक से खींचिए. फिर क्या था ? बैग में रखा एसएलआर कैमरा और सोनी का हैंडीकैम पलक झपकते ही हाथों में था. केयरटेकर साथ-साथ चलते हुए बता रहा था कि कहां सलमान ने गाना गाया था और कहां ऐश्वर्या राय ने अपने हाथों की नस काटी थी. खासकर मेरी बेटी यह सब देख-सुन कर बेहद रोमांचित थी.

महज की छत पर बने कंगूरे से नजदीक ही बह रहे अरब सागर का नीला पानी साफ नजर आता है. महल और समुद्रतट के बीच फैली हरियाली कड़ी धूप में आंखों को काफी सुकून पहुंचा रही थी. महल के ऊपरी हिस्से में एक कमरा राजपरिवार के लिए सुरक्षित है. वहां तक पहुंचने के लिए एक अलग सीढ़ी भी बनी है. कच्छ राजा के वंशज पहले मुंबई में रहते थे. लेकिन अब वे भुज में ही रहते हैं और कभी-कभार यहां आते रहते हैं. महल से कुछ दूर बने एक और भवन को अब हेरिटेज होटल में बदल दिया गया है. उसका अपना निजी बीच है.

छत की चारदीवारी में जगह-जगह जालियां बनी हैं. केयरटेकर बताता है कि रानियां इसी झरोखे से बाहर देखती थीं. उनको बेपर्दा होने की इजाजत नहीं थी. महल के पीछे दूर तक फैले फव्वारे इस इलाके के स्वर्णकाल की यादें ताजा कर देते हैं. केयरटेकर ने बताया कि आप जितनी दूर तक देख सकते हैं, वह सब राजा की ही संपत्ति है.

महल में घंटे भर से ज्यादा का समय बिताने के बाद अब हमारी अगली मंजिल थी मांडवी का समुद्रतट. दो-तीन जगह रास्ता पूछते हुए जब वहां पहुंचे तो सूरज सिर पर चमक रहा था और रेत इतनी गरम थी कि उसकी तपिश चप्पल के तले के बेधती हुई पैर की त्वचा तक पहुंच रही थी. मांडवी बीच अरसे से देशी-विदेशी सैलानियों को आकर्षित करता रहा है. यहां अरब सागर का नीला पानी बरबस ही उनको अपनी ओर खींचता है. शांत और साफ-सुथरे समुद्र तटों के लिये मशहूर मांडवी में फ्लेमिंगो जैसे प्रवासी पक्षी भी अपनी यात्रा के बीच में ठहरते हैं. तटीय इलाके में जगह-जगह पवनचक्कियां लगी हैं. दोपहर का समय होने की वजह से बीच पर ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी. कुछ देसी और कुछ विदेशी सैलानी वहां नहाने और ऊंट की सवारी का लुत्फ उठा रहे थे. अब चूंकि हमें दिन में लंबा रास्ता तय करना था. इसलिए नहाने का इरादा तो छोड़ दिया. लेकिन पानी में उतरे और ऊंट की सवारी का भी मजा लिया. बीच से लौटते समय देखा कि राजस्थानी सैलानियों से लदी वही बस बीच पर पहुंच रही है जिसे पीछे विजय विलास पैलेस में छोड़ आए थे.

इस शहर की ज्यादातर प्रमुख इमारतें और मंदिर-मस्जिद शहर के बसने के शुरूआती 50 वर्षों के दौरान बने हैं. उसी से पता चलता है कि कच्छ के लिए मांडवी की कितनी अहमियत थी. भुज स्थित ब्रिटिश पॉलिटिकल एजंट ने भी मांडवी को अपना गर्मियों का ठिकाना बनाया था. शहर में स्थित ब्रिटिश कब्रिस्तान को देख कर कर लगता है कि अंग्रेजों के लिए भी मांडवी का महत्व कम नहीं था. हां, मांडवी में हैं तो यहां की मशहूर डबल रोटी का स्वाद लेना मत भूलें. स्थानीय भाषा में इनको डाबेली कहा जाता है.

हमारे पास समय कम था और देखने को बहुत कुछ. इसलिए न चाहते हुए भी मन मसोस कर रुक्मावती के मुहाने की ओर चल पड़े. कभी कच्छ इलाके की रीढ़ रहे नौका निर्माण उद्योग को देखने. अब एंटी-पाइरेसी कानून के तहत लागू पाबंदियों के चलते यह उद्योग आखिरी सांसें गिन रहा है. पांच साल पहले एंटी पाइरेसी कानून के तहत इन नावों पर कई तरह की पाबंदियां लग गई हैं. यहां बिना मास्ट के बनी नावों को स्थानीय भाषा में ढौ कहा जाता है.

लगभग चार सौ वर्षों से ढौ या नौका उद्योग मांडवी की रीढ़ रहा है. किसी जमाने में यह गुजरात का प्रमुख बंदरगाह था. यहां से जितनी चीजों का आयात होता था, उसके मुकाबले कहीं चार गुना निर्यात होता था. दक्षिण-पूर्व एशिया से लेकर सुदूर पूर्वी अफ्रीका तक से जहाज इस बंदरगाह पर आते थे. वर्ष 1760 में राव गोडीजी के शानकाल के दौरान तो यहां चार सौ जहाजों का बेड़ा था, जो इंग्लैंड तक जाता रहता था. समय के साथ बड़े जहाजों के मुंबई का रुख करने की वजह से इस बंदरगाह का महत्व लगातार घटता गया. लेकिन नौका निर्माण उद्योग पांच साल पहले तक रुक्मावती नदी के किनारे पूरे शबाव पर था. मांडवी की सुरक्षा के लिए कच्छ राजाओं ने शहर में एक किला बनवाया था जिसकी दीवारें 8 मीटर ऊंची थी. इसमें कई दरवाज़े और 25 बुर्ज थे. अब यह दीवार लगभग ढह चुकी चुकी है, लेकिन दक्षिण-पश्चिम में स्थित सबसे बड़ा बुर्ज फिलहाल लाईटहाउस का काम कर रहा है.

कभी यहां सैकड़ों कारीगर दिन-रात नावें बनाने में जुटे रहते थे. लेकिन अब उद्योग की रफ्तार सुस्त हो गई है. पांच साल पहले लगी पाबंदी के चलते अब ऐसी नावों को अरब सागर में ओमान से आगे जाने की अनुमति नहीं है. इससे व्यापार और नौका निर्माण दोनों बदहाली के शिकार हो गये हैं. मांडवी शिपबिल्डर्स एसोसिएशन के शैलेश माडियार बताते हैं कि पांच साल पहले पाबंदी लगाने तक एक साथ 20 या उससे ज्यादा नावों को बनाने का काम चलता रहता था. लेकिन फिलहाल दो नावों पर ही काम चल रहा है. वे बताते हैं कि अब साल में पांच या छह नावें ही बन पाती हैं. यहां से कई लोग अपना कारोबार समेट खाड़ी देशों में चले गये हैं.

मांडवी को देखना एक इतिहास से गुजरने की तरह है. यह छोटा-सा शहर कितना इतिहास समेटे है, पहली नजर में इसका अहसास तक नहीं होता. शहर के प्रमुख इलाकों से गुजरते हुए लगता है कि आप इतिहास की पुस्तक के पन्ने पलट रहे हैं. अनजाने ही आप खुद को उसका हिस्सा महसूस करने लगते हैं.

तमाम इलाकों को देखने और स्थानीय लोगों से बातचीत करने के बाद मांडवी के स्वर्णकाल की काल्पनिक तस्वीरें बनाते हुए हम शहर से निकल पड़े अपनी मंजिल की ओर. मंडिल यानी द्वारका. शहर से बाहर निकल कर नेशनल हाइवे पर पहुंचते ही लगा कि हम एक झटके से किसी टाइममशीन से बाहर निकलने की तर्ज पर अतीत से वर्तमान में लौट आए हों.

Day 1