
शहर नहीं सभ्यता है , जो सदियों से उन्ही लम्हों में जि रहा है, ये सुबह का बनारस है और बनारस यहीं से दिखता है,जब सुबह-सुबह बदलो के पीछे से झांकता हुआ किरणों का देवता अपनी पूरी चमक के साथ निकलता है . उस छड़ गंगा में उस उगते सूरज के साथ स्न्नान के बाद जो चेहरे पे निर्मलता आती है जो प्रसन्नता आती है मानो की जैसे किसी की परवाह ही न हो , बस उस छड़ में जीना है
वैसे तो हर जगह की सुबह अलग अन्दाज़ ले के आती है, मगर बनारस की सुबह में अलग सा जादू है ,लोग खुद को सजाते हैं अपने स्थान को सजाते हैं बिना किसी दिखावे के सब अपने में मस्त .जहाँ जहाँ नजर जाती है बनारस अपनी मौज में डूबा नजर आता है।
फिज़ाओं में घुली सुबह की आरती. मंत्र, घण्टो की आवाज और इनकी आवाज पे गोता लगाते आज़ाद परिंदे जो अपने होने का ही जश्न मना रहे होते है
ये सुबह का बनारस है इसे जो सुबह देखेगा वही जान पायेगा इसे किसि को बताया नहीं जा सकता इसको सिर्फ जिया जा सकता है.
घाटो के किनारे बने पक्के महल जिसमे रहने वालों का अलग ही अंदाज़ होता है , जिसके हर जर्रे से झलकती है हमारी संस्कृति हमारे रिवाज . आगे जहां जाओ हर दस कदम पे मन्दिर, पीपल के पेड़ ऐसा लगता है जैसे हर सांस के साथ एक आध्यात्मिक उर्जा शरीर मे प्रवेश करती हो. और बनारस की गलियां यूं कहो कि बनारस गलीयों में ही बसता है गलियों में मिलने वाला सुबह का नाश्ता कचौरी , जलेबी , छोले aahhh क्या कहा जय!! ऐसा भोजन पूरे दुनियां में नहीं , और भोजन के बाद पान हर बार होता है ऐसा जैसे कि हर वाक्य के बाद पूर्ण विराम हो , हर व्वाक्य पे ...
यह काशी ही है जो लोगों को जीना मरना दोनों सिखाती है,
जीवन का वो अंतिम पड़ाव हरिश्चन्द्र घाट पे , सामने जलती चिता को देखना और लकड़ियों के जलने के साथ वो राम राम की आवज , ऐसा लगता है मानो सिर्फ यही सच हो बाकी सब दिखावा. ज़िन्दगी और मौत दोनो साथ में दिखाई देती है।









