क्या आप जानते हैं कि कश्मीर ऐतिहासिक दृष्टि से सनातन धर्म का एक महान् और अद्भुत गढ़ रहा है। पिछली पोस्ट में मार्तण्ड सूर्य मंदिर के बारे में जाना था जो अनंतनाग जिले में स्थित है। उसी कड़ी में आगे बढ़ते हुए आइए जानते हैं कश्मीर के गांदरबल जिले में स्थित 2000 साल पुराने और अपने ही लोगों द्वारा लगभग भुला दिए गए इस नारानाग शिवमंदिर के बारे में। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आजतक कोई भी ये पता नहीं लगा पाया है कि इस मंदिर के पत्थरों को किस पदार्थ से आपस में जोड़ा गया है। है ना रहस्यमयी मन्दिर 🛕। तो चलिए फिर इस खूबसूरत और आध्यात्मिक सफ़र पर ...🚗🌍
श्रीनगर से 48-50 किमी आगे लेह कारगिल हाईवे पर सोनमार्ग की ओर चलने पर वुसान(कंगन) नामक जगह पर एक टर्न आता है, जो आपको वांगत मंदिर परिसर तक ले जाता है। कुछ एक किमी चलने के बाद सिंधु नदी की एक धारा मिलती है जिसे कनका नदी कहते हैं। इस जलधारा के साथ चलते चलते आप उसी रोड से ऊपर चढ़ते हुए पहुंच जाते हैं एक प्रवेशद्वार पर, जहां भारतीय पुरातत्व विभाग का बोर्ड लगा है। अन्य प्रसिद्ध स्थानों की अपेक्षा कश्मीर का ये हिस्सा ज्यादातर सुनसान और शांत रहता है।
नारानाग शिवमंदिर
वर्तमान परिसर लगभग 1250 साल पुराना है जिसे 8वीं शताब्दी में कर्कोत राजवंश के ललितादित्य मुक्तपीड़ ने बनवाया था। हां, ये वही ललितादित्य मुक्तपीड है जिन्होंने मार्तण्ड सूर्य मंदिर बनवाया था।
सन्दर्भ और इतिहास
राजतरंगिणी में कल्हण बताते हैं कि सम्राट अशोक ने 2300 साल पहले श्रीनगर नाम का नगर बसाया था। उनके बेटे जलुका ने 2200 साल पहले नारानाग के पवित्र चश्मे के पास वांगत घाटी में भूतेश्वरा तथा ज्येष्ठरुद्र नामक दो शैव मंदिरों और मठों का निर्माण करवाया। वांगत मंदिर के समानांतर समय में श्रीनगर में शंकराचार्य मंदिर और मत्तन (यहीं बना है मार्तण्ड सूर्य मंदिर, लिंक के लिए पोस्ट के अंत में देखें) में बुमाजुवा गुफा मंदिर बनाए गए थे। 8वीं शताब्दी ई. में ललितादित्य मुक्तपीड ने अपनी एक विशाल विजय के बाद, एक काफी बड़ी धनराशि इस मंदिर को जीर्णोध्दार के लिए दान की थी। 9वीं शताब्दी में राजा अवंतिवर्मन ने ज्येष्ठरुद्र का पत्थर का मंदिर से बनवाया था।
मंदिर की वास्तुकला और ढांचा :
कश्मीर में नजदीक के ही क्षेत्रों में पाए जाने वाले ग्रे ग्रेनाइट पत्थर से बने वांगत मंदिर परिसर में अलग-अलग समय और माप के 17 अलग-अलग मंदिर के ढांचे, तीन समूहों में स्थित हैं। आज ये सभी खंडहरों की हालत में हैं। पश्चिमी और पूर्वी परिसर (दोनों ही अलग-अलग पत्थर की दीवार से घिरे हुए हैं) और इनके बीच स्थित है तीसरा समूह मठ के ढांचे का है। ये तीनों समूह नजदीक ही स्थित हैं।
पहला समूह पश्चिमी परिसर -
यहां स्थित 6 मंदिरों के समूह को ज्येष्ठरुद्र/जयश्ठेशा शिव कहा जाता है, जो एक बड़ी पत्थर के दीवार से घिरे हैं। ज्येष्ठरुद्र मंदिर इस समूह के बाकी ढांचों से अलग थोड़ी ऊंचाई पर बना है और बाकी छोटे मन्दिर इसको आस पास घेरे हुए हैं। 8 फीट की मोटाई वाली वर्गाकार आकृति मुख्य मंदिर है, जिसमें पूर्वोत्तर और दक्षिणपश्चिम दिशा से दो प्रवेशद्वार हैं। अंदर से देखने पर छत गुंबदाकार है और बाहर से ये छत पिरामिड के आकर की है। हमने मार्तण्ड सूर्य मंदिर वाली पोस्ट में भी चर्चा की थी कि, मंदिरों के ऊपर पिरामिड बनाना कश्मीर की मंदिर वास्तुकला का पहचान चिन्ह है। जैसे हमने जाना था कि, मार्तण्ड सूर्य मंदिर की पिरामिड नुमा छत आक्रांताओं द्वारा खंडित कर दी गई है। इस समूह के केंद्र में एक कच्चा वर्गाकार स्थान है जो मुख्य मूर्ति का स्तंभाधर था।
दूसरा समूह केंद्रीय मठ -
पश्चिमी और पूर्वी परिसरों के बीच स्थित इस केंद्रीय मठ में अनेक ढांचे हैं। यहां से एक 120 फीट लंबी, 70 फीट चौड़ी व 10 फीट ऊंची एक संरचना के अवशेष मिले हैं। इसके किनारे पर हर 12 फीट के अंतराल पर 30 अखंड पत्थर के स्तंभ हैं। यह एक स्तंभित मंडप* या मठ रहा होगा। यहां एक 18 फीट का प्रभावशाली कुंड है जिसे एक ही पत्थर को हाथों से काटकर बनाया गया है। * मार्तण्ड सूर्य मंदिर भी स्तम्भ आधारित है और स्तंभपांक्ती वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है।
तीसरा समूह पूर्वी परिसर -
यह परिसर एक विशालकाय पत्थर की दीवार से घिरा हुआ है जिसमें दोनो विपरीत दिशाओं से एक एक कक्ष को पत्थर में छेदकर, प्रवेश द्वार बनाया हुआ है। इस दीवार के अंदर आंशिक रूप से जमीन में धंसे हुए, 6 मंदिर खंडहर की हालत में मिलते हैं। इस परिसर की पहचान भूतेश्वर शिवमंदिर (भैरव) के रूप में की है। पूर्वी समूह का सबसे बड़ा मंदिर 17 फीट के अंदरूनी आधार वाला, वर्गाकार ढांचा है। ये पश्चिमी परिसर में मौजूद सबसे बड़े मंदिर के बराबर ही है। यहीं मोहनमर्ग में रुककर ओरेल स्टेन ने राजतरंगिणी का संस्कृत से इंग्लिश में प्रसिद्ध अनुवाद किया था।
मार्तण्ड सूर्य मंदिर की भांति ही यहां भी ग्रीक और रोमन वास्तुकला के कुछ अंश नए तरीके से प्रयोग किये गये हैं। हजारों सालों से भारत विज्ञान का देश रहा है, नए नए प्रयोग होते रहे। पर हम एकबार हाशिए पर गए तो, आजतक वापस उस स्थान/ख्याति को प्राप्त नहीं हुए जो इनके लिए उपयुक्त होता।
मंदिर परिसर का विध्वंश :
बंशी लालजी अपनी पुस्तक ' Sculptures of Kashmir' में कल्हण की राजतरंगिणी के आधार पर बताते हैं कि 11वीं शताब्दी की शुरुआत में कश्मीर के ही एक राजा संग्रामराजा ने और 12वीं शताब्दी में यहीं के एक और राजा उकाला ने इन्हे लूटा।
परन्तु, हमने ऊपर ये भी देखा कि 8वीं शताब्दी में तत्कालीन कश्मीर के ही शासक ललितादित्य मुक्तपीड़ ने बहुत बड़ी धनराशि मंदिर के उत्थान और कायाकल्प के लिए दान की। इसके बाद के समय में ही कश्मीर के अंदर एकाकी राजाओं का प्रचलन बढ़ा और जिसका नतीजा आपसी द्वंद और विनाश ही होना था। ये एकाकी राजा अपने व्यक्तिगत वर्चस्व के लिए सनातन संस्कृति को ही भूल गए, जिसमें हमेशा मनुष्य को इस पृथ्वी पर सबसे विद्वान जीव होने के कारण, बाकी सभी जीवों और अपनी मां समान पृथ्वी गृह का भी ध्यान रखने की जिम्मेदारी लेने वाला बनना सिखाया गया है।
और विनाशकाले विपरीत बुद्धि को चरितार्थ करते हुए इन बेवजह (ये युद्ध सत्य या धर्म या देश के लिए नहीं लड़े जा रहे थे अतः बेवजह) हो रहे युद्धों में हो रहे अपने असीमित आर्थिक घाटे की भरपाई के लिए एक दूसरे के क्षेत्रों में पड़ने वाले मंदिरों की संपदा को लूटना शुरू किया। ये दोनों ही मंदिर अंतिमबार कर्कोत वंश के राजा ललितादित्य द्वारा पुनर्व्यवस्थित करवाए गए थे। उसके बाद ये केवल खंडित ही किए गए और बारंबार किए गए। इसके बाद कश्मीर घाटी में धीरे धीरे इस्लाम ने पैर पसारने शुरू किए और फिर शुरू हुआ विदेशियों द्वारा धार्मिक उन्माद में मंदिरों को ध्वस्त किए जाने का सिलसिला। जब हमने मार्तण्ड सूर्य मंदिर के खंडहरों के बारे में बात की थी तब भी यही सिलसिला देखा गया था और शायद आज भी यही सिलसिला किसी ना किसी रूप में जारी है। विदेशी इस्लामिक आक्रांताओं द्वारा कई बार ये मंदिर तोड़े गए।
विशेष सन्दर्भ :
वांगत मंदिर कॉम्प्लेक्स में पत्थरों को आपस में जोड़े जाने के लिए इस्तेमाल किए गए गारे के बारे में अभी रहस्य ही बना हुआ है। राम चन्द्र काक अपनी पुस्तक "Ancient Monuments of Kashmir" में बताते हैं कि इन पत्थरों को जोड़ने के लिए लाइम या चूने का इस्तेमाल किया गया है। पर सवाल का जवाब अभी भी अधूरा क्यूंकि सिर्फ चूने के गारे से ऐसा कार्य संभव नहीं, तो आखिर कौन सा ऐसा मिश्रण था जो चूने के साथ बनाया गया और गारे में इस्तेमाल किया गया। आखिर 2000 सालों से ये ढांचा सभी तरह के विघटन के बावजूद आज भी खड़ा हुआ है।
कल्हण ने राजतरंगिणी में लिखा है कि प्राचीन काल में इस मंदिर परिसर को वशिष्ट आश्रम कहा जाता था। इसका प्राचीन नाम सोदारतीर्थ (सोदारनाग तीर्थ) था। कल्हण का परिवार इसी मन्दिर को समर्पित था। कल्हण के पिता और चाचा इस मंदिर में संबद्ध थे। यहीं स्थित हरमुख पर्वत को भगवान शिव का निवास (कैलाश के अतिरिक्त) माना जाता है। उस समय में इन मंदिरों में एक अच्छी संख्या में पुरोहित हुआ करते थे। जिनको एक अच्छा मानदेय मंदिर को मिले राजकीय व अन्य दान से दिया जाता था। इन पुरोहितों का कार्य पूजापाठ के अतिरिक्त मन्दिर के रखरखाव विपदा के समय भूखों के भोजन, प्यासे के पानी और बीमार के उपचार उचित वयवस्था करना होता था। पर आज ये सिस्टम फेल हो चुका है। नतीजा हम सबके सामने है - जर्जर होती हमारी विरासतें !!
पर्यटन की दृष्टि से :
कश्मीर के गंदेरबल जिले में चीड़ और देवदार के घने जंगलों और हरमुख पर्वत (भगवान शिव का निवास) के प्रभाव से यह मंदिर एक अलौकिक दृश्य व वातावरण प्रदान करता है। यहां स्थित पवित्र पानी के चश्मे के पास से ही हरमुख पर्वत के लिए ट्रेक करने का रास्ता है। वहीं ऊपर पवित्र गंगाबल, विहनसार और कृष्णसार झील का मनोरम और प्राकृतिक रूप से दैवीय दृश्य आपको देखने को मिलेगा।
गंगाबल झील
यहां इस हरमुख पर्वत पर और गंगाबल झील तीर्थों पर प्राचीन समय से ही निरंतर लोग दर्शन और रोमांच के लिए आते रहे हैं। जबकि शिव दर्शन के लिए तो यहां प्राचीन काल से ही श्रद्धालु निरंतर आते रहे हैं। यहां ट्रेकिंग और हाईकिंग करते हुए आप समझिए जन्नत की सैर करने पहुंच गए हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने नारानाग में वांगत मंदिर परिसर को "प्राचीन संरक्षित मंदिरों के समूह" के रूप में "भारत के केंद्रीय संरक्षित स्मारक" घोषित किया है। और शायद बस यही एक काम है जिसे पुरातत्व विभाग ने यहां पर किया है। मंदिर की जर्जर हालत आप लोग चित्रों में देख ही सकते हैं। आइए इसे भारत के असली घुमक्कड़ों तक इस जानकारी को पहुंचाए, ताकि आने वाले सैलानियों की मांग को देखते हुए इन मंदिरों के जीर्णोद्धार की तरफ़ सरकारों का ध्यान आकर्षित हो और इसके लिए एक प्रभावशाली मुहिम चलाई जा सके।
मार्तण्ड सूर्य मंदिर
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